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Magazine - Year 1984 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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मूक, किन्तु विलक्षणता सम्पन्न ये पशु-पक्षी

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जन्म के समय मनुष्य पशु से अधिक बेहतर स्थिति में नहीं होता। पोषण एवं संरक्षण की तुरन्त व्यवस्था न बने तो अधिक समय तक जीवित रहना मानव शिशु के लिए कठिन हो जायेगा। नौ माह के पूर्व तो वह अपने पैरों न तो चल सकता और न ही अपने हाथों आहार ग्रहण कर पाता है। पूर्णतः वह माता-पिता पर आश्रित होता तथा उनकी ही कृपा पर जीवित रहता है। शरीर की दृष्टि से पशु अधिक समर्थ होते हैं। जन्मने के कुछ ही घण्टे बाद अपने पैरों चलने लगते तथा अपने आप आहार ढूंढ़ने लगते हैं। समर्थ, बुद्धिमान, विचारवान तो मनुष्य प्रशिक्षण-शिक्षण के आधार पर बनता है। उसका अवसर न मिले- ज्ञानार्जन के लिए समाज का संपर्क न प्राप्त हो तो मनुष्य की स्थिति पशुओं से अधिक अच्छी न होगी।

कार्य कुशलता तथा अद्भुत मेधा शक्ति का आधार वह शिक्षा है जो उसे विभिन्न रूपों में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष माध्यमों से मिलती रहती है। मनुष्येत्तर विकसित जीवों को भी प्रशिक्षित किया जा सके तो वे अनेकों काम ऐसे कर सकते हैं। जिनके लिए आधुनिक टेक्नालाजी का प्रयोग अथवा मनुष्यों का उपयोग किया जाता है। प्रकृति ने मनुष्य जितनी तो नहीं पर उन्हें भी काम चलाऊ बुद्धि दी है जिसका प्रयोग वे अपने दैनन्दिन कार्यों के लिए करते हैं। पर उनके सामान्य ढर्रे से अलग हटकर ऊंचे स्तर का काम भी लिया जा सकता है। श्रम के लिए परम्परागत रूप में कुछ पशुओं का उपयोग सदियों पूर्व से होता भी रहा है। उसमें कुछ नयी कड़ियाँ दूसरे जीवों की भी जोड़ी जा सकती हैं। आवश्यकता इतनी भर है कि जीव जन्तुओं की सामर्थ्य को परखा तथा उनकी साँकेतिक भाषा को समझा जा सके तथा उसके आधार पर उनके शिक्षण की व्यवस्था बनायी जा सके।

बातचीत की कला में मनुष्य विशेष रूप से दक्ष है। यह उस भाषा का चमत्कार है जो मनुष्य को विरासत के रूप में अपने पूर्वजों से मिली है। बच्चे को भाषा ज्ञान विशेष रूप से नहीं कराना पड़ता। परिवार के लोगों के संपर्क से ही वह सीख लेता है। हिन्दी भाषी परिवारों के बालक हिन्दी, अंग्रेजी भाषी परिवारों के बच्चे अंग्रेजी तथा अन्य भाषी परिवारों के बालक पैतृक भाषा सहज ही सीख लेते हैं। बच्चे के माँ-बाप गूँगे तथा बहरे हों तथा उसे समाज का संपर्क न मिले तो वह भी बोलना नहीं सीख सकेगा। देखा जाता हे कि जो बच्चे सुन नहीं पाते वे बोल भी नहीं सकते और अन्ततः वे गूँगे हो जाते हैं। भाषा की जानकारी उन तक नहीं पहुँच पाती। संकेतों के आधार पर ऐसे बालक किसी तरह अपना काम चलाते हैं।

मनुष्येत्तर जीवों के पास भी भाषा की कोई विरासत नहीं है, पर वे वार्तालाप गूँगे व्यक्तियों की तरह साँकेतिक आधारों पर करते हैं। विभिन्न प्रकार की सूचनाएं देने के लिए अन्य जीव विभिन्न तरह की आवाजें करते हैं। चिड़िया खतरे की सूचना देने के लिए एक तरह की तथा प्रसन्नता अभिव्यक्ति में दूसरे तरह की आवाज करती है। कुत्ते के भौंकने में वार्तालाप छिपा होता है जिसका प्रत्युत्तर दूसरे कुत्ते उसी भाषा में देते हैं। बन्दर अपनी इच्छा को ध्वनियों एवं अभिव्यक्तियों से दर्शाते हैं।

वर्षों पूर्व नोमचौम्सकी नामक एक विद्वान ने कहा था कि बोलना अन्य जीवों के लिए प्रकृति ने सम्भव नहीं बनाया है, अब वह कथन गलत सिद्ध हो चुका है। मनोवैज्ञानिकों को अब दूसरे जीवों के संपर्क प्रशिक्षण में आशातीत सफलता मिली है। पक्षियों, कबूतरों, चिम्पैंजी, बन्दरों, तोता, मैना तथा कुत्ते को साँकेतिक भाषा सिखाने में विशेष रूप से सफलता मिली है।

तोते की स्मरण शक्ति अन्य पक्षियों की तुलना में तीव्र होती है। फ्रांसीसी भाषाविदों का निष्कर्ष है कि तोता 100 शब्द आसानी से सीख सकता है। जे.एम. रिचार्ड सन नामक एक विद्वान ने एक तोते को बाइबिल का एक अध्याय पूरा कंठस्थ कराने में सफलता पायी थी। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि “विस्टन चर्चिल” की पुत्री “सारा चर्चिल” ने एक मैना पाली थी जो ब्रिटिश राष्ट्र गान के कुछ अंश मधुर स्वर में गा लेती थी। द्वितीय महायुद्ध के दौरान वह मित्र राष्ट्र के घायल सैनिकों का मनोरंजन अपने गायन से करती थी।

प्रख्यात उपन्यासकार थोमसमान की पुत्री एलिजावेथमान ने एक ‘पेगी’ नामक कुतिया को प्रशिक्षित किया। भौंकने के माध्यम से ही उसे भाषा ज्ञान कराने में एलिजावेथ ने सफलता पायी। पेगी कोई भी बात सुनकर उसका अर्थ समझ लेती थी। उसके उतर की अभिव्यक्ति प्लास्टिक के अक्षरों के माध्यम से होती थी। अक्षर उसके आगे रख दिए जाते थे तो वह उन्हें जोड़कर अपना उत्तर प्रस्तुत करती थी।

कुछ दशकों पूर्व जर्मनी के सिल्वर हेस घोड़े की बहुत चर्चा हुयी। वह किसी भी प्रश्न का उत्तर अपने टापों के आधार पर देता था। एशियन विज्ञान अकादमी ने सच्चाई की परख के लिए एक जाँच कमीशन बिठाया तो उसके विशेषज्ञ इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि घोड़ा प्रश्नकर्ता के चेहरे एवं निगाहों को भापने में दक्ष था। वह प्रश्न समझ कर उत्तर के लिए तब तक टापें बजाना जारी रखता था जब तक प्रश्नकर्ता की निगाहों में सन्तोष या निराशा की चमक न देख लेता।

वर्जीनिया में लेडी वडर नामक घोड़े ने चीनी भाषा बोलने में सफलता पा ली थी। वह प्रश्नों का उत्तर लकड़ी के अक्षर खण्ड जोड़कर दिया करता था जिसे उसके प्रशिक्षक सामने रख देते थे। एक अंग्रेजी दैनिक में उस घोड़े की विशेषताओं का विस्तृत विवरण छपा था।

संसार के कितने ही देशों में संचार उपग्रह के इस युग में भी कबूतरों के माध्यम से सन्देश प्रसारण का कार्य लिया जा रहा है। रूस, जर्मनी जैसे राष्ट्र उनमें प्रमुख हैं। कबूतरों को अब वैज्ञानिक भी विश्वस्त सन्देश वाहक समझने लगे हैं। भारत के उड़ीसा प्रान्त में विगत 38 वर्षों से सन्देश पहुँचाने का कार्य ग्रामीण पुलिस विभाग द्वारा लिया जा रहा है। राज्य के पुलिस उप महानिरीक्षक आर.एम. पटनायक ने बताया कि आधुनिक संचार प्रणाली के तीव्र विकास के बावजूद पुलिस विभाग के लिए कबूतर सबसे अधिक विश्वसनीय तथा बेहतरीन वैकल्पिक सन्देशवाहक सिद्ध हुए हैं। राज्य के सुदूर पर्वतीय तथा घने जंगलों वाले क्षेत्रों में तो प्रायः इन कबूतरों की मदद से दुर्गम पुलिस चौकियों से संपर्क रखने में मदद मिलती है।

पुलिस संचार मुख्यालय के निरीक्षक जे.के. राय के अनुसार राज्य पुलिस ने सेना से 1946 में कुछ कबूतर लिये थे। उनके वंशज अब एक हजार से भी अधिक संख्या में सन्देशों को पहुँचाने का काम कर रहे हैं। श्री राय का कहना है कि सन्देशवाहक कबूतर तेज दौड़ाक एवं सतर्क होते हैं। वे बहुत कठिन उड़ानें भरने में भी सक्षम हैं। अनुकूल मौसम होने पर वे औसतन 60 किलोमीटर की गति से उड़ान भर सकते हैं तथा बिना रुके 15 से 20 घण्टे तक उड़ते रह सकते हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि कबूतरों के माध्यम से जितने भी सन्देश भेजे गये हैं वे सही समय पर तथा सकुशल पहुँचे हैं। किसी प्रकृति प्रकोप में अपनी जान गंवा बैठने की स्थिति में ही सन्देश पहुँचने में व्यतिरेक आने का प्रमाण मिला है अन्यथा उनकी वफादारी तथा मुस्तैदी में कभी भी किसी प्रकार की शिकायत नहीं मिली है। अमरीका तथा रूस में तो कबूतरों के माध्यम से गुप्तचरी कराने के भी प्रमाण मिले हैं।

विभिन्न जीवों में मूक भाषा-संपर्क के भी कई उदाहरण मिलते हैं। सर्वोत्तम मासिक पत्रिका में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार दक्षिणी अफ्रीका के नेटाल ड्रंकजवर्ग के लोटेनी अभयारण्यक के 40-50 वैबून बन्दरों ने एक बकरे को अपना अभिन्न सहचर बनाया है। वे उसका बराबर ध्यान रखते हैं। बकरा भी बन्दरों के समुदाय में अत्यन्त घुल-मिल गया है। उन्हीं के साथ खाता-पीता तथा उन्हीं के साथ सोता है। बन्दर बकरे की पीठ पर सवारी करते हैं। कई बार तो दुर्गम पहाड़ी पर बकरे को अपनी पीठ पर वानरों को बैठाये चढ़ते देखा गया है। अभयारण्य के वरिष्ठ प्रभारी रेंजर का कहना है कि बैबून बन्दर अत्यन्त संवेदनशील होते हैं, उनमें ममता भी बहुत होती है।

प्रशिक्षित किया जा सके तो दूसरे जीव मनुष्य के कितने ही कार्यों में सहयोग भी कर सकते हैं। परम्परागत रूप में बैल, घोड़े, खच्चर, गधे, बकरियों, ऊंट आदि से श्रम का काम लिया जाता है। हाथी भी सवारी गाँठने के अतिरिक्त भारी गट्ठर आदि ढोने के लिए कहीं-कहीं प्रयोग में लाये जाते हैं। पर अन्य छोटे जीवों से भी कितने ही प्रकार के काम लिये जा सकते हैं। जापान असेम्बली लाइन में जाँच पड़ताल का काम कबूतरों से लिया जाता है। बिना कोई हड़ताल किये अथवा वेतन भत्ता बढ़ाने की माँग किये वे मात्र चुगने के लिए थोड़े से चावल के दानों के बदले पूरी मुस्तैदी से सौंपा गया कार्य करते हैं।

रूस यूराल के मोईविंस्क खण्ड में धरती के गर्भ में धातुओं का पता लगाने के लिए शेफर्ड और एअरडेल जाति के कुत्तों का उपयोग किया जाता है। उनकी घ्राण शक्ति इतनी प्रबल होती है कि 17 मीटर की गहराई तक की धातुओं को सूँघ लेते हैं। इस कार्य के लिए उन्हें मात्र थोड़ा प्रशिक्षण भर देना होता है।

भूतकाल के ऐतिहासिक युद्धों में भी जानवरों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। घोड़े एवं हाथी तो प्राचीन काल में सैन्य बल के समतुल्य ही गिने जाते थे। पर कितनी ही बार दूसरे जानवरों ने भी युद्ध विजय में ऐतिहासिक भूमिकाएं निभायी हैं। कोडाना दुर्ग अविजित बना हुआ था। शिवाजी के लिए उसे जीतना आवश्यक था। सीधी पहाड़ी पर बना होने के कारण सेनापति तानाजी को दुर्ग पर चढ़ना असम्भव प्रतीत हो रहा था। तब उन्होंने एक सैनिक की सलाह से गोह नामक जन्तु का प्रयोग किया। रस्सी में बाँधकर गोह को ऊपर फेंका गया। वह चट्टान से जाकर चिपक गया। सैनिक उसके सहारे आसानी से रात्रि के अन्धकार में दुर्ग पर जा चढ़े। उन्होंने दुर्ग पर कब्जा कर लिया।

आधुनिक मनुष्य की स्वाद लिप्सा एवं बर्बरता के कारण कितने ही पशु पक्षियों का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। उपयोगिता के आधार पर अन्य जीवों को निरर्थक ठहराया जाता है पर यदि उन्हें भी संरक्षण, भावनात्मक पोषण एवं प्रशिक्षण मिल सके तो उपयोगिता की कसौटी पर वे भी खरे एवं मानव समुदाय के लिए हितकारी साबित हो सकते हैं।

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