
युग-ऋषि “आइन्स्टाइन”
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अपने युग के ऋषियों में एक हैं- ‘आइन्स्टीन’। उनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी रही है। अणु विज्ञान का उन्हें पितामह कहा जाएगा। इसकी खोज के सूत्र उन्होंने ही ढूंढ़ निकाले। आज अणु विज्ञान का जो वैभवशाली भवन दृष्टिगोचर होता है, उसकी नींव इस ऋषि प्रवर ने ही डाली थी। जितनी भी उपलब्धियाँ आणविक शक्ति एवं बलों के एकीकरण सम्बन्धी कण भौतिकी के सिद्धान्त की है उनका सूत्रपात उन्होंने ही किया। जो लौ भौतिकी के क्षेत्र में उन्होंने आज से पचास वर्ष पूर्व प्रज्वलित की, उसी का दृश्यमान विराट रूप आज वैज्ञानिकों के समक्ष है।
आइन्स्टीन उच्चस्तरीय दार्शनिक भी थे। उनने गणित की चरम सीमा तक पहुँचकर उस सापेक्षवाद के सिद्धांतों को प्रकट किया, जिन्हें आज के मूर्धन्य गणितज्ञ भी ठीक तरह से समझ नहीं पा रहे हैं। प्रकृति और ब्रह्म के संयुक्तिकरण में उनने जो खोजपूर्ण विचार व्यक्त किए, उन्हें पढ़ने पर उन्हें आस्तिक-नास्तिक अथवा नास्तिक आस्तिक भी कहा जा सकता है। वे कहते थे प्रकृति जैसी भी है, उनके निर्माण में जिस सत्ता को काम करना पड़ा है उसे ब्रह्म से कम नहीं कहा जा सकता। वे पूजा-पाठ नहीं करते थे तो भी उनकी आस्था ब्रह्म पारायण ऋषियों से कम नहीं थी।
योग दर्शन का प्रथम सूत्र है- चित्त वृत्तियों का निरोध। वे सतत् अपने लक्ष्य में इतने तादात्म्य रहे कि लोक व्यवहार में उनसे भूल पर भूल होती थी। साज-सज्जा से लेकर बाहर आने जाने तक के क्रम में कहीं कृत्रिमता नहीं थी। एक बार वे एक स्वागत समारोह में पहुँचे। उनने स्थान ग्रहण ही किया था कि उनका नाम पुकारते ही श्रोताओं ने खड़े होकर प्रसन्नता से ताली बजाना आरम्भ कर दिया। इन उठ खड़े होने वालों और ताली बजाने वालों में आइन्स्टीन भी थे। लोकाचार के सर्वथा विरुद्ध वे कर रहे हैं और उपहासास्पद वे बन रहे हैं, इसका उन्हें कोई ध्यान कभी नहीं रहा। ऐसी एक नहीं बीसियों घटनाएं हैं जिनकी चर्चा उनकी व्यवहार कुशलता पर व्यंग्य करते हुए व्यक्त की जाती थी। पर वे वस्तुतः ऐसे थे नहीं। उनकी मेधा चरम मूर्धन्य थी। जिस विषय पर भी उनने प्रकाश डाला, जो भी खोजा, वह अद्भुत अनुपम है। उनके प्रतिपादित सिद्धान्तों की ठीक तरह व्याख्या कर सकने वाले संसार भर में मुट्ठी भर ही आदमी हुए हैं।
उनके ऋषि कल्प जीवन के ढेरों उदाहरण हैं। जिस विद्यालय में उन्हें प्रधानाध्यापक का स्थान दिया गया, वहाँ पूछा गया कि आपको कितना वेतन दिया जाय? खर्च का अनुमान जो उन्होंने बताया उस पर हंसते हुए पाँच गुने वेतन पर उनकी नियुक्ति की गयी। घरेलू खर्च व मेहमानों के आतिथ्य आदि का कार्य उनकी पत्नी ही सम्भालती थीं। उन्हें तो इसकी जानकारी तक न थी।
आइन्स्टीन को नोबुल पुरस्कार मिला। इसकी न उन्होंने खुशी मनाई, न दावत दी। न डायरी में उसका कोई हिसाब-किताब रखा। वह राशि सीधे पत्नी के हवाले कर दी व कहा- जिनका उधार है, उन्हें चुका दें। जब वे बीमार हुए, मरणासन्न स्थिति आ पहुँची तो डॉक्टरों ने ऑपरेशन की अनिवार्यता बतलाई। उन्होंने यह कहकर इन्कार कर दिया कि जब तक प्रकृति को मेरी जरूरत है, तब तक उसके साथ जबर्दस्ती करने की जरूरत नहीं है। आखिर आपरेशन नहीं हुआ।
निस्पृह, सन्त, योगी, अनासक्त, अपने विषय में तन्मय, लोकान्तर से हजारों मीलों दूर रहते हुए भी आइन्स्टीन ने जितने विषयों पर जितनी शोध की है, जितना प्रकाश डाला है, उसकी विवेचना करने में नई पीढ़ियों को लम्बी अवधि लगेगी।
ईश्वर और प्रगति की संगति बिठाने वाले ऋषि श्रेष्ठ आइन्स्टीन की यह उक्ति प्रसिद्ध है कि “ईश्वर मजबूर था, ऐसी दुनिया बनाने के लिए और प्रकृति को इससे अच्छा निर्माता मिल नहीं सकता था। दोनों की अपनी-अपनी मजबूरी से ही सृष्टि का यह रूप बना है।”