
मुक्तिदायिनी गुफा में स्थिर प्रवेश
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
साधु टी.एल. वास्वानी ने एक स्थान पर लिखा है- मैं स्वर्ग का राज्य पाना चाहता हूँ। पर इस दुनिया का निवास छोड़ना नहीं चाहता। क्या मुक्ति प्राप्ति में गुफा का निवास कुछ सहायक होगा? ऐसी मुझे कुछ आशा नहीं है। क्योंकि सारा खेल मन का है। वह गुफा में बैठे-बैठे महल बना सकता है और यह भी हो सकता है कि महलों में रहते हुए राजा जनक की तरह उसी में अपने लिए गुफा की संरचना कर ली जाय।
मैंने अपनी गुफा बना ली है और जहाँ चाहूँ वहाँ अपने साथ लिये-लिये फिरता हूँ। इसे मन के अतिरिक्त और कोई मुझसे कभी छीन नहीं सकता। अपने मन के अन्तराल की गहराई में बैठकर मैं जिस मुक्ति का सपना देखता हूँ वह जन सेवा पर आधारित है। वह जन सेवा आन्तरिक पवित्रता का वातावरण बन जाने के उपरान्त ही बन पड़ती है।
मन की गुफा में लालसाएं भरी पड़ी हैं, तो उस गन्दगी के रहते जो कुछ भी सोचा जायेगा, मात्र कल्पना लोक होगा। ऐसा कल्पना लोक जिसका यथार्थता से कोई सीधा सम्बन्ध न होगा। यह ठीक है कि आरम्भ कल्पना में होता है पर उसके साथ-साथ वे होनी ऊँची स्तर की चाहिए। ऊँचे स्तर से तात्पर्य है- मनुष्य मात्र की सच्ची सेवा, और उस सेवा की सम्भावना को सार्थक करने के लिए लक्ष्य और चरित्र की पवित्रता अभीष्ट है।
साध्य ऊँचा हो तो भी साधनों के भ्रष्ट होने पर वह बन नहीं पड़ता। मकड़ी का जाला भर बनकर रह जाता है। जिन सपनों में सच्चाई और संभावना है उन्हीं का कोई मूल्य है। जहाँ इन दोनों का अस्तित्व न हो वहाँ जो कुछ रचा जा रहा होगा, वह कल्पना का महल मात्र होगा। ऐसी मुक्ति के प्रति भी मुझे अरुचि है जो रंगीन सपने लेकर सामने खड़ी हो किन्तु यथार्थता के साथ उसका सीधा सम्बन्ध न हो तो समझना चाहिए कि एक काल्पनिक मुक्ति अपनी टोकरी में जमा कर ली है।
लोक सेवा की कार्य पद्धति अपनाते ही मुझे अपने लक्ष्य की समीपता और यथार्थता दिखती है। अन्तरात्मा में तत्क्षण सन्तोष होता है कि अपने से कुछ भलाई बन पड़ी। वह भलाई काल्पनिक तो नहीं थी, इसकी यह कसौटी रखी है कि चिन्तन और चरित्र में पवित्रता का संचार करती है या नहीं।
बड़ों ने कहा है कि मुक्ति के लिए गुफा का निवास आवश्यक है। उनके कथन को मैंने झुठलाया नहीं है। गुफा का शब्द और स्वरूप दोनों ही मुझे भले लगे हैं। किन्तु उस भलाई को सेवा धर्म को अपनाने पर ही कसौटी पर खरा पाया है। जब तक मुक्ति की बात सोचता रहा और उसके लिए कल्पना की गुफा बनाता रहा तब तक समाधान हुआ नहीं और प्रतीत होता रहा कि कोई कल्पना लोक गढ़ लिया है और उसमें विचरण करते हुए मन के मोदक खाये जा रहे हैं।
अब मुझे विश्वास हो गया है कि सचाई के साथ अपनाई गई सेवा की रीति-नीति मुक्ति के लक्ष्य तक पहुँचाने में समर्थ है। इसलिए भटकाने की अपेक्षा इसी गुफा में प्रवेश करना और सदा सर्वदा के लिए उसी में रहना मुझे भला लगा है।