
पशु-पक्षियों पर मुकदमे
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योरोप में एक जमाना ऐसा भी रहा है जब पशु-पक्षियों पर भी अदालत में मुकदमे चलते थे। उनके लिए वकील नियुक्त होते थे। आदमियों की तरह अभियुक्त पशु-पक्षियों को भी दण्ड दिये जाते थे। उनके बयान उनका चेहरा देखकर कल्पित कर लिए जाते थे। ऐसे कुछ विचित्र मुकदमें नीचे प्रस्तुत हैं-
(1) सन 1559 ई. में इटली की अदालत में अनाज खाने वाले कीड़ों के नाम सम्मन जारी किए गए कि उन्होंने जान-बूझकर दूसरों की सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाया। सम्मन कीड़ों ने नहीं लिए तब वे पेड़ों पर चिपका दिए गए। अदालत में एक भी कीड़ा उपस्थित नहीं हुआ तो भी उन्हें हुक्म दिया गया कि इस इलाके से चले जायें और किसी दूसरे इलाके में अपने पेट भरने का इन्तजाम करें।
(2) सन् 1642 ई. में म्यूनिख की अदालत में एक भेड़िये के विरुद्ध मुकदमा चला कि उसने दो लड़कियों को घायल कर दिया था। चूँकि भेड़िया पकड़ा न जा सकता इसलिए उसका चित्र अदालत में लाया गया और उसे मौत की सजा दी गई। असली के बदली उसी चित्र वाले नकली भेड़िये को मौत का दण्ड मिला।
(3) इसी प्रकार सन् 1477 ई. में एक सुअर को छोटी बच्ची को काट लेने के अपराध में मौत की सजा मिली। चूँकि वह पकड़ लिया गया था इसलिए उसे विधिवत फाँसी दी गई।
(4) सन् 1540 ई. में ऐसे 62 मामले योरोप की विभिन्न अदालतों में पेश हुए जिनमें जानवरों ने मनुष्यों को नुकसान पहुँचाया था सभी के वकील अदालत में आते रहे और मुकदमे के फैसला होने में कई वर्ष लगे। इन अभियुक्तों में से अधिकाँश को मृत्युदण्ड मिला।
(5) 1561 ई. में एक इलाके के चूहों के खिलाफ मुकदमा चला कि उनने जान-बूझकर मनुष्यों की सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाया है। वकीलों ने चूहों को निर्दोष सिद्ध किया क्योंकि उनका गुजारा सदा से इसी आधार पर होता रहा है। अदालत ने चूहों की गैर हाजिरी में भी यह हुक्म सुनाया कि वे इस इलाके को छोड़ दें और कहीं अन्यत्र मुकाम करें।
(6) एक बन्दर के मुकदमें में गवाह की जरूरत पड़ी। उसी पेड़ पर रहने वाले एक तोते को पकड़ा गया ओर उसकी मुखाकृति को देखकर सहमति-असहमति का अनुमान लगाया गया और बन्दर को दण्ड दिया गया।
उपरोक्त मुकदमों की सुनवायी में तीन से पाँच वर्ष तक का समय लगा। सबसे बड़ी कमी यह थी कि मुजरिम अदालत में हाजिर नहीं होते थे। मात्र वकील ही उनकी ओर से सफाई देने आते थे। इन वकीलों को सरकारी खजाने से फीस दी जाती थी इसलिए वे मुकदमें को लम्बा खींचने की कोशिश करते थे। यह प्रथा सन् 1600 में बन्द हुई। सन् 1400 से 1600 तक ढेरों मुकदमें इस प्रकार के चलते रहे, ढेरों धन इन सनक में खर्च हुआ।
पिछले दिनों न्याय या अन्याय की ठीक परिभाषा नहीं हो सकी थी। राजा का हुक्म ही न्याय था। वे जिस पर चाहें थोड़े से कारण पर अपनी मनमर्जी का बड़े से बड़ा दण्ड दे दिया करते थे। किसी पर खुश हों तो किसी को भी क्षमा कर देते थे। न्याय उनकी मुट्ठी में रहता था। कोई दण्ड विधान या आचार संहिता नहीं थी। यदि थी तो नाम मात्र को और फिर उनका कोई पालन भी नहीं करता था।
जब न्यायालय बने और दण्ड विधान बने तो ऐसे अधूरे थे जिनमें मनुष्य और पशु का अन्तर तक भुला दिया गया था। मुकदमे की खाना पूरी करने के लिए वकीलों की चढ़ बनी थी। पशु पक्षियों के नाम भी सम्मन भेजे जाते और उन्हें अदालत में जवाब देने के लिए कहा जाता। जबकि ये बोल तक नहीं सकते थे। उसी जमाने के कुछ मुकदमे मनोरंजनार्थ ऊपर दिए गए, जो मानव की एक ओर मूर्खता के परिचायक हैं।