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Magazine - Year 1984 - Version 2

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वृत्रासुर हनन का इन्द्रवज्र

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First 6 8 Last
सूक्ष्मीकरण द्वारा जो पाँच वीरभद्र उत्पन्न किये जा रहे हैं उनमें से एक के जिम्मे लोक सेवी उत्पन्न करने का काम सौंपा गया है और दूसरों के जिम्मे सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए साधन एकत्रित करने का। तीसरे के जिम्मे उलटी चल रही गाड़ी को उलट कर सीधा करने का है। जन सामान्य की मनोदशा वासना, तृष्णा, अहंता के दलदल में सिर से पैर तक डूबे रहने की है। इसे स्वार्थ और अनर्थ का संयोग कहा जा सकता है।

न्यूनाधिक मात्रा में शान्ति और सामर्थ्य हर किसी के पास होती है। प्रतिभा से सर्वथा शून्य कोई भी नहीं है। प्रश्न एक ही है कि उसका उपयोग किस निमित्त किया जाय। इन दिनों मनुष्यों का ढलान और झुकाव जिस ओर है उसे पास परक अनर्थ मूलक कहा जा सकता है। सोचने के लिए जब मस्तिष्क चलता है तो उसकी दिशा एक ही होती है कि दूसरों को हानि कैसे पहुँचाई जाये। सीधे रास्ते चलते आदमी को पतन के गर्त में कैसे गिराया जाय। सलाह देने का अवसर आता है तो पूछने पर अथवा बिना पूछे भी ऐसा कुछ बताया जाता है जिससे स्वयं गिरे और दूसरों को गिराये। गिरते को उठाने की शिक्षा देने वाले कदाचित ही कोई होते हैं। परमार्थ की दिशा में कदम न बढ़ा सकें तो कम से कम इतना तो करें कि चलने वाले को सही बात बतावें, सही रास्ता दिखावें।

जिस प्रकार अधिकाँश लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य खराब हैं, उसी प्रकार मानसिक स्वास्थ्य- नैतिक स्वास्थ्य भी बिगड़े हुये हैं। सोचने की मशीन उलटी चलती है अपनी बुद्धिमता इसमें मानी जाती है कि चालाकी बेईमानी से किसी प्रकार धन प्राप्त किया जाये। कोई कठिनाई सामने न होने पर भी गरीबी, तंगी, मुसीबत होने की दशा में कोई ऐसा कुछ सोंचे तो बात समझ में भी आती है पर जो अच्छे खासे सम्पन्न हैं, पैसे की जिन्हें कोई कमी नहीं है, उनकी भी नीयत यही चलती रहती है कि कुछ न कुछ बेईमानी बदमाशी जैसा किया जाये। शौकों में नशेबाजी ही एक ऐसी दिखाई पड़ती है जिसे अपनाने में बुद्धिमत्ता दीखती है। बीड़ी सिगरेट की बात बहुत पीछे रह गयी अब शराब के बिना काम नहीं चलता। इसमें ही शान, शेखी और प्रगतिशीलता दिखाई पड़ती है। नशे खोरी से मदिरा पान और फिर व्यभिचार यह एक विष-बेल है जो एक से दूसरे को, दूसरे से तीसरे को, तीसरे से अनेकों की आदत खराब करती है फिर यह एक फैशन चल पड़ता है और दुष्टता करते लज्जा आने के स्थान पर मूँछों पर ताव देते देखा गया है कि उसे मारा- उसे बिगाड़ा, इसे गिराया- इसे सताया। स्त्रियों के प्रति दुर्बुद्धि उत्पन्न करने के फलस्वरूप अपने और दूसरों के परिवार बुरी तरह बर्बाद होते हैं।

स्त्री को जूती समझने में अपना बड़प्पन देखने के फलस्वरूप ही दहेज की प्रथा चली है। दूसरे का घर बर्बाद करने में कैसा मजा आया यह भी दुष्टता का एक व्यसन है। दहेज के न मिलने पर नव वधुओं के सताये जाने उन्हें जलील करने की बातें अब आये दिन सुनी जाती हैं। तेल छिड़क कर जला देने की घटनाओं से इन दिनों अखबार भरे रहते हैं। फाँसी लगा देने, जहर खिला देने, गला घोंट देने, कुएँ तालाब में पटक देने के पैशाचिकता भरे कुकृत्य रोज ही होते रहते हैं। इनमें सास ससुर तक हाथ बंटाते देखे गये हैं।

बलात्कारों और सामूहिक बलात्कारों की घटनाओं की इन दिनों धूम है। किसी की बहू बेटी को फुसलाकर अपहरण कर लेना, वेश्यालयों में बेच आना, इस प्रकार की घटनायें अब नये किस्म के अपराधों में सम्मिलित हुई हैं। कुछ दिन पहले तक दूसरों की बहू बेटी अपनी बहू बेटी मानी जाती थी, पर लगता है कि वे रिश्ते ही समाप्त हो गये। जानवरों में जिस तरह माता, बहिन, बेटी का रिश्ता नहीं होता ठीक वैसा ही मनुष्यों में चल पड़ा है। एक के यहाँ से दहेज लेकर उस लड़की को मार देना और दूसरी तीसरी लड़की वालों से उसी प्रकार की रकम ऐंठते रहना अब यह एक नया धन्धा चला है।

अपहरण की घटनाओं में खेलते बच्चों को पकड़ ले जाना और मनमानी फिरौती न मिलने पर उन्हें मार डालना यह भी एक नया धन्धा चला है। लोगों ने जान से मारने का एक पेशा नया बनाया है। किसी को भी पैसा देकर किसी की भी जान ली जा सकती है। ऐसे लोगों के लिए देशी पिस्तौलें गाँव-गाँव के लुहार बनाने लगे हैं। लगता है अब आदमी की शक्ल में भेड़िये, साँप हर जगह खून की प्यास बुझाते फिरते हैं। इस व्यवसाय में पढ़े और बिना पढ़े सब समान हैं। जबान से मीठी बातें करने वाले भी ऐसे कुकृत्य करते देखे जाते हैं, जिनकी करतूतें देखकर प्रेत, पिशाच, जिन्न- मसान, दैत्य, दानव आदि का सहज स्मरण हो जाता है।

इनका निराकरण कैसे हो यह अब पुलिस के बस से बाहर की बात है। उनमें से भी अनेकों ऐसे हैं जो इनसे मिले रहते हैं, और बँटाई लेते हैं। फिर इनसे निपटा कैसे जाय? प्रत्यक्ष लड़ाई में इनसे जीतना कठिन है। परोक्ष लड़ाई ही कारगर हो सकती है। इनको सुधारने से लेकर दण्ड दिलाने के कोई अन्य तरीके ही कारगर हो सकते हैं। ऐसा ही कोई प्रबन्ध किया जा रहा है।

अपने लाभ की दृष्टि हर व्यापारी की होती है। अपना लाभ हो, किन्तु दूसरे का अनर्थ न हो- यह व्यापार बुद्धि है। किन्तु अनर्थ बुद्धि के व्यवसाय हैं- बूचड़ खाने में साझेदारी, शराब खाना, व्यभिचार के अड्डे चलाना, ब्ल्यू फिल्में दिखाना, चोरी डकैती का माल लाना, बच्चों का फिरौती के लिए अपहरण, लड़कियाँ भगाना और वेश्यालयों को बेचना, नशे की वस्तुएँ यहाँ से वहाँ पहुँचाना, खाद्य-पदार्थों में मिलावट- जैसे कार्य ऐसे हैं इसमें लाभ तो सीमित ही होता है, पर अनर्थ बहुत होता है, यह बात इसलिए कहीं जा रही है कि चोरी बदमाशी के कार्य में बीसियों साझेदार होते हैं। उन सबको खुश रखना पड़ता है। एक को भी नाखुश किया जाय तो जो कमाया है उससे कहीं अधिक जेब से देना पड़ता है। ऐसे लोग चाहें तो सामान्य व्यवसाय में भी काम चलाऊ काम सकते हैं। टैक्स चोरी, कम नाम तोल आदि से भी उतना ही मिल जाता है। पर उन्हें ऊंचे दर्जे की बदमाशी करने में मजा आता है। उसमें अपनी बहादुरी प्रतीत होती है। लोगों पर आतंक जमाने में- कानून के धुर्रे उड़ाने में विशेष मजा आता है। हत्यारे किस्म की एक खास मनोवृत्ति होती है। यही लोग राज सत्ता में हों तो युद्ध छेड़ते हैं या युद्ध छेड़ने वालों में से किसी पक्ष के भागीदार बनते हैं। लड़ाई का सामान बनाने और बेचने का व्यवसाय करके धन कमाते और रौब गाँठते हैं।

परमाणु युद्ध से लेकर सामान्य युद्धों के पीछे मूल बात ऐसी नहीं होती, जो पंच फैसले से तय न हो सके। फिर भी युद्ध में जो मजा है सो दूसरा ही है। हजारों व्यक्तियों का मरना-मारना, कराहना, बिलखना भी उनके लिए मजेदार दृश्य है। इसमें संलग्न रहकर अपने को तीस मारखाँ बनना भी कितनों को ही एक शानदार काम लगता है।

यह अनर्थ व्यवसाय जब मनोवृत्ति में सम्मिलित हो जाता है तो वैसा कुछ किये बिना चैन ही नहीं पड़ता। सौम्य स्वभाव के उनसे मुकाबला नहीं कर पाते फलतः वे दुष्कर्म बढ़ते ही जाते हैं।

इस प्रवृत्ति के साथ जूझना अपने आप में एक बड़ा काम है। गुरुदेव का तीसरा सूक्ष्म शरीर इन आततायियों से जूझेगा और समझाने बुझाने से लेकर जैसे को तैसे वाली नीति अपनाकर प्रस्तुत आतंकवादी वातावरण को निरस्त करने में एक सूक्ष्म शरीर संलग्न रहेगा। महायुद्ध की विभीषिका-विश्व विनाश का आतंक प्रत्यक्ष सामने है। यह यदि कार्यान्वित होता है तो संचित मानव सभ्यता और प्रगति का सर्वनाश होकर रहेगा। ऐसा न हो तो इस प्रति युद्ध को असामान्य ही समझना चाहिए। दो विश्व युद्ध होकर ही चुके हैं। वर्तमान पीढ़ी ने उन्हें प्रत्यक्ष आँखों से देखा है। इसके अलावा छोटे-छोटे लम्बे और कम समय चलने वाले स्थानीय क्षेत्रीय युद्ध भी इसके अंतर्गत आते हैं। वे भी इन्हीं आँखों से देखे गये हैं। ऐसा समय संसार में शायद ही कभी बीता हो, जब युद्ध की मार काट या तैयारी न चल रही हो। अब युद्ध भी संसार की एक आवश्यकता बन गया है। स्थिति इसी प्रकार बनी रही तो लोग न चैन से बैठेंगे और न बैठने देंगे। जब दिमागों में यह आतंक छाया हुआ हो, उसका सामना करने को लोगों के दिमाग उलझे हुए हों तो शान्ति की बात कौन सोचे, प्रगति का ताना-बाना कौन बुने ? नवनिर्माण को कार्यान्वित करने का सुयोग कैसे बने ?

आमने सामने की लड़ाई देवासुर संग्राम के रूप में प्राचीन काल में होती रही है। वह तरीका काम देगा। तो उसे काम में लाया जायेगा। मन बदलने के तरीके और भी हैं। तुलसी, सूरदास, वाल्मीकि, अंगुलिमाल, आंबपाली आदि के अन्तःकरणों में ऐसी प्रेरणा उत्पन्न हुई कि उनने वह पुराना व्यवसाय ही नहीं छोड़ा वरन् परिवर्तन करके नया जीवन ऐसा बदल डाला जिससे पुरानी धूर्त्तता के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रही। यह भी एक तरीका है।

प्रेत पिशाचों ने अपनी योनियाँ छोड़ीं और सन्त ऋषियों ने अपनी काया पलटी है। सांप केंचुली बदलता है तो घोर आलसी से बदलकर स्फूर्तिवान हो जाता है। बदलाव के अनेक तरीके हैं। साम, दाम, दण्ड, भेद इन चारों ही तरीकों को दुष्टजनों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। तीसरे वीरभद्र को इनमें से जो तरीका जब जैसा प्रतीत होगा उसे काम में लायेगा और परिवर्तन का ऐसा माहौल उत्पन्न करेगा जिसे देखकर लोग चकित हो जाएंगे।

सूक्ष्मीकरण प्रक्रिया में से उत्पन्न होने वाला तीसरा वीरभद्र अपने युग के इस महादैत्य से लड़ेगा जो अब तक के सभी असुरों से अधिक व्यापक, विस्तृत और भयंकर है। देवासुर संग्राम के अनेकानेक विवरणों में एक से एक भयंकर असुरों का वर्णन है। उन्हें मनुष्यों ने भी नहीं मारा था, देवताओं से भी वे नहीं मरे थे। उन्हें निरस्त करने के लिए भगवान को अवतार लेने पड़े थे। इस संदर्भ में वृत्रासुर का प्रसंग याद आता है, जिसका देवताओं के अधिपति इन्द्र भी सामना न कर सके थे। भगवान के अवतार का सुयोग बन नहीं रहा था। तब मनुष्यों में से एक ने यह उत्तरदायित्व अपने कन्धे पर ओढ़ा था। ऋषि दधीचि की अस्थियों से वज्र बनने की योजना बनी और उसी से उस महा असुर का निरस्त हो पाना निश्चित समझा गया।

दधीचि ने इस पुण्य प्रयोजन के लिए अपनी अस्थियाँ दे दी। उससे वज्र बना। इसी महान अस्त्र के सहारे वृत्रासुर का वध सम्भव हुआ आज भी यही होने जा रहा है। वृत्रासुर ने एक वृत्त बना रखा है। उसकी नृशंसता के अनेकानेक स्वरूप हैं। इनसे जूझने के लिए दधीचि की अस्थियाँ ही कारगर होंगी। गुरुदेव का तीसरा वीरभद्र इस मोर्चे पर लड़ेगा और भूतकाल की विनाश लीला को समाप्त करने वाला पुनरावृत्ति आधार बनेगा।

तीसरा वीरभद्र दुरात्माओं के लिए भय का वातावरण उत्पन्न करेगा। वे जो करना चाहते हैं, वह बन न पड़ेगा। कोई विघ्न खड़ा होगा, लाभ के स्थान पर हानि होगी। कोई ऐसा संकट आवेगा, जो इच्छित दुर्भावना को उलट कर निराशा में बदल देगा। ऐसा सोचने का प्रवाह बहाएगा और जो करना चाहते हैं उससे हाथ रोक लेंगे। इस प्रकार कोई न कोई कारण ऐसा उत्पन्न करेगा जिससे दुरात्मा जो करना चाहते हैं ऐसा न कर सकें।

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