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Magazine - Year 1984 - Version 2

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आयुर्वेद की गौरव-गरिमा अक्षुण्ण रहे

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आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ चरकसंहिता के सूत्र स्थान में एक उद्धरण आया है-

तदेव युक्तं भैषज्यं यदारोग्याय कल्पते। सचैव भिषजां श्रेष्ठों रोगेभ्यो यः प्रमोचयेत्॥ 1-135

अर्थात्- “औषधि वही श्रेष्ठ है जो रोग को दूर कर आरोग्य प्रदान कर सके और कोई दूसरी व्याधि पैदा न करे। वही वैद्य श्रेष्ठ है जो रोगी को रोग से सर्वथा मुक्त कर स्वास्थ्य लाभ दे सके।”

यह एक स्मरणीय तथ्य है कि आप्त पुरुषों द्वारा रचित ये ग्रन्थ देव संस्कृति की अमूल्य थाती के रूप में हमारे मध्य विद्यमान है, वनौषधि समुदाय के रूप में जड़ी-बूटियों का विलक्षण भाण्डागार हमारे राष्ट्र में है, फिर भी न जाने क्यों हम उस एलोपैथी को आँख मूँद कर स्वीकार कर लेते हैं जो सेवन करने पर चरक के कथन के विपरीत एक नहीं कई व्याधियाँ उत्पन्न कर देती हैं सारी जीवनी शक्ति को निचोड़ डालती है।

आज आयुर्वेद मृत प्रायः स्थिति में है। ग्रन्थ वही है, प्रयोग विधान भी वही हैं, फिर क्या कारण है कि रोगों पर उनका प्रभाव होता नहीं देखा जाता। इसके कई कारण हो सकते हैं। या तो रोगी को इस पद्धति पर आस्था नहीं रही अथवा औषधि गलत, बासी-पुरानी, वीर्यगुण रहित दी गयी अथवा वैद्यों की ज्ञान सम्पदा का भण्डार चुक गया एवं वे सही निर्णय करने में असफल रहे हैं। तीनों में से कोई एक या तीनों ही बातें सत्य हो सकती हैं। जन-साधारण को तुरन्त आराम देने वाली एलोपैथी चिकित्सा पद्धति की ओर उन्मुख होना भी इस कारण हो सकता है कि वे निराश करने वाले प्रयोगों की स्थिति में नहीं है। फिर क्या हार मान ली जाये? एवं वर्तमान ढर्रा जो चल रहा है, उसे ही चलने दिया जाये? क्या यही मानव की नियति है? अन्तःप्रेरणा कहती है- नहीं। ऐसा नहीं होना चाहिए। आयुर्वेद को पुनः गरिमा पूर्ण स्थान देकर मानव जाति को स्वास्थ्य लाभ देना चाहिए।

अक्षुण्ण स्वास्थ्य, जीवनी शक्ति एवं दीर्घायुष्य के रूप में मनुष्य को ऐसे तीन वरदान मिले हैं जिनके बलबूते वह जीवन व्यापार चलाता तथा साहित्य, कला, विज्ञान प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त करता है। स्वास्थ्य यदि कमजोर हो तो अर्जित सफलताओं का कोई महत्व नहीं। बीसवीं सदी की मानव जाति को सबसे बड़ी देन यह कही जा सकती है कि उसने चिकित्सा के सम्बन्ध में आधुनिक चिन्तन विकसित कर लिया है। निदान उपचार में आज जिन जटिल उपकरणों का उपयोग होता है, उससे रोग को प्रारम्भिक स्थिति में ही पकड़ लेने दुष्कर कार्य नहीं। व्यक्तियों में रोग एवं उनके लक्षणों के प्रति जागरुकता भी बढ़ी है। एक और पक्ष जो साथ-साथ अभिवृद्धि करता चला गया है, वह है सभ्यता के अभिशाप के रूप में नये-नये रोगों की उत्पत्ति एवं उनका असाध्य होते चले जाना। बढ़ते औद्योगीकरण प्रदूषण, रेडियो धर्मिता एवं निर्वनीकरण ने समस्या को और भी जटिल बना दिया है। जीवनी शक्ति के क्षेत्र में मनुष्य क्रमशः विपन्न होता चला गया है।

आयुर्वेद आप्त पुरुषों द्वारा प्रणीत वेदाश्रित वैज्ञानिक विद्या है। इसे अथर्ववेद के एक उपाँग के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। ऋषि श्रेष्ठ चरक के अनुसार अक्षुण्ण स्वास्थ्य के तीन स्तम्भ हैं- “नयः उपस्तम्भा शरीरस्य, आहारः स्वपन्तो ब्रह्मचर्यमीति।” अर्थात्- युक्ताहार, युक्ता निद्रा एवं ब्रह्मचर्य। ये तीन ऐसे आधार हैं जिनका अवलम्बन लेकर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है। आहार पर नियंत्रण न होने से ही आज ओबेसीटी (स्थूल विकार), हृदय रोग, मस्तिष्कीय रक्त स्राव, मधुमेह जैसी व्याधियाँ बढ़ती चली गयी हैं। एलोपैथी की लगभग 60 से 80 प्रतिशत शक्ति इन्हीं रोगों पर नियंत्रण पाने में नियोजित होती है। रोग तो पूरी तरह कभी ठीक नहीं हो पाते। मात्र लक्षणों की रोकथाम हो पाती है। निद्रा में असन्तुलन बीसवीं सदी का एक ओर महारोग है। अनिद्रा के कारण करोड़ों टन तनाव शामक औषधियों का सेवन प्रति वर्ष विश्व में किया जा रहा है। तनाव, बेचैनी, आतुरता जैसे मनोविकारों ने ही शरीर रोगों को जन्म दिया है, ऐसी मान्यता अब दृढ़ होती जा रही है। ब्रह्मचर्य अब तो मात्र चर्चा प्रसंग का विषय हैं। कामुक उच्छृंखलता पाश्चात्य देशों में गत 40 वर्षों में जिस तेजी से बढ़ी है, उसी का कारण है कि जीवन शक्ति को खोखला कर देने वाले असाध्य रोग पनपे व सारे विश्व में फैल गए हैं। ए.आय.डी.एस. (एक्यूट इम्युनॉलाजीकल डेफीसिएन्शी सिन्ड्रोम) इसी की देन है जिसमें रोगी की प्रतिरोधी सामर्थ्य निरन्तर चुकती जाती है एवं क्रमशः वह मृत्यु के ग्रास में चला जाता है।

आयुर्वेद शास्त्र का वचन है- सर्वेषामेव रोगाणां निदानं कुपित भला।

तत्प्रकोपस्ततु प्रोक्तं विधिवाहि सेवनम्॥

अर्थात्- “अनेक प्रकार के अहितकारी पदार्थों के सेवन से मलों का संचय हो जाने से रोग पैदा हो जाते हैं।” मूल कारण इस प्रकार आयुर्वेद ने मलों का संचय माना है एवं उसी की निवृत्ति को चिकित्सा का प्राण बताया है। इसके लिए ऋषियों ने विज्ञान समस्त विधि से निदान व्यवस्था बनाई है। “नाडी परीक्षा” नामक ग्रन्थ कहता है कि “रोगी के शरीर के आठ स्थानों का निरीक्षण करके वैद्य को रोग की परीक्षा करनी चाहिए- ये हैं नाड़ी, मूत्र, मल, जीभ, शब्द, स्पर्श, नेत्र तथा आकृति।”

आज भी निदान के लिये पाश्चात्य एवं आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में 75 प्रतिशत इन्हीं लक्षणों पर निर्भर रहा जाता है। औषधि प्रकरण जब आता है तो विचित्र स्थिति पैदा हो जाती है। विशुद्धतः आयुर्वेद से चिकित्सा करने वाले वैद्य अब रहे नहीं। हैं तो बहुत ही कम हैं। भारत से ही यह चिकित्सा प्रणाली जन्मी एवं यहीं के वैद्य कन्डेन्स्ड कोर्स की शिक्षा प्राप्त कर पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति का प्रयोग करते देखे जा सकते हैं। वैद्य कहलाने में उन्हें लज्जा आती होगी इसलिए डॉक्टर कहलाते हैं। निर्गुण्डी, सौंठ, अश्वगंधा रोगी को देने में शर्म आती है इसलिए ‘कार्टीसोन’ का इन्जेक्शन लगाते हैं यह स्थिति बहुसंख्य चिकित्सकों की है जो कहने को तो आयुर्वेद की शिक्षा प्राप्त हैं पर चिकित्सा पाश्चात्य ढंग की कर रहे हैं।

आयुर्वेद के रस चिकित्सा, भस्म-खनिज चिकित्सा प्रकरण की तो यहाँ चर्चा नहीं की जा रही, किन्तु वनौषधियों का प्रयोग इतना निरापद एवं लाभकारी है कि उसका कोई मुकाबला नहीं। इन्हीं जड़ी बूटियों पर लट्टू हो आज विश्व के बहुसंख्य राष्ट्र अपनी चिकित्सा पद्धति का मूल आधार उन्हें बना रहे हैं। “वर्ल्ड हैल्थ आर्गनाइजेशन” ने अल्टरनेटिव सिस्टम ऑफ मेडिसिन के अंतर्गत वनौषधि चिकित्सा को ऊँचा स्थान दिया है व इन पर शोध हेतु भरपूर सुविधाएं भी। इनसे तृतीय विश्व की सीमित साधनों में शरीर व मन सम्बन्धी सारी व्याधियों का उपचार सम्भव है, यदि ताजी, सही पहचानी गयी औषधियों का प्रयोग सही समय पर आरम्भ कर दिया जाय। विदेश से आयातित आयुर्वेद का स्तुति गान करने के स्थान पर अपनी ही सम्पदा को सही ढंग से प्रयोग करना हम सीख लें तो सफल उपचार पद्धति विकसित हो सकती है।

प्रसन्नता की बात है कि पिछले दिनों चीन, प. जर्मनी, कोरिया, आदि देशों में विश्व स्वास्थ्य संगठन के माध्यम से वैज्ञानिकों द्वारा किये जा रहे अनुसंधान के साथ-साथ हमारे अपने राष्ट्र में भी औषधीय पौधों पर आधुनिक ढंग से यह कार्य होने लगा है। 1959 में लखनऊ में स्थापित सेण्ट्रल ड्रम रिसर्च इन्स्टीट्यूट एवं जम्मू, हैदराबाद, बेंगलोर स्थिति रिजनल रिसर्च लेबोरेट्री में गत दो दशकों में काफी पौधों पर कार्य हुआ है। विजय सार (टेरोकार्पस मार्सुपियम), मधुनाशिनी (जिम्नेमा सिल्वेस्टर), से मधुमेह उपचार, पुष्कर मूल (इनुला रेसिमोसा), अर्जुन (टर्मिनेलिया अर्जुना) से हृदय रोग उपचार एवं सदाबहार (लोकेनेरा रोजिया) से रक्त कैंसर के उपचार हेतु औषधियाँ बनाने के क्षेत्र में काफी तेजी से प्रगति हुई है। नेशनल बॉटनीकल गार्डन (कलकत्ता) के विद्वान वनस्पतिविदों के अनुसार कुल चार लाख प्रकार की प्रजाति के पौधों में से अभी आठ हजार ही पहचानी जा सकीं व उनके गुण-धर्मों का निर्धारण हो पाया है।

देखा जाय तो चीन ने अपने राष्ट्र की समस्याएँ यदि पाश्चात्य ढंग से सुलझाने का विचार किया होता तो वह सम्भवतः अपनी एक प्रतिशत जनसंख्या को आधुनिक सुविधाएं दे पाता। अपनी परिस्थितियों व उपलब्ध औषधि सम्पदा को दृष्टिगत रख वहाँ तिब्बत में संग्रहित भारतीय आयुर्वेद ग्रन्थों के आधार पर “बेयर फुटेड डॉक्टर” (नंगे पैर चिकित्सक) स्कीम बनाई गई एवं एक निश्चित जनसंख्या के लिये ऐसे पेरामेडीकल स्टाफ का निर्धारण कर दिया। इस तरह वह अपनी एक अरब से भी अधिक जनसंख्या के स्वास्थ्य संरक्षण का महत्वपूर्ण कार्य पूरा कर पाया है। कोरिया (उत्तरी एवं दक्षिणी), मंगोलिया, रूस के पठारी व मैदानी क्षेत्र तथा हंगरी, रुमानिया, बेल्जियम एवं पश्चिमी जर्मनी में भी वनौषधियों की बहुतायत है। वहाँ सामान्य उपचार हेतु इन्हीं का प्रयोग किया जाता है। बड़े-बड़े अस्पतालों में भी आपातकालीन उपचारों तक के लिए अब वनौषधियों से बनी दवाएं ही प्रयुक्त होती हैं, संश्लेषित नहीं। डिजिटेलिस, रोवेल्फिया की ही शृंखला में अब कई औषधियाँ ऐसी ढूंढ़ी गयी हैं। जिनके प्रभावों के सम्बन्ध में आधुनिक प्रयोगशालाओं में पूरी तरह सन्तुष्टि कर ली गयी है।

आवश्यकता इन प्रयासों को और भी बढ़ाने की है ताकि अधिसंख्य जनता को रोगमुक्त किया जा सके। औषधि के क्षेत्र में परावलम्बी यह राष्ट्र यदि अपने गौरव को पुनः स्थापित करना चाहता है तो आधुनिक उपकरणों के माध्यम से वनौषधि अनुसन्धान कर उनके गुण धर्मों से जन-जन को अवगत कराना होगा। तभी वे वैज्ञानिकों को एवं रोगियों को स्वीकार्य होंगी। यह कार्य कठिन नहीं है, प्रयासों में प्रखरता भर लाना है। योगीराज भर्तृहरि ने वैराग्य शतक में सही ही कहा है कि- “जब तक शरीर स्वस्थ और रोग रहित है, जब तक वृद्धावस्था दूर है, जब तक सभी इन्द्रियों की शक्ति भरपूर है, प्राण शक्ति क्षीण नहीं हुई है- तभी तक बुद्धिमान को चाहिए कि वह आत्मिक प्रगति हेतु प्रयासरत रहे अन्यथा घर में आग लग जाने पर कुँआ खोदने से क्या लाभ?” 

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