
ईश्वरार्पण अर्थात् श्रेष्ठता को अपनाना
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आप जो सफलता प्राप्त करते हैं उसे ईश्वर अर्पण करें। इसका अर्थ होता है, जो मिला है वह ईश्वर की कृपा से मिला है। इससे वह अहंकार न होगा जिससे व्यक्ति घमण्डी हो जाता है और किये हुए पर अभिमान करने लगता है। अभिमानी व्यक्ति अपनी आँखों में बड़ा बनने की तो कोशिश करता है, पर दूसरों की आँख में उतना ही छोटा हो जाता है।
जो काम ईश्वर अर्पण किये जाते हैं वे अच्छे ही हो सकते हैं। कोई अपने माननीय मेहमान को जो परोसेगा, उसके बारे में पहले से ही ध्यान रखेगा कि वे शुद्ध और बढ़िया हों। ईश्वर अर्पण का ध्यान आते ही व्यक्ति सबसे पहले यह सोचता है कि जो काम अर्पित किये गये हैं वे उच्चकोटि के हैं या नहीं। सत्कर्म और ईश्वरार्पण कर्म एक ही बात है। बुरे काम करें और उन्हें ईश्वर को अर्पण करें ऐसा तो हो ही नहीं सकता।
जिस प्रकार बैंक में जमा कर देने पर राशि ब्याज समेत बढ़ती है और कुछ ही समय में कई गुनी हो जाती है। उसी प्रकार ईश्वरार्पण किये कर्म जितने किये गये थे उतने ही नहीं रहते वरन् कई गुने हो जाते हैं।
ईश्वर सत्कर्म ही ग्रहण करता है और उसे सत्कर्म ही समर्पित किये जाते हैं। सत्कर्म अर्थात् जन कल्याण के लिए किये गये काम। सत्कर्म माने वे काम जो उच्चस्तरीय और आदर्शवादी हों।
ईश्वर ने हमें इतना दिया है कि हम अपने कृत्यों का एक अंश यदि उसे समर्पित करते हैं तो उसके अनन्त अहसानों में से एक अंश चुकाते और हल्के होते हैं। ईश्वर श्रेष्ठता के समुच्चय को कहते हैं। श्रेष्ठता की अपने में अभिवृद्धि- इस संसार में सत्प्रयोजनों की अभिवृद्धि- इन सबका परिणाम होता है- लोककल्याण। लोक कल्याण से दूसरों का जितना भला होता है उससे अनेक गुना अपना होता है। क्योंकि परमार्थ से अपने ही गुण कर्म और स्वभाव की मात्रा बढ़ती है। यह लाभ अपने लिये ही तो हुआ। ईश्वरार्पण शब्द कह देने मात्र से कुछ बनता नहीं। ऐसे तो कोई दुष्ट दुरात्मा अपने पाप कर्मों के दण्डों से बचने के लिए जीभ की नोंक से यह कह सकता है कि किये हुए कर्म ईश्वर को समर्पित कर दिये। अब हमारे किये दुष्कर्मों का दण्ड ईश्वर भोगे। यह धूर्तता की चरम सीमा है। ऐसा ईश्वर समर्पण तो उलटा पापों का बोझ बढ़ाता है। ईश्वर भक्ति इस प्रकार नहीं हो सकती। ईश्वर भक्ति के लिए निर्मल मन चाहिए। निर्मल मन उन्हीं का हो सकता है जो पुण्यात्मा और परमार्थ परायण हैं। ईश्वर भक्ति के- उसके प्रति समर्पण भावना उत्पन्न होने के चिन्ह यही हैं कि मन, बुद्धि और चित्त में पवित्रता का परमार्थ परायणता का- श्रेष्ठ कर्म करने का भाव हो।
पूजा उपासना के किये गये उपचार इसी हेतु हैं कि धूप, द्वीप, नैवेध अक्षत, चन्दन, पुष्प आदि उपादेय पवित्र वस्तुएं भगवान को समर्पित करने का प्राथमिक समर्पण करने का अभ्यास करके अपने सद्गुणों की माला ईश्वर के गले में पहनावें और सत्कर्म करते हुए सच्चे अर्थों में ईश्वर को प्रसन्न करने का प्रयत्न करें।
उनकी पूजा पाखण्ड मात्र है जो करने को तो दुष्कर्म करते हैं, मन में दुर्गुण भरे रहते हैं। जो सोचते हैं कि नाम जप या पूजा उपचार का कुछ क्रिया-कृत्य करके भगवान को बहका लेंगे और अपने दुष्कर्मों के पापों को ईश्वर से क्षमा करा लेंगे।
पूजा उपचार का सीधा सच्चा तरीका एक ही है कि हम अपने कर्मों को इस योग्य बनावें कि वे ईश्वर को समर्पित कर सकने योग्य बन सकें। ईश्वर अर्थात् श्रेष्ठता उसके प्रति स्वयं को, अपने कामों को समर्पित करना- प्रकारान्तर से श्रेष्ठता को अपनाना ही है।