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Magazine - Year 1957 - Version 2

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राम-चरित्र की महानता और उसकी शिक्षाएँ

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(श्री एस. बी. वर्मा)

रामायण हिन्दू-संस्कृति का परिचायक एक अपूर्व ग्रंथ है। यद्यपि रामायण की जो पुस्तकें आजकल हमको मिलती हैं वे दो-ढाई हजार वर्ष से पुरानी नहीं हैं तो भी उनमें प्राचीन हिन्दू-समाज की मान-मर्यादा और विशेषताओं का अच्छा परिचय मिलता है।

भारतीय समाज का सबसे प्राचीन चित्र ऋग्वेद में मिलता है। उसमें आर्य और अनार्यों के संघर्ष की कथाएँ भरी पड़ी हैं। प्रत्यक्ष और अलंकारिक भाषा में उसमें अनेक युद्धों का वर्णन आया है। ब्राह्मण-ग्रंथों के निर्माण काल तक आर्य और अनार्य घुल-मिल गये थे। उत्तर भारत के अनार्यों पर आर्य सभ्यता की छाप पूरी तरह पड़ चुकी थी, पर दक्षिणी भारत अभी तक अछूता था। वहाँ बहुत दूर-दूर पर आर्यों ने अपने उपनिवेश स्थापित किये थे, पर उनकी शक्ति अधिक नहीं थी, और उनको वहाँ के मूल निवासियों तथा विदेशियों के विरोध का मुकाबला भी करना पड़ रहा था। आर्य-जाति के बड़े नेता और संचालक स्वभावतः ही अपनी संस्कृति को दक्षिण में फैलाने के लिए व्याकुल थे और यही राम-रावण युद्ध का मूल था।

राजा दशरथ के राज्य-काल में उत्तर-भारत में राष्ट्रीयता लुप्तप्राय थी। वहाँ की राजनीतिक स्थिति बहुत डाँवाडोल थी । कोई ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं था जो सब छोटे-छोटे बिखरे हुए राज्यों को एक सूत्र में ग्रथित करके एक संगठित राष्ट्र का रूप देता। ब्राह्मणों में भी राज्य की लालसा उत्पन्न हो गयी थी और वे परशुराम जी के नेतृत्व में जगह-जगह क्षत्रियों का संहार करके राज्याधिकार पाने में सफल हुए थे। उस समय उत्तर भारत में आर्यों के दो ही राज्य ऐसे थे जो कुछ शक्ति रखते थे-एक कोसल और दूसरा मिथिला। जिस प्रकार मुसलमानों के भारत आक्रमण काल में, हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति का ह्रास देखते हुए भी, आपस के मनोमालिन्य और स्वार्थ के कारण, हिन्दू नरेश एक सूत्र में नहीं बँध सके , उसी प्रकार एक ओर परशुराम की संहार भावना और दूसरी ओर अनार्यों के उपद्रवों को देखते हुए भी कोसल और मिथिला के राज्य एक सूत्र में न बँध सके थे। इसी मनोमालिन्य का परिणाम था कि सीता स्वयंवर के लिए कोसल नरेश को सम्भवतः निमंत्रण नहीं मिला था।

विश्वामित्र जन्मता क्षत्री थे और अपने समय के बहुज्ञ, दूरदर्शी और अनुभवी राजनीतिज्ञ थे। वे समझते थे कि राष्ट्र का वास्तविक हित तभी सम्भव है जब ब्राह्मबल और क्षात्रबल का उचित रीति से समन्वय किया जा सकेगा। अतएव, वे ऐसे ही सुअवसर की खोज में थे। उन्होंने ब्राह्मबल के अधिष्ठाता वसिष्ठ और क्षात्रबल से मंडित श्रीराम में ऐसे समन्वय का आभास पाया। सीता-स्वयंवर ने मिथिला और कोसल को एक सूत्र में बाँधने का सुयोग दिया। विश्वामित्र ने इस सुयोग से लाभ उठाया। वे राक्षसों (अनार्यों)से यज्ञ की रक्षा करने के नाम पर राम-लक्ष्मण को अपने साथ लिवा ले गये और ठीक मौके पर मिथिलापुर जा पहुँचे।

आर्य-अनार्य संघर्ष

साम्राज्यवादी और कूटनीतिज्ञ रावण भी बहुत समय से दक्षिण-भारत को अपने साम्राज्य का अंग बनाने की चेष्टा कर रहा था। भारत के आर्य-राजाओं की आपसी फूट और एकता की कमी को देखकर इस समय वह भी अपनी चाल चल रहा था। उसने उन अनार्यों को, जो अपनी कट्टरता के कारण आर्यों में घुलने-मिलने को तैयार न हुये थे और गहन जंगलों तथा पहाड़ों में भागकर अपनी जातीयता की रक्षा कर रहे थे, आर्यों के विरुद्ध भड़का रखा था कि वे ऋषियों द्वारा संचालित शिक्षा संस्थाओं, तपोवनों में तोड़ फोड़ की कार्यवाहियां जारी रखें। जिस प्रकार आज कल भारत-विभाजन हो जाने पर भी पाकिस्तानी मुसलमान भारतीय-सीमा के निकट रहने वाले भारतीयों पर आक्रमण किया करते हैं, उसी प्रकार अनार्यों के छापामार भी तपोवन वासी ऋषियों और ब्रह्मचारी छात्रों को तरह-तरह से सताया करते थे। विश्वामित्र ने राम को नये-नये अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा दी। राम भी अनार्यों की नेतृ ताड़का को मारने और उसके दल को नष्ट करने में सफल हुये। उसके बाद राम ने सुबाहु तथा मारीच के नेतृत्व में छापा मारने वाले दूसरे दल का विध्वंस किया और मारीच को सुदूर दक्षिण की ओर खदेड़ दिया।

इधर विश्वामित्र की कूटनीति के फलस्वरूप, निमंत्रित न होते हुए भी, राम ने सीता-स्वयंवर में जाकर अपना-प्रबल-पराक्रम दिखलाया-अत्यंत कठोर शिव-धनुष को तोड़कर अद्भुत शारीरिक शक्ति का परिचय दिया। इस प्रकार सीता से विवाह होने पर दो बड़े राजकुल-एकता के सूत्र में बंध गये। इनके परस्पर सम्बद्ध हो जाने से उत्तर भारत में आर्य-संगठन का श्री गणेश हुआ।

लंकापति रावण भी, जो भौतिक विज्ञान में पारंगत होने के कारण वायु-विमान तैयार करा चुका था, मिथिला पति को स्नेह सूत्र में बाँधने के अभिप्राय से सीता-स्वयंवर में आया था। किन्तु जब उसने देखा कि दूसरा पराक्रमी अनार्य योद्धा वाणासुर भी उसी उद्देश्य से आया है, तो उसने सोचा कि आर्यों के आगे अनार्य नरेशों का इस प्रकार आपस में लड़कर शक्तिहीन बन जाना उचित नहीं। अतएव यह स्वयं भी हट गया और वाणासुर को भी वहाँ से हटा ले गया।

क्षत्रियों की यह बढ़ती हुई शक्ति परशुराम को सहन न हुई। वे राम को नीचा दिखाने के लिए कटिबद्ध हो गये। किंतु जब उन्हें राम की वीरता और प्रतिभा का परिचय भली-भाँति मिल गया और उन्होंने जान लिया कि आर्य-राष्ट्र का कल्याण राम द्वारा ही हो सकता है, तब वे अपनी शक्ति और गौरव का अवसान काल समझकर, राजनीतिक क्षेत्र से एक बारगी अलग होकर, जंगल में तप करने चले गये।

इन घटनाओं के फलस्वरूप विश्वामित्र ने उत्तर भारत की स्थिति को सर्वथा निरापद अनुभव किया और इस अवसर को दक्षिण में आर्य सभ्यता तथा आर्य संस्कृति फैलाने के लिए विशेष अनुकूल समझा। राम के वन-गमन की घटना का कारण अनेक आलोचकों ने घरेलू राजनैतिक षडयंत्र बतलाया है, पर दूसरी श्रेणी के आलोचकों को उसमें कोई गहरा उद्देश्य जान पड़ता है। श्रीराम की योग्यता और शक्ति को देखकर आर्य जाति के प्रधान नेताओं को यह विश्वास हो चुका था कि वे ही दक्षिण भारत को आर्य-सभ्यता का अनुयायी बना सकते हैं। इसलिए उन सबने मिलकर, जिसमें पंजाब तक के आर्य नेताओं, ऋषि तथा मुनियों का भी हाथ था, इस योजना को कार्यान्वित कराया। यह इससे भी ज्ञात होता है कि भारद्वाज ऋषि ने भी भरत से कहा था कि ”रामचंद के वन जाने का अंत बड़ा सुखकारी होगा।” (अयो. 92-30)

राम स्वभाव से ही उदार और सहृदय थे। अतएव वनवासी होकर उन्होंने सबसे बड़ा कार्य यही किया कि वे आर्य-ऋषियों और अनार्य-हरिजनों के बीच सम्बन्ध स्थापित कराने में समर्थ हुए। नीचातिनीच स्त्री, पुरुषों ने भी उनकी आत्मीयता के वशी होकर उनको अपना हितैषी मान लिया। उन्होंने 13 वर्ष तक सुदूर दक्षिण में गोदावरी के तट पर निवास किया और अपनी उदारता, वीरता एवं संस्कृति से किरात, निषाद, वानर, भालू, गिद्ध आदि अनेकानेक अनार्य जातियों पर अपने सद्व्यवहार का अमिट प्रभाव डाला। परिणाम स्वरूप वे उनकी ओर इस प्रकार खिंच गये कि चौदह वर्ष के वनवास में सिर्फ उन्हीं अनार्य राजाओं और नेताओं की सहायता से उन्होंने महा पराक्रमी बालि और अनार्य-कुल सम्राट रावण को पराजित किया, और आर्य-सभ्यता की पताका सदा के लिए दक्षिण भारत में गाड़ दी ।

रावण की कूटनीति

अनार्य-शिरोमणि महाबाहु रावण के पराजय के बिना ऋषि, मुनियों और गुरुकुलों की रक्षा संभव नहीं थी। साथ ही आर्य-सभ्यता तथा आर्य-संस्कृति का कायम रखना भी असंभव था। अतएव अयोध्या के निकट चित्रकूट के रमणीक जंगल में निवास करने के बदले, राम ने सुदूर दक्षिण में गोदावरी के तट पर निवास किया। इस स्थान के निवास के कारण उनका संपर्क ऋषि अगस्त्य से हो गया। अगस्त्य जी दक्षिण प्रवासी आर्य लोगों के सबसे बड़े नेता और विज्ञान के जानकार थे। उन्होंने राम को रावण आदि अनार्य राजाओं के कुचक्रों से परिचित कराया और उनका सामना करने के लिए अनेक नये-नये अस्त्र-शस्त्र भी दिये। ताड़का, सुबाहु आदि के वध के कारण रावण भी राम की वीरता से परिचित था। राम के पंचवटी निवास और उनके प्रति अनार्यों की बढ़ती हुई श्रद्धा को वह अपने मार्ग में कंटक समझने लगा तथा भविष्य के लिए शंकित हो गया। उसने राम की गतिविधि का पता लगाने के लिए अपने जासूस भेजे। उनमें शूर्पणखा प्रमुख थी। वह रावण की बहिन लगती थी और प्रसिद्ध सुन्दरी थी। प्रथम योरोपीय महायुद्ध की जासूस महिला ‘माताहरी’ की तरह वह अपने सौंदर्य का अमोघ अस्त्र राम और लक्ष्मण पर चलाना चाहती थी किंतु सफल न हो सकी। पहले वो राम के पास गयी, पर वे उसके चक्कर में न आये। हताश होकर वह लक्ष्मण के पास गयी, पर वे भी उसके फन्दे में न फँसे। उसका उद्देश्य समझकर और उसे बहुत खतरनाक जानकर उन्होंने उसकी नाक काट ली।

रावण को जब अपनी बहिन की दुर्दशा का समाचार मिला, तो एक ओर अपनी मर्यादा और प्रतिष्ठ बनाये रखने के लिए तथा दूसरी ओर राम की शक्ति की जाँच करने के लिए उसने पराक्रमी खरदूषण से राम पर आक्रमण करने को कहा। खरदूषण ने अनार्यों का एक सुदृढ़ राज्य वर्तमान बम्बई इलाके में समुद्र के किनारे स्थापित कर रखा था। राम ने अपने सहकारियों की सहायता से उन सबको अनायास नष्ट कर डाला। तब रावण को बड़ी घबड़ाहट हुई । वह पंचवटी आकर उनसे युद्ध करना नहीं चाहता था, क्योंकि इसमें आवागमन की बड़ी कठिनाइयाँ थीं। वह चाहता था कि ये लंका में ही आकर उससे लड़ें। इसी उद्देश्य से वह राम, लक्ष्मण की अनुपस्थिति में आकर सीता को हर कर ले गया।

राम, सीता की खोज में लक्ष्मण के साथ निकल पड़े। वे सीता की करुण कहानी कहकर गिद्ध, बानर आदि जातियों को अपने प्रेम-बंधन में बाँधने में सफल हुए। राम का उद्देश्य साम्राज्य-विस्तार नहीं था, किन्तु दक्षिण भारत में आर्यों की स्थिति को निरापद बनाना तथा आर्य संस्कृति का फैलाना ही उनका लक्ष्य था। चतुर राजनीतिज्ञ होने के कारण ये बात उन्होंने तुरंत समझ ली कि अनार्यों का सामना करने के लिए सैकड़ों कोस दूर उत्तर भारत से सेनाएँ नहीं लायी जा सकतीं। वरन् अनार्यों की सहायता से ही यह कार्य सम्भव हो सकता है। अतएव जब उन्होंने सुग्रीव से मित्रता करके बालि का वध किया तो राज्य और धन से निर्लिप्त रहकर जहाँ एक ओर सुग्रीव को राज्य सौंपा, वहाँ बालितनय अंगद को युवराज बनाकर दोनों दलों को एक साथ प्रेम पाश में बाँधा। इसी का फल था कि अनेक अनार्य राजाओं ने अनार्यकुल भूषण रावण को युद्ध में पराजित करने में राम की सहायता की।

बालि रावण का परम मित्र था । बालि को मारकर राम केवल अपना मार्ग-कंटक ही दूर करने में समर्थ न हुये, किंतु वानर जाति की सम्मिलित शक्ति की सहायता पाने में भी सफल हुये। सुग्रीव की सहायता से राम ने अनेक दूतों को लंका का सुगम मार्ग और रावण की सैनिक स्थिति का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से लंका भेजा। इसी बीच में आस-पास की अनेक अनार्य जातियों से मेल-मिलाप कर उन्होंने बहुत बड़ी सेना का संगठन भी कर लिया।

लंका पहुँचने पर उन्होंने रावण की रण नीति का भेद जानने के लिए, उसके कुछ साथियों को फोड़ने का प्रयत्न किया। इसमें वे सफल हुये और रावण के भाई विभीषण को राज्याधिकार दिलाने का वचन देकर अपना सहायक बना लिया। अनेक विद्वानों का मत है कि रावण के बुरे व्यवहार से असंतुष्ट होकर विभीषण स्वयं राम की शरण में आया था। कुछ भी हो यदि राम को विभीषण द्वारा रावण के गुप्त अस्त्र-शस्त्रों का भेद मालूम न होता तो लंका को जीत सकना कदाचित् ही संभव होता।

राम की अनुपम महानता

रावण जैसे वैभवशाली सम्राट पर विजय पाकर भी राम ने अपना कोई स्वार्थ नहीं साधा। जो कुछ माल, खजाना, अमूल्य वस्त्र, आभूषण, रत्न आदि लंका से मिले वे सब अनार्य सिपाहियों को ही बाँट दिये गये। उनके इस निस्वार्थ भाव का यह परिणाम हुआ कि अनार्यों की श्रद्धा, भक्ति उनके प्रति दृढ़ और स्थाई हो गयी तथा उन पर आर्य-सभ्यता की अमिट छाप पड़ गयी। वे लंका का राज्य विभीषण को सौंप कर सीता और लक्ष्मण के साथ, अयोध्या वापस आये और अनार्यों के प्रतिनिधि के रूप में हनुमान को राजदूत की तरह अपनी सभा में ऐसे प्रेम और सम्मान से रखा कि वे उनके दासानुदास बन गये।

राम सर्व गुण सम्पन्न, श्रेष्ठ, धर्मशील और नीतिज्ञ थे। दक्षिण भारत की यह साँस्कृतिक विजय उनकी अक्षय कीर्ति थी। इसी कारण आगामी युग की जनता उनको अवतार मानकर पूजने लगी।

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