
वांछापूरक- गौ दुग्ध कल्प
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कालिदास के रघुवंश काव्य में राजा दिलीप की गौ सेवा का सारगर्भित वर्णन आता है। राजा की कोई सन्तान न थी। इसके लिए वे इच्छुक थे। चिकित्सा उपचार कुछ काम न आये तो वे गुरु वशिष्ठ के यहाँ उपाय पूछने गये। उन दिनों ऋषि महर्षि ही राजाओं के गुरु, मार्गदर्शक, चिकित्सक होते थे। कठिन समस्याओं के समाधान के लिए उन्हीं का आश्रय लिया जाता था।
दूरदर्शी वशिष्ठ ने संतान न होने का कारण समझा और उपचार निकाला। उन्हें गौ सेवा का काम सौंपा। ऋषि के पास एक लाल रंग की गौ थी। नाम था उसका नन्दिनी। राजा से कहा गया कि वे सवेरे से शाम तक गाय के पीछे-पीछे चराने जाया करें। गौ को स्वेच्छापूर्वक चलने दें। शाम को जब वह वापस लौटे तभी उसके साथ आवें।
राजा ने यही करना आरम्भ किया। रोकथाम करते तब तो वह थोड़ी सी भूमि में ही पेट भर लेती। पर निर्देश था, स्वेच्छापूर्वक चलने और चरने देने का। उन पर इस अनुबन्ध के कारण गाय दूर-दूर निकल जाती। जहाँ उसका मन होता विचरती। इस प्रयास में दिन भर में वह कई कोस की यात्रा करती। राजा को उसके पीछे चलना पड़ता। इस प्रकार सवेरे से शाम तक की लम्बी यात्रा दिलीप को भी करनी पड़ती। गाय स्वेच्छापूर्वक जब कहीं थोड़ी देर को बैठती तब उतना ही अवसर राजा को भी बैठने को मिलता। इस यात्रा व्यायाम से राजा का स्थूल काय- शरीर कृश हो गया। आराम से दिन काटने की आदम लगातार चलने के व्यायाम में परिणत हो गई। स्वास्थ्य विज्ञान की दृष्टि में पैदल चलने की लम्बी यात्रा से अनेक रोगों की चिकित्सा मानी गई है। तीर्थ यात्रा को इस कारण भी पुण्य फलदायक माना गया है। राजा को वही करने का अवसर मिला।
अब भोजन का प्रश्न आया। गुरु वशिष्ठ ने नन्दिनी का दुग्ध भर पेट पीने का आदेश दिया था। सो भी बार-बार नहीं। गाय दो बार दुही जाती थी। राजा को भी प्रातः सांय दो बार ही गौ दुग्ध पीने को मिलता। जिससे वह हजम भी भली-भाँति हो जाता। पाचन में विकृति तब आती है, जब बार-बार कुछ न कुछ खाने की कुटेवें पल जाती हैं। चटोरे व्यक्ति इसी कुटेव से ग्रस्त होते हैं, कुछ न कुछ स्वाद की खातिर निगलते ही रहते हैं। फलतः पेट खराब हो जाता है। नियत समय पर दो बार ही भोजन किया जाय तो पाचन तन्त्र सुधारता है और छोटी बड़ी बीमारियाँ, अनायास ही दूर होती जाती हैं।
आयुर्वेद में गौ दुग्ध कल्प का बड़ा महात्म्य बताया गया है। उससे रक्तमाँस की शुद्धि, दुर्बलता का निवारण रोगों का अन्त जैसे कितने ही लाभों का उल्लेख है। दिलीप को जो उपचार बताया गया था। उसमें दो प्रयोग थे। एक दिन भर पैदल चलने की थकाने वाली यात्रा, दूसरे केवल दूध का दो बार आहार करना। यह दुग्ध कल्प हो गया। रानी को भी यही उपचार अपने एकाकी आवास में करना था। दोनों के शरीर में भरा हुआ विजातीय द्रव्य निकल गया। काया निर्मल हो गई। विकार ही तो शरीर की सामान्य व्यवस्था में बाधा उत्पन्न करते हैं। नियत अवधि पूरी होने पर राजा घर लौटे तो इच्छित आकाँक्षा पूर्ण होने का लाभ मिला। उन्हें तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ।
गाय के प्रति श्रद्धा भाव रखने से आध्यात्मिक उपचार भी हुआ। राजा नन्दिनी चराते समय उसकी रखवाली देखभाल भी करते थे। एक दिन श्रद्धा की परीक्षा लेने के लिए सिंह वेश में रुद्र आ गये और नन्दिनी पर झपटे। राजा ने धनुष बाण निकाला तो वह चिपक गया। दिलीप समझ गये कि सिंह वस्तुतः देवता रूप है। उनने कहा- आप मुझे खालें, किन्तु ऋषि की उस गौ को छोड़ दें। सिंह ने प्रसन्न होकर दोनों को छोड़ दिया। यह श्रद्धा की परीक्षा है। गौ दुग्ध कल्प की फलदायी साधना में गौ की सेवा ऐसी ही श्रद्धापूर्वक करने का विधान है।