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Magazine - Year 1957 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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हमारा लोक राज कैसे सफल हो सकता है?

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First 17 19 Last
(श्री संतराम जी)

गंगा जब गंगोत्री से निकलती है तो उसका जल बहुत निर्मल रहता है। ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ती है उसके पानी में धूल, मिट्टी का अंश बढ़ता जाता है। और वह गंदला हो जाता है। इसी प्रकार बहुत प्राचीन समय में मनुष्य-समाज आज की अपेक्षा बहुत निर्मल था। उसमें लड़ाई, झगड़े, मार-काट, चोरी-डकैती, झूठ, अन्याय आदि दोष बहुत कम थे। उस समय मनुष्यों की संख्या कम थी और भूमि, जंगल आदि जीवन निर्वाह के साधन अधिक थे। इसलिए लोग प्रायः सुख शाँति से रहते थे। उनको लड़ने-झगड़ने की आवश्यकता भी बहुत कम पड़ती थी। उस समय न कोई राजा था न पुलिस और सेना थी। न्यायालय और जेलखाने भी न थे। लोगों में लोभ कम था और उनमें प्रकृतिजन्य सात्विक भाव पाया जाता था। उस युग में सब मनुष्य काम करते थे और उनको खाने को मिलता था।

धीरे-धीरे जब जनसंख्या बढ़ने लगी तो खाने-पीने तथा पहनने और ओढ़ने की वस्तुओं को प्राप्त करने में कठिनाई होने लगी। मनुष्यों की प्रकृति में भेदभाव बढ़ा। वे धन, धरती और स्त्रियों के लिए आपस में लड़ने लगे। सबल, निर्बलों को सताने लगे। तब लोगों को समूह बनाकर रहने और सम्मिलित होकर अपनी रक्षा करने की आवश्यकता पड़ी। समूह का एक नेता या मुखिया नियत किया जाता था। इस मुखिया या कुलपति की आज्ञा का पालन प्रत्येक व्यक्ति को करना पड़ता था। यदि एक समूह का कोई व्यक्ति या दल दूसरे समूह के किसी सदस्य पर आक्रमण करता था तो सब मिलकर उसकी रक्षा करते थे।

इस प्रकार समूहों में आपस में युद्ध होने लगे और देश में अशाँति फैलने लगी। इस अशाँति को रोकने के लिए अनेक समूह मिलकर अपना एक शासक या राजा चुनने लगे। इसका कार्य अपनी प्रजा के आपसी झगड़ों को मिटाना और बाहरी शत्रुओं से अपने देश की रक्षा करना होता था। प्रजा पर राजा का प्रभाव और आतंक जमाने के लिए तरह-तरह के किस्से गढ़े जाने लगे। ये कहा गया कि राजा ईश्वर का रूप होता है, उसके प्रति द्रोह करना या किसी प्रकार की हानि पहुँचाने का प्रयत्न करना महापाप है। राज्य प्रबंध चलाने के लिए राजा, मंत्री, अधिकारी और सेना रखता था। इसके खर्च के लिए वह प्रजा से कर वसूल करता था। आरम्भ में तो इस प्रथा से देश में सुख शाँति की वृद्धि हुई और प्रजा निष्कंटक भाव से अपना काम करने की सुविधा पा सकी। पर कुछ समय बाद ही कई बड़े दोष उत्पन्न हो गये। एक तो सबसे योग्य व्यक्ति को ही राजा चुनने में कई प्रकार के विघ्न पड़ने लगे। अनेक व्यक्ति जो शासन के गुण तो बहुत कम रखते थे, पर स्वभाव से युद्ध प्रिय और दुर्धर्ष होते थे राजा बन जाते थे और प्रजा पर अत्याचार करके अपने पद पर जमे रहने का प्रयत्न करते थे। दूसरी बात यह हुई कि शीघ्र ही राजा चुनने की प्रथा का अंत हो गया और राज पद वंश परम्परागत बन गया। राजा के मरने पर उसका पुत्र ही राजा बनाया जाने लगा चाहे वह कैसा ही अयोग्य क्यों न हो। एक और बड़ा दोष इस प्रथा में यह था कि जिस व्यक्ति को राजा बनाया जाता था या जो वंश-परम्परा से राजा बन जाता था, वह यद्यपि अन्य साधारण मनुष्यों की तरह ही गुण दोष युक्त होता था। पर वह राज सत्ता को पाकर अपने को सबसे श्रेष्ठ और ईश्वर का प्रतिनिधि समझकर अहंकार करने लगता था। दूसरे लोग अकारण ही अपने को निकृष्ट और राजा का दास समझने लगते थे। इससे उनकी मनोवृत्ति सदा दबे रहने की हो जाती थी और उनका स्वाभिमान का भाव कुचल दिया जाता था। राजा और उसके वंशज कुछ भी काम न करके प्रजा की गाढ़ी कमाई पर गुलछर्रे उड़ाते थे। वे सैंकड़ों स्त्रियाँ रखते थे और ऐश आराम में पड़कर अपना कर्तव्य भी भुला देते थे।

संसार में ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाने से समझदार लोग राजा के विरुद्ध हो गये और प्रजा तंत्रात्मक शासन प्रणाली का उदय हुआ। इस प्रणाली का आधार सब लोगों में समता, बराबरी और स्वतंत्रता की भावना होती है। इसमें किसी व्यक्ति को उसके जन्म के कारण ऊँचा या नीचा नहीं माना जाता। इसमें प्रत्येक व्यक्ति के प्राणों का मूल्य एक समान समझा जाता है। प्रजातंत्र में एक व्यक्ति को स्वतंत्र और दूसरे व्यक्ति को उसका दास नहीं समझा जाता। उसमें मनुष्यता के नाते सब मनुष्य समान माने जाते है और सबके अधिकार भी समान होते हैं। प्रजातंत्र या लोकराज की परिभाषा संक्षेप में यह है कि- “जनता का राज्य, जनता द्वारा और जनता के लिए राज।” इसमें शासन का अधिकार जनता के ही हाथ में रहता है। इसमें सभी मनुष्यों को ऐसे कार्य करने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है जिनसे दूसरों की स्वतंत्रता में बाधा न आये। “आप जीओ और दूसरे को जीने दो।” यह आदर्श नियम ही उत्तम प्रजातंत्र सिद्धाँत का मूल मंत्र होता है।

ऐसे लोक-राज्य और एक राजा के राज्य में बड़ा अंतर होता है। एक तंत्र वाले राजाओं की प्रजा परावलम्बी और प्रत्येक बात में दूसरों का मुँह ताकने वाली बन जाती है। वह अपनी रक्षा तथा सुख सुविधा का सारा दायित्व राजा पर छोड़कर आप पराधीन हो जाती है। नगर में गंदगी फैल रही हो, डाकू, चोर लोगों को तंग कर रहे हों, जंगली जानवर लोगों की हानि कर रहे हों, गाँव में स्कूल या अस्पताल के न होने से लोगों को असुविधा झेलनी पड़ती हो, समय से पानी न बरसे या अतिवृष्टि से फसल तबाह हो जाये, कोई महामारी फैल जाये-साराँश किसी भी प्रकार की आपत्ति सर पर आ पड़ने पर प्रजा उसके प्रतिकार का कोई उपाय नहीं कर सकती। वह अपने हाथ-पैर हिलाने में असमर्थ हो जाती है। अधिक से अधिक पीठ पीछे राजा को कोसने लगती है।

इसके विपरीत लोक-राज का प्रत्येक नागरिक देश के अपयश को अपना अपयश तथा देश के सुयश को अपना सुयश समझने का अधिकार रखता है। वह अपना राजा आप होता है, इसलिए वह अपने कष्टों को आप दूर करने का प्रयत्न करता है। किसी प्रकार का अन्याय, अत्याचार होने पर चुपचाप उसे सहन नहीं करता रहता वरन् अकेला ही या सामूहिक रूप से उसके विरुद्ध आवाज उठाता है-उसके प्रतिकार की चेष्टा करता है।

ये सत्य है कि सहस्रों वर्षों की दासता और अनेक प्रकार की सामाजिक बुराइयों के कारण भारतीय जनता में चरित्र-बल का अभाव सा हो गया है। इसलिए लोक राज को पाकर भी वह उससे समुचित लाभ नहीं उठा सकती। इतना ही नहीं अनेकों मूर्ख और निकम्मे व्यक्ति तो अभी राजतंत्र के ही गुण गाते हैं। यहाँ की जनता के चरित्र को ऊँचा उठाने और लोकराज को सच्चे अर्थ में स्थापित करने के लिए अभी अनेकों त्यागी और तपस्वी लोकसेवकों की आवश्यकता है। तभी हमारा लोकराज सार्थक हो सकेगा।

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