
शाप और वरदान का दैवी उपक्रम
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वाणी में अमोघ शक्ति है। उच्चारण करने वाले के व्यक्तित्व के स्तर के अनुसार उसका प्रयोग होने पर वह अपना प्रभाव भी दिखाती है। वाक् शक्ति की प्रखरता प्रचण्ड प्रभावी सामर्थ्य का हवाला शास्त्रों में शाप-वरदान सम्बन्धी अनेकों प्रसंगों में मिलता है। परा, पश्यन्ति, मध्यमा, बैखरी के रूप में इसके चार रूपों की चर्चा समय-समय पर की जाती रही है। जब तपःपूत व्यक्तित्व सम्पन्न वक्ता उच्चारित शब्दों का नियोजन करते हैं तो उसके सुनिश्चित परिणाम देखने को मिलते हैं।
शाप-वरदान के प्रसंग आर्ष साहित्य में ही नहीं, अन्यान्य सभ्यताओं प्रजातियों में भी देखने को मिलते हैं। अफ्रीका का काला जादू और कुछ नहीं मन्त्र शक्ति का विनियोग ही है। जब वाक् ऊर्जा का पुट ओझा द्वारा उसमें लगा दिया जाता है तो भोक्ता को दुःखदायी परिणामों का सामना करना पड़ता है। मुस्लिम फकीरों के सम्बन्ध में भी ऐसे ही शाप प्रयोगों का विवरण मिलता है। हजरत निजामुद्दीन जिनकी समाधि दिल्ली में बनी है, एक सूफी फकीर थे जिनके काम में विघ्न डाले जाने पर तात्कालिक राजा गयासुद्दीन खिलजी को मृत्यु का शाप मिला था। वह अपने ही दरबारियों की दुरभि सन्धियों के कारण दिल्ली पहुँचने के पूर्व ही मंच ढह जाने के कारण मारा गया। कराँची में एक शापग्रस्त स्थान पर अमेरिकन एम्बेसी की इमारत बनी है जो खाली पड़ी है। वहाँ कभी किसी फकीर का निवास था। बेदखल किए जाने पर उसने शाप दे दिया एवं तत्पश्चात उस भवन में कोई रह नहीं पाया। अपना कौनसुलेट दफ्तर अन्धविश्वास के कट्टर विरोधी अमेरिकनों को कहीं और बनाना पड़ा।
इंग्लैण्ड की एक काउण्टी काउण्ड्रे के राजा सर एन्थोनी ने अपने अधीनस्थ इलाके के धर्माचार्यों से अप्रसन्न होकर उन सभी को देश निकाल दे दिया। निकलने वाले साधुओं में से एक ने विवाद किया तो उसे विशेष रूप से प्रताड़ित किया गया।
उसने राजा को शाप दे दिया कि उसके परिवार के सदस्यों-सम्बन्धियों की व उसकी स्वयं की मौत आग लगने या पानी में डूबने से हुआ करेगी। देखा गया कि इसके कुछ ही दिनों बाद श्रमिकों की लापरवाही से महल में आग लग गयी। राजा निकल भी नहीं पाया और अपने बच्चों-पत्नि सहित झुलसकर मर गया। राजा के छोटे भाई को शासनारूढ किया गया पर वह भी अधिक दिन न टिका। उसका नाम था काउण्ट मान्टेग्यू ह्वाइट। वह एक नदी पार करते समय नाव उलट जाने से डूबकर मर गया। ये दोनों ही घटनाएं एक वर्ष के भीतर हुईं। सभी ने उन्हें साधु का शाप माना। कहते हैं कि उस परिवार में और भी कितनी ही ऐसी दुर्घटनाएं आगे घटित होती रहीं।
शाप की तरह वरदान की भी ऐसी ही विलक्षण शक्ति मानी गयी है। पुराने राजाओं की प्रथा थी कि वे सिंहासनारूढ़ होते थे तो विद्वानों को आशीर्वाद हेतु समारोह में सम्मान आमंत्रित करते थे।
सिकन्दर को भारत पर आक्रमण करना था। रास्ता दुर्गम था, अजेय होने की महत्वाकांक्षा मन में थी। विजय की सम्भावना सैनिकों के मनोबल को देखते हुए कम ही नजर आती थी। वह लम्बी यात्रा कर अपने गुरु सुकरात के पास गया और जाने की तैयारी तब आरम्भ की जब गुरु का आशीर्वाद भारत की सीमा क्षेत्र तक मात्र पहुँचने का मिल गया। इतिहास साक्षी है कि सिकन्दर ने कितनी ही प्रतिकूलताओं का सामना करते हुए हिमालय के दुर्गम दर्रों को पार कर यहाँ तक विजय अभियान चलाया। इसके आगे वह सफल न हो सका क्योंकि वरदान सशर्त था।
पुरातन काल में गुरुकुलों में रहकर जब शिक्षार्थी घर आते थे तब गुरु का शुभाशीष लेकर आते थे। वह न मिले तो छात्र को तब तक वहाँ ठहरना पड़ता था जब तक कि गुरु सच्चे मन से आशीर्वाद न दे दें। विद्या की सफलता तब तक मानी नहीं जाती थी। शिष्य के चरित्र, मनोबल एवं व्यक्तित्व की कड़ी परीक्षा लेकर गुरुजन शिष्य को कई बार ऐसे आशीर्वाद देते थे जिससे वे धन्य हो जाते थे। आरुणी को 100 गौएं देकर अकेले जंगल में भेज दिया गया और जब तक हजार गौएं न हो जायें, तब तक वापस न लौटने के निर्देश दे दिये गये। विद्याध्ययन के मध्य यह कठिन पुरुषार्थ भरा व्यवधान उसने सहर्ष स्वीकार किया। पढ़ाई में हर्ज होने की शिकायत किए बिना वन की सारी कठिनाइयों को समझते हुए भी वह चल दिया। सौंपा हुआ काम मनोयोग पूर्वक अल्पावधि में ही पूरा कर वह वापस लौटा। गुरु का आशीर्वाद उसे मिला। इस बल से उसकी विद्या इतनी उच्च श्रेणी की हुई जितनी कि और किसी की भी नहीं थी। उसने ऋषि पद पाया और इतिहास में अमर हो गया।
मानवों को स्वर्गलोक का अधिकारी बनाने- श्रेष्ठता के पराकाष्ठा पर पहुँचाने में देवताओं के वरदान ही बराबर कारगर होते रहे हैं। असुरों ने तप के आधार पर असाधारण वरदान प्राप्त किए एवं वे इसी आधार पर देव शक्तियों पर विजय पा सके। अपनी मनोवृत्ति के कारण ही वे वरदान उनके लिए अन्ततः शाप सिद्ध हुए।
प्राचीन काल की मान्यता थी कि अपने पुरुषार्थ के समान ही सशक्त गुरुजनों का आशीर्वाद भी सहायक होता है। इसलिए तत्कालीन विज्ञजन पुरुषार्थरत होते हुए भी इस बात का प्रयास जारी रखते थे कि किन्हीं महापुरुषों का आशीर्वाद उन्हें प्राप्त हो सके। कालिदास जन्मजात मूर्ख थे किन्तु सरस्वती की आराधना ने उन्हें उच्चस्तरीय विद्वान बना दिया।
मध्यकाल के अन्धकार युग में जब नकली गुरुओं की भरमार हुई तब नकली शिष्यों ने स्वार्थ भरे प्रयोजन के लिए गुरुजनों को लोभ-लालच दिखाकर नकली वरदान प्राप्त करना आरम्भ कर दिया। यह प्रथा सर्वप्रथम ईसाई धर्म में शुरू हुई। इस धर्म में पापों को क्षमा कराने व स्वर्ग में टिकट रिजर्व कराने हेतु भारी दक्षिणा लेकर आशीर्वादों का क्रम आरम्भ हो गया। पादरी इसके बदले में लिखित रसीद देते थे और मूर्ख शिष्य अपने परलोक में रिजर्वेशन के प्रति आश्वस्त हो जाते थे। ईसाई धर्म की देखा-देखी अन्य धर्मों में भी यही प्रथा चल पड़ी। हिन्दू धर्म में भी बल्लभकुल गुसाईंयों की ऐसी प्रथा चली कि जो कुछ गुरु को दिया जाएगा, वह परलोक में जाकर कई हजार गुना मिला जाएगा। आगाखान गुरु के अनुयायियों में यही मान्यता है कि गुरु को दिया धन परलोक में कई गुना होकर मिलेगा।
गुरुओं के आदेश से किसी महत्वपूर्ण लोकहित के कार्य के लिए कोई बड़े अनुदान प्रस्तुत करने की बात समझ में तो आती है पर गुरु के व्यक्तिगत लाभ के लिये धन देना और उन्हें देव शक्तियों का एजेण्ट या परलोक का ठेकेदार मान बैठना आदि से अन्त तक गलत है।
आडम्बर का समावेश होते हुए भी इतना सत्य है कि पात्रता के अनुरूप उच्चस्तरीय आत्माएं किसी सत्प्रयोजन के लिए सत्पात्रों को सच्चे मन से आशीर्वाद देती हैं तो वह फलित होता है। इसी प्रकार यह भी सही है कि कुकर्मों के प्रतिरोध में दिया गया शाप भी ऐसा ही शक्तिशाली होता है, जिससे भयंकर हानि हुए बिना नहीं रहती।