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Magazine - Year 1984 - Version 2

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गायत्री और सावित्री का देवता सविता

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गायत्री को चारों वेदों की जननी के रूप में वेदमाता कहा गया है। वेदों में मन्त्र अनेकों हैं किन्तु सर्वोच्च स्थान गायत्री महामन्त्र को ही प्राप्त है। वेद के हर मन्त्र का एक छन्द, एक ऋषि, एक देवता होता है। उनका स्मरण विनियोग के समय किया जाता है। गायत्री मन्त्र का छन्द गायत्री, ऋषि विश्वामित्र और देवता सविता है। सविता को बोल चाल की भाषा में सूर्य कहते हैं। सविता देव की अधिष्ठात्री होने के कारण गायत्री का एक नाम सावित्री भी है। यों सविता परब्रह्म- परमात्मा को भी कहते हैं एवं प्रेरक, विधेयक चेतना शक्ति को गायत्री कहा जाता है। यह हुई ज्ञान दृष्टि। विज्ञान की दृष्टि से सविता को तेज पुँज- ‘ब्रह्म’ बताया गया है, जिसके प्रभाव और प्रकाश में यह सारा दृश्य जगत सक्रिय रहता है। उस सविता की समग्र क्षमता एवं प्राण प्रक्रिया को ही गायत्री नाम दिया गया है।

यों मोटे अर्थ में यह प्रातः उदय होने वाला, सायंकाल अस्त होने वाला, प्रकाश और गर्मी देने वाला, अग्नि पिण्ड भी सूर्य है- सविता है। उसकी भी अपनी शक्ति एवं क्षमता है। इस संसार का सारा क्रिया-कलाप उसी के प्रभाव से हो रहा है। इसलिये उसकी स्थूल जगत् में विभिन्न प्रकार की हलचलें उत्पन्न करने वाली क्षमता को लौकिक सावित्री कहा जा सकता है। वैज्ञानिक इसी अदृश्य और अविज्ञात महाशक्ति सावित्री के विभिन्न पक्षों का अनुसन्धान आविष्कारी करने में सृष्टि के आदि से लेकर अद्यावधि पर्यन्त प्रयत्नशील हैं। उन्होंने बहुत कुछ पाया भी है।

आज तो बिजली, भाप, ईथर, अणु आदि क्षेत्रों में काम करने वाली सहस्रों शक्तियों को जान लिया गया है और उनके आधार पर विज्ञान के चरण द्रुतगति से अग्रसर हो रहे हैं। अन्यान्य ग्रह, नक्षत्रों पर चढ़ाई करने की योजनायें बन रही हैं, इस धरती पर एक से एक अद्भुत आविष्कारों की तैयारी है, मनुष्य शरीर का काया-कल्प करके उसे चिरस्थायी बनाने की योजना है। यह सावित्री शक्ति के कतिपय पक्षों की जानकारी का परिणाम है। सावित्री- प्रकृति चेतना के बारे में जितना अब तक जाना जा सकता है उससे अभी असंख्य गुना जानना शेष है। सीमित बुद्धि वाला मानव प्राणी अनन्तकाल तक नई-नई उपलब्धियाँ प्राप्त करता रहे, तो भी प्रकृति की असीम शक्तियों की पूरी तरह जानकारी प्राप्त कर सकना सम्भव न हो सकेगा। सावित्री का भाण्डागार अपरिमित है। इतना अपरिमित-जिसका कल्पना भी हम पूरी तरह नहीं कर सकते।

सविता का एक अर्थ सूर्य भी है। इसका स्वरूप धर्म चक्षुओं से देखा और अन्य इन्द्रियों की सहायता से जाना जा सकता है। पंच भौतिक जगत में यह उदीयमान सूर्य ही सविता है और उसके प्रभाव से उत्पन्न होने वाली अगणित शक्तियों के पुँज को सावित्री कहा गया है। श्रुतियों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। उसी से वह प्राण प्रादुर्भूत होता है जिसके कारण प्राणियों के लिए शरीर धारण कर सकना, वनस्पतियों का उगना और पंचतत्वों का सक्रिय रह सकना सम्भव है। यदि सूर्य ठण्डा हो जाय तो देखते-देखते यह धरती हिमपिण्ड की तरह ठण्डी हो जाय और वहाँ सब कुछ निर्जीव हो जाय, जीवन का किंचित लक्षण भी यहाँ दिखाई न पड़े। इसलिए इस अग्नि पिंड सविता का भी हमारे भौतिक जीवन में असाधारण महत्व है।

गायत्री माता का ध्यान सदा सूर्य मण्डल के मध्य में विराजमान महाशक्ति के रूप में किया जाता है। “सूर्य मण्डल मध्यस्था” विशेषण के साथ ही उसे समझा और समझाया जाता है। साकार उपासना करने वाले पुस्तक, पुष्प, कमण्डल, मालाएं धारण किये हुए मातृशक्ति का सूर्य मण्डल के मध्य में विराजमान ध्यान करते हैं। निराकार उपासना करने वाले चिदाकाश एवं महदाकाश में प्रतिष्ठित तेज मण्डल के रूप में उस का ध्यान करते हैं। उपासना का क्रम निराकार हो अथवा साकार दोनों ही स्थितियों में सूर्यमण्डल की स्थापना अनिवार्य रूप से रहेगी। प्रकाश के तेजोवलय को समन्वित किये बिना ही गायत्री महाशक्ति का ध्यान हो ही नहीं सकता इसलिए शास्त्रों में कहा गया है।

गायत्री भावयेद्देवी सूर्यासारकृताश्रयाम। प्रातर्मध्याह्वे ध्यानं कृत्वां जपेत्सुधीः॥

बुद्धिमान मनुष्य को सूर्य के रूप में स्थिति गायत्री देवी का प्रातः मध्याह्न और सायं त्रिकाल ध्यान करके जप करना चाहिए। (शाकानन्दतरंगिणी 3।4।1)

सविता सर्वभूतानां सर्वभावाश्च सूर्यते। सवनात्प्रेरणाच्चैव सविता तेन चोच्यते॥

सब प्राणियों में सब प्रकार के भावों को सविता ही उत्पन्न करता है। उत्पन्न और प्रेरणा करने से ही यह सविता कहा जाता है।

वरेण्य वरणीयंच संसार भय भीरुभिः। आदित्यान्तर्गतं यच्च भर्गाख्यं वा मुमुक्षु भि॥

संसार के भय से भीत और मोक्ष की कामना वालों के लिये सूर्य मण्डल के अंतर्गत जो श्रेष्ठ तेज है वह वन्दनीय है।

देवस्य सवितुर्यच्च भर्गमन्तर्गत विभुम्। ब्रह्मवादिन एवाहुर्वरेण्यम् तच्च धीमहि॥

सविता देव के अंतर्गत तेज को ब्रह्मज्ञानी वरेण्य अर्थात् श्रेष्ठ कहते हैं; उसी का हम ध्यान करते हैं।

सन्ध्यायोग में इसका और भी अधिक स्पष्टीकरण किया गया है और बताया गया है कि जिस भावना का हम ध्यान करते हैं वह मन को एकाग्र करने के लिये कोई प्रकाश गोलक मात्र नहीं वरन् वह परम तेजस्वी परमात्मा है जो हमारी बुद्धि, अन्तःचेतना, भावना एवं आस्था को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है।

चिन्तायामो वयं भर्गो धियो योनः प्रचोदयात्। धर्मार्थ काम मोक्षेषु बुद्धि वृत्ती पुनः पुनः॥

हम उस तेज का ध्यान करते हैं जो हमारी बुद्धि में कर्म,अथ,काम, मोक्ष की बार-बार प्रेरणा करता है।

बुद्ध र्बोधयिता यस्तु चिदात्मा पुरुषे विराट्। सवितुस्तद्वरेण्यन्तु सत्यधर्माणीमीश्वरम्॥

बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाने वाला जो विराट् चिदात्मा पुरुष है, वही सत्य धर्म वाला ईश्वर रूप वंदनीय सविता है।

उस सूर्य को जिसका हम ध्यान करते हैं, वह उदीयमान सूर्य से कहीं ऊँचा, असंख्यों सूर्यों के समकक्ष, परमशक्ति का स्रात, इस सृष्टि का विधाता, नियामक और परिपुष्ट कर्ता विधाता प्रजापति है। उसके साथ सम्बन्ध संपर्क बनाकर यदि सान्निध्य लाभ किया जा सके तो दृश्य सूर्य की अपेक्षा वह आध्यात्मिक सविता हमारे लिए असंख्य गुने सुख साधन प्रस्तुत कर सकता है। परमात्मा की परम शक्ति गायत्री उपासना कर के कोई भी व्यक्ति वह लाभ ले सकता है, जिसके लिए यह मानव शरीर उपलब्ध हुआ है।

गायत्री में जिस वरेण्य, भर्ग, देव, सविता का स्मरण चिंतन किया जाता है वह परम तेजस्वी, सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर सविता प्रसविता परमात्मा ही है और उस परमात्मा की सर्वतोमुखी सर्वोपरि शक्ति को ही गायत्री या सावित्री कहा गया है। गायत्री या सावित्री कोई दो अलग शक्तियाँ नहीं हैं। वस्तुतः अग्नि एक ही है पर मृत शरीर को जलाते समय उसे लोहिता कहा जाता है तो भोजन बनाते समय प्रयुक्त की जाने वाली अग्नि को रोहिता कहते हैं। यह दो नाम प्रयोग में आने वाले विभाजन के अनुरूप हैं। वस्तुतः अग्नि एक ही है। इसी प्रकार गायत्री और सावित्री शक्ति भी अभिन्न हैं। जब वह शक्ति भौतिक प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त की जाती है तो उसे सावित्री कहते हैं। और जब वह आध्यात्मिक प्रयोजनों के लिए काम आती है तब उसी को गायत्री कहने लगते हैं। शास्त्रों में सावित्री और गायत्री की एकता का अनेक स्थानों पर उल्लेख किया गया है। कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं-

यश्चैवं विद्वानेव वेदानां मातो सावित्री संपदभुषनिषद् मुपास्ते इति। (गोपथ ब्राह्मण)

इस प्रकार विद्वान वेदमाता को सावित्री के नाम से कहते हैं।

ओंकार पूविका स्तिस्रो महाव्याहृतयोऽव्यया। त्रिपदा चैव सावित्री विजेय ब्राह्मणोमुखम्॥

ओंकार पूर्वक तीनों महाव्याहृतियों तथा त्रिपदा सावित्री मन्त्र वेद का मुख कहा जाता है।

नमो नमस्ते गायत्रि सावित्रि त्वां नमाम्यहम्। सरस्वति नमस्तुभ्यं तुरीये ब्रह्मरूपिणी॥

“हे गायत्री! हे सावित्री! मैं आपको प्रणाम करता हूँ और मेरा आपके चरणों में बार-बार अभिवादन समर्पित है। हे सरस्वती! आपके लिये मेरा नमस्कार अर्पित है। हे तुरीये! आप ब्रह्म के स्वरूप वाली हैं।”

नमस्ते देवि गायत्री सावित्रि त्रिपदेक्षरे। अजरे अमरे मातस् त्राहि मां भगसागरात्॥

“हे तीन पदों वाली गायत्री, सावित्री देवी! हम तुझे नमस्कार करते हैं। हे अजर-अमर माता! मेरी भवसागर से रक्षा करो।”

सच्चिन्मपि परे देवि गायत्रि ब्रह्मरूपिणि।

आज्ञामय तवं सावित्रि परिवारार्चनाय मे॥

“है सच्चित्मयि! हे परे! हे देवि! हे ब्रह्म के स्वरूप वाली गायत्री देवि! हे सावित्री! अब आप मुझ सेवक को परिवारार्चन करने के लिए आज्ञा प्रदान करें।”

समस्त देवताचक्र मुनि पितृ गणावृते। आरात्रिकं गृहाणेदं सावित्रि मम सिद्धये।।

“हे समस्त देवों के समूह- मुनिगण और पितृगण आवृते! हे सावित्री! अब मेरी सिद्धि के लिये इस आरात्रिक (आरती) को ग्रहण कीजिये।”

उपरोक्त प्रमाणों में गायत्री-सावित्री को एक ही माना गया है। यदि इनमें थोड़ा अन्तर किया भी जाय तो वह इतना ही हो सकता है कि भौतिक प्रयोजनों में प्रयुक्त इस ब्रह्म शक्ति को सावित्री और अध्यात्म प्रयोजन में होने पर उसे गायत्री कहा जाय। सावित्री जप का लाभ ‘स्वर्ग’ अर्थात् सुख-सुविधाओं का अभिवर्धन बताया गया है और गायत्री उपासना से मोक्ष लाभ अर्थात् वासना एवं तृष्णा के बन्धनों से छुटकारा मिलना प्रसिद्ध है।

कहा गया है कि-

सावित्री जप्यनिरतः स्वर्गमाप्नोति मानवः॥ गायत्री जप्यानिरतो मोक्षोपायं च विन्दति॥

सावित्री के जप करने वाले को स्वर्ग और गायत्री के जप करने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है।

सर्दी के दिनों में अंगीठी सुलगाने के प्रयास में दो छोटे बच्चों ने मिट्टी के तेल के स्थान पर पैट्रोल डाल दिया, आग भड़की। एक तो तत्काल मर गया। दूसरा महीनों अस्पताल में रहने के बाद कुरूप और अपंग हो गया। दोनों पैर लकड़ी की तरह सूख गये। पहियेदार कुर्सी के सहारे घर लौटा तो किसी को आशा न थी कि वह कभी चल सकेगा।

पर लड़के ने हिम्मत नहीं छोड़ी। आज की तुलना में अधिक जल्दी स्थिति प्राप्त करने के लिए वह निरन्तर प्रयत्न करता रहा। निराश या खिन्न होने के स्थान पर उसने प्रतिकूलता को चुनौती के रूप में लिया और उसे अनुकूलता में बदलने के लिए अपने कौशल और पौरुष को दाँव पर लगाता रहा। उसने बैसाखी के सहारे न केवल चलने में वरन् दौड़ने में भी सफलता पाई और पुरस्कार जीते।

इस विपन्नता के बीच भी उसने पढ़ाई जारी रखी। एम.ए.- पी.एच.डी. उत्तीर्ण की, और विश्वविद्यालय में निर्देशक के पद पर आसीन हुआ।

द्वितीय विश्व युद्ध में वह मोर्चे पर भी गया और जहाँ अड़ा, वहीं सफल भी रहा। रिटायर होने पर उसने अपनी जमा पूँजी से अपंगों को स्वावलम्बन देने वाला एक आश्रम खोला, जिसमें इन दिनों आठ हजार अपंगों को पढ़ने, रहने और कमाने का प्रबन्ध है।

अमेरिका का संकल्पवान साहसी ग्लेन कनिंघम का नाम बड़ी श्रद्धापूर्वक लिया जाता है। कठिनाइयों से जूझने के लिए उसका जीवन वृत्तांत पढ़ने सुनने का परामर्श दिया जाता है।

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