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Magazine - Year 1984 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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मानवी मन का मायावी ‘रसायन शास्त्र’

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सृष्टा ने काया सबको एक सी दी है एवं मस्तिष्क भी समान भार व बनावट का है। गोरे व काले, अनपढ़ एवं पढ़े लिखों में आकृति की दृष्टि से कोई महत्वपूर्ण भिन्नता नहीं होती। फिर भी देखा यह जाता है कि कोई मेधा की दृष्टि से विलक्षण होता है व कोई दैनन्दिन जीवन व्यापार तक को चलाने में अक्षम होता है। किसी में करुणा, स्नेह, दया, परोपकार की भावना पायी जाती है तो कोई भावनाओं की दृष्टि से नितान्त निष्ठुर, कठोर हृदय का देखा जा सकता है। कोई रोजमर्रा के कार्यों में अत्यधिक स्फूर्तिवान, खेलकूद में कुशल, चपल-चंचल देखा जाता है तो कोई इसके विपरीत नितान्त अकर्मण्य, खेलकूद के मनोरंजन के साधनों के प्रति अरुचि दिखाता, आलसी जीवन जीता, शरीर ढोता दिखाई देता है। आखिर यह भिन्नता क्यों व कैसे होती है, यह व्यवहार मनोविज्ञानियों एवं स्नायु रसायन शास्त्रियों के लिये आदिकाल से ही शोध का विषय रहा है। चिकित्सा विज्ञान की प्रगति के विभिन्न आयाम जैसे-जैसे वैज्ञानिकों की समझ में आते जा रहे हैं, नये-नये रहस्यों का उद्घाटन होता जा रहा है।

प्रत्यक्ष हलचलों को ही शरीर व मनोगत शोध का विषय मानने वाले वैज्ञानिकों का मत है कि शरीर व मन की सूक्ष्म गतिविधियों का संचालन करने वाले कई संदर्भ ऐसे हैं जिन्हें रहस्यों के पर्दे के पीछे होने से अभी तक जाना नहीं जा सकता है सूक्ष्म शरीर की शक्ति, सत्ता का प्रभाव परिचय देने वाली सूक्ष्म हारमोन ग्रन्थियों की अब काफी कुछ जानकारी वैज्ञानिक समुदाय को है। इनकी बूँद से भी कम मात्रा में स्राव शरीर में किस प्रकार अद्भुत परिवर्तन ला देता है यह देखकर चकित रह जाना पड़ता है। अब स्नायु रसायन शास्त्री एवं व्यवहार मनोवैज्ञानिकों ने इससे भी ऊँची छलाँग लगाकर भाव सम्वेदनाओं का रसायन शास्त्र खोज निकाला है एवं शरीरगत स्फूर्ति- चंचलता से लेकर, स्नेह दया की भावना एवं प्रफुल्लता प्रसन्नता के लिये उत्तरदायी घटकों को स्नायु कोशों की सूक्ष्म परतों में खोज निकाला है। हारमोन ग्रन्थियों को जादुई स्राव बताने वाले एण्डो क्राइनोलाजिस्ट इन मस्तिष्कीय स्नायु रसायनों की प्रतिक्रियाओं को देखकर हतप्रभ हर जाते हैं।

आश्चर्य यह है कि इस रसायन शास्त्र की जानकारी इन रोगों के माध्यम से मिली जिसमें मस्तिष्क या तो अवसादग्रस्त हो जाता है या क्रमशः स्मृति-मेधा लुप्त होने से जड़ होता चला जाता है। अमेरिका के नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ मेण्टल हेल्थ के चिकित्सक वैज्ञानिकों का यह निष्कर्ष है कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के व्यवहार में पाये जाने वाला अन्तर उन व्यक्तियों के मस्तिष्क में पाये जाने वाले एन्जाइम मोनो अमीर ऑक्सीडेस (जिसे माओ भी कहा जाता है) की सक्रियता निष्क्रियता पर निर्भर करता है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की भाव-सम्वेदनाओं की सामान्य एवं असामान्य अभिव्यक्ति, प्रफुल्लता एवं बेचैनी, सक्रियता एवं जड़ता इस मस्तिष्कीय रसायन जिसे न्यूरोह्यूमरल रस स्राव माना गया है, की मात्रा में अन्य एन्जाइमों द्वारा की गई न्यूनाधिकता पर निर्भर है। इसे समझाते हुए व्यवहार मनोविज्ञानी डॉ. एण्ड्रयू बैपटिस्ट के अनुसार मस्तिष्क में दो प्रकार के रसायन समूह पाए जाते हैं। एक मोनोअमीन ऑक्सीडेज एन्जाइम्स दूसरे न्यूरो ट्रांसमीटर्स जिनमें एप्रीनेफ्रीन, डोपामीन एवं सिरोटोनिन प्रमुख हैं। प्रथम समूह न्यूरोट्रांसमीटर्स की सक्रियता को समाप्त करने की ही भूमिका मुख्य रूप से निभाता है। जबकि एक तीसरा समूह इनकी सक्रियता व रक्त स्तर को बनाये रखने का काम करता है। इनमें एन्डार्फिन समूह के एन्जाइम्स आते हैं। उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि मस्तिष्क में जब माओ रस स्राव अधिक होता है, अकर्मण्यता, प्रमाद, निरुत्साह, बेचैनी, तनाव का प्राधान्य देखा जाता है। जब द्वितीय समूह प्रभावशाली होता है तो वह माओ की सक्रियता को कम करके जागृति, प्रफुल्लता, स्फूर्ति, तनाव शैथिल्य की स्थिति लाता है। तीसरा समूह जिसमें एन्डार्फिन ग्रुप के एनकेफेलीन अदि हारमोन्स प्रमुख हैं- द्वितीय समूह की सक्रियता को बढ़ाकर प्रसन्नता एवं आनन्द की मनःस्थिति को पराकाष्ठा पर ले जाते हैं। व्यक्ति हर कार्य में तल्लीन होकर प्रमुदित मन से काम करते व मुस्तैद देखे जाते हैं।

वैज्ञानिक द्वय डॉ. क्राफ्ट्समैन एवं जॉन क्रुकशैंक (बाल्टीमोर यूनिवर्सिटी) जिन्होंने व्यवहार मनोविज्ञान एवं मनोरोगों पर विशद् शोध कार्य किया है, अपने शोध कार्य में कहते हैं कि जब-जब भी मस्तिष्क में ‘माओ’ की सक्रियता बढ़ जाती है एवं न्यूरोट्राँसमीटर्स का मस्तिष्क रस स्राव कम हो जाता है, व्यक्ति खिन्न, उदास, बेचैन देखे जाते हैं। ऐसी परिस्थितियाँ पर्यावरण में संव्याप्त विषाक्तता के कारण भी बनती है एवं चिन्तन की अस्तव्यस्तता के कारण भी। एन्डार्फिन द्रव्य समूह को उन्होंने माओ इनहिबिंटर (सक्रियता को नष्ट करने वाला) माना है। जिन व्यक्तियों में इस समूह की अधिकता होती है, वे प्रसन्न, खुली मनोवृत्ति के, कुण्ठा-ग्रन्थि रहित होते हैं तथा वातावरण से प्रभावित नहीं होते। यह निष्कर्ष उन्होंने एक औषधि के प्रभाव को देखकर निकाला। चिकित्सकों द्वारा दी जाने वाली एण्टीडिप्रेसेन्ट औषधियाँ (अवसाद शामक) न्यूरोट्रान्समीटर्स को उत्तेजित करती एवं माओ को निष्क्रिय करती हैं।

औषधियों के अतिरिक्त परामर्श, सम्मोहन, वायो-फीडबैक द्वारा भी व्यवहार मनोवैज्ञानिकों ने यह प्रयास किया है। उनका मत है कि औषधियाँ दुष्प्रभाव रहित नहीं हैं। वे अवसाद के रोगी को प्रसन्न तो कर देती हैं, पर अन्य कई ऐसे प्रभाव छोड़ जाती हैं। जिनके लिये पुनः औषधि की आवश्यकता पड़ जाती है। इसी कारण उनका प्रयास रहा है कि स्वतः अपने मस्तिष्क में अवस्थित माओ इनहिबिटर्स हारमोन्स को सक्रिय बनाया जाय ताकि सतत् प्रफुल्ल मनःस्थिति बनाये रखना सम्भव हो सके। आज की तनाव भरी परिस्थितियों में, जहाँ बहुसंख्य की मनःस्थिति गड़बड़ा रही है, यह और भी अनिवार्य हो जाता है।

स्टेनफोर्ड रिसर्च सेन्टर यू.एस.ए. में पूर्वार्त्त ध्यान साधनाओं की मनःसंस्थान पर प्रतिक्रियाएँ जाँचने की शोध हेतु एक अलग ही विभाग की स्थापना की गई है। इस संस्थान के वैज्ञानिकों का मत है कि प्रसन्नता विषाद के लिये उत्तरदायी ये तीनों ही रसायन समूह पिट्यूटरी ग्रन्थि एवं हाईपोथेलेमस के माध्यम से भावनाओं की प्रतिक्रिया दर्शाते हैं। इनके स्रावों का नियन्त्रण ध्यान साधना, एकाग्रता की ध्यान धारणा एवं योग निद्रा जैसे उपायों से भली प्रकार सम्भव है।

अभी तक वैज्ञानिक स्थूल रूप से रक्त में स्रवित होकर अपनी क्रिया-प्रभाव दर्शाने वाले कुछ हारमोन्स से ही अचम्भित थे। शारीरिक बनावट, लावण्य-रूप-सौंदर्य, यौवन एवं वार्धक्य, यौन ग्रन्थियों की सक्रियता-निष्क्रियता तनाव के प्रत्युत्तर में फाइट ऑफ फ्लाईट (“लड़ो या भाग जाओ”) की प्रतिक्रियाएँ ही एण्डोक्राइन ग्रन्थियों के सम्बन्ध में शोध का विषय रही हैं। मस्तिष्क एवं स्नायु रसायनों की खोज ने व्यवहार एवं व्यक्तित्व सम्बन्धी अनेकों ऐसे नये रहस्य वैज्ञानिकों के समक्ष उद्घाटित किये हैं जिनके बारे में पूर्व की जानकारी सीमित थी। योग-मनोविज्ञान अवश्य इन सम्भावनाओं का वर्णन करता है, किन्तु प्रत्यक्ष साक्षियों के अभाव में वैज्ञानिकों का असहमत होना स्वाभाविक ही था।

न्यूरो हिस्टोपैथोलाजी एवं न्यूरो केमिस्ट्री के विशारदों के अनुसार मस्तिष्क का रसायन शास्त्र बड़ा विलक्षण विचित्र है। वैज्ञानिकों का मत है कि ऐसे कई हारमोन्स जो पहले पाचन संस्थान आदि से सम्बन्धित ग्रन्थियों से उत्सर्जित माने जाते थे एवं उनकी मात्रा भी वहीं पायी जाती थी, अब मस्तिष्क में भी पा ली गयी है। इनमें ए.सी.टी.एच. एसिटाइल वोलीन एवं नार-इपीने-फ्रिन जैसों के नाम लिये जाते हैं। आमाशय के अम्ल रस स्राव का नियंत्रण करने वाले कोलसीस्टीक्निन एवं एड्रीनल ग्रन्थियों से स्रावित होने वाले ग्लूकोकार्टीवकॉइड्स की उल्लेखनीय मात्रा मस्तिष्क में भी पाली गयी है। वैज्ञानिकों के अनुसार ये सम्भवतः स्नायु संकेत सम्प्रेषक (न्यूरोसिग्नल ट्राँसमीटर) की भूमिका निभाते व अधिक मात्रा में मनोशारीरिक रोगों को जन्म देते हैं। पेट का अल्सर, हृदयावरोध, इरिटेबुल बॉवेल सिन्ड्रोम, अल्सरेटिव कोलाइटिस जैसे साइकोसोमेटिक रोक सम्भवतः इन्हीं हारमोन्स के असन्तुलन के कारण होते हैं। ज्ञातव्य है कि आज इन रोगों का प्रतिशत विकसित व विकासशील राष्ट्रों में तीन चौथाई है।

डोपामीन, गाबा, सिरोटोनिन जैसे स्नायु रसायनों की स्राव मात्रा में जब भी थोड़ी बहुत फेर बदली होती है तो संवेदनशील केन्द्रों में विकृति आ जाती है एवं फलस्वरूप स्मृति लोप हो जाना, सठिया जाना, पार्किन्सन्स डीसिज (माँस-पेशियों का तनाव व जड़ता की प्रधानता), डेमेन्शिया जैसे रोग जन्म लेने लगते हैं। अच्छा-खासा पढ़ा-लिखा बहुमुखी प्रतिभा वाला एक विद्वान अपनी आयु के मोड़ पर जरा से स्नायु स्राव असन्तुलन से स्मृति व मेधा खो बैठता है। जो व्यक्ति अपने को सदैव सक्रिय बनाये रखते एवं अन्तः के माओ इनहिबिटर्स के स्राव में असन्तुलन नहीं आने देते, उनके समक्ष ऐसी परिस्थितियाँ नहीं आतीं।

स्नायु रसायनविदों का मत है कि पीनियल व पीटुचरी की सक्रियता से स्रवित हारमोन्स मात्र यौन गतिविधियों का ही नियन्त्रण नहीं करते वरन् व्यक्ति के सोचने निर्णय लेने की क्षमता को, दिग्-काल सम्बन्धी उसकी धारणा को भी संचालित एवं नियंत्रित करते हैं। यौवन लाने के लिये उत्तरदायी ये हारमोन्स इस प्रकार बहुमुखी भूमिका निभाते हैं। वैज्ञानिकों ने यह भी पाया है कि एण्ड्रोजन (जो पुरुषत्व के लिये उत्तरदायी हारमोन है), टेस्टिस का आकार एवं मनुष्य की दिग्काल सम्बन्धी योग्यता, ज्ञानार्जन क्षमता में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। एण्ड्रोजन की मात्रा जितनी कम होगी, नपुसंकत्व उतना ही अधिक होगा एवं ज्ञानार्जन क्षमता उतनी ही कम होगी। यही तथ्य नारी सम्बन्धी रस स्रावों पर भी लागू होता है।

वस्तुतः मानवी मस्तिष्क का स्नायु जंजाल रसायनों सम्बन्धी इतनी जटिलताएं लिए है कि अभी उसका कुछ प्रतिशत भाग ही वैज्ञानिकों की समझ में आ पाया है। व्यवहार, मनोवैज्ञानिकों, स्नायु रसायनविदों एवं स्नायु रोग वैज्ञानिकों के पारस्परिक समन्वित प्रयास से कई ऐसे सूत्र हस्तगत हो सकते हैं जिनसे मस्तिष्क में निहित अविज्ञात केन्द्रों की गतिविधियों की जानकारी एक दिन हासिल हो सके। शिकागो के माइकेल रीज हॉस्पिटल, मेसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल एवं स्टैन फोर्ड रिसर्च सेंटर के समन्वित प्रयास इस दिशा में महत्वपूर्ण सिद्ध हो रहे हैं। आशा करनी चाहिए कि सहस्रार, ब्रह्मरंध्र, आनन्दमयकोश, आज्ञाचक्र जैसी योग विज्ञान में वर्णित अनेकों सूक्ष्म संरचनाओं की जानकारी व उनके जागरण का लाभ वैज्ञानिक भाषा में ही शीघ्र उपलब्ध हो सकेगा। ऐसी स्थिति में उनकी प्रसुप्ति एवं जागृति से मानवी पतन या विकास की, व्यवहार में परिवर्तन ला सकने की, टाले जा सकने वाले मनोशारीरिक रोगों की जानकारी भी बढ़ेगी।

अन्तः जागरण के लिये किये जाने वाले साधनात्मक पुरुषार्थ किस तरह अपनी भूमिका निभाते होंगे, इसका एक मोटा अन्दाज मस्तिष्कीय रसायन शास्त्र की जानकारी से लगाया जा सकता है। इन सर्वसुलभ, सुगम अध्यात्म साधनाओं का अवलम्बन लेकर हम वर्तमान की तुलना में अनेकों गुनी महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल कर सकते हैं, प्रफुल्लता एवं अक्षुण्ण आनन्द का रसास्वादन करते रह सकते हैं।

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