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Magazine - Year 1988 - Version 2

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उच्चतम ज्ञान का उद्गम स्त्रोत - वेदान्त

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वेदान्त दर्शन में भारतीय तत्व ज्ञान की अनुपम व्याख्या की गयी है। दार्शनिक विचारधारा की इस शाखा में भारतीय चिन्तन का सार समाविष्ट है। इसमें अपने आप में पूर्ण समग्रता। वेदों के अन्तिम खण्ड ज्ञान-काण्ड में निहित 208 उपनिषदें ही इस चिन्तन धारा की गंगोत्री अर्थात् उद्गम स्त्रोत हैं। यहीं से चिन्तन की यह भागीरथी अजस्र स्रोतों में प्रवाहित होती हैं।

वेदान्त में निहित तत्व ज्ञान का एक “सार्वभौमिक सिद्धान्त” कि मूल सत्ता एक ही है। यही सारी सृष्टि का स्त्रोत और आधार है। यह सत्ता सार्वभौम और सर्वव्यापक है, इसी के प्रकाश में समस्त अस्तित्व उद्घाटित और प्रकाशित होता है। इसी परम सत्ता को ज्ञानी-मनीषी भिन्न नामों से पुकारते हैं। ईसाइयों का गाॅड, पारसियों का आहुरमज्द, यहूदियों का जेहोवा, मुसलमानों का अल्लाह या खुदा, बौद्धों का शून्य, आर्यों का ब्रह्म एक ही शाश्वत सत्य के विविध नाम है। वेदान्त की शिक्षा - “एकसद् विप्रा बहृधा वदन्ति” इन सबमें अद्भुत सामंजस्य स्थापित करती है। इसी परम सत्य को आधुनिक काल के चिन्तकों जैसे, शोपेनहावर ने इच्छा हर्बर्ट सपेसर ने अज्ञेय, स्पिनोजा ने सबस्टेन्शिया, प्लेटो ने शुभ आदि के द्वारा इंगित किया है। यह दिव्य सत्ता संसार में संव्याप्त होते हुए भी सब से परे है।

इसकी तत्व ज्ञान, सभी को अमृतस्य पुत्रः का संबोधन देते हुए सभी को परमात्म स्वरूप घोषित करते हुए बताता है “त्व स्त्री त्वं पुमानासि त्वं कुमार उत्तवा कुमारी”। त्वं जीर्णां दण्डेन वण्चसि त्वं जातो भावसि विश्वतोमुखः॥ अर्थात् विश्वतोमुख परम सत्ता ही स्त्री, पुरुष, बूढ़े, बच्चे आदि सभी स्वरूपों में अभिव्यक्त हो रही है। इसकी दृष्टि में न तो कोई छोटा है न बड़ा न छूआ–छूत जैसा संकीर्ण भाव है न स्त्री के प्रति उपेक्षित हीन भावना। बिना किसी भेदभाव के जीवन का उद्देश्य और उसकी प्राप्ति के मार्ग को दार्शनिक चिन्तन की यह धारा उद्घाटित करती है।

भगवान न तो किसी की रिश्वत से खुश होकर उसे सिंहासनारूढ़ करता है न ही किसी से नाराज होकर उसके लिए नर्क की व्यवस्था। स्वर्ग-नरक मनुष्य के अपने कर्मों के परिणाम है और किसी लोक लोकान्तर में न होकर यही पर हैं। महत्वाकांक्षी, धन-वैभव, इन्द्रिय लिप्साओं का गुलाम, विषयों के दास होकर हम स्वतः ही अपने लिए नरक का निर्माण करते हैं और दुखी होते कष्ट पाते हैं। सत्कर्मों में स्वयं को नियोजित कर आसक्ति, फलाकांक्षा से रहित उच्च उद्देश्यों में लगा, सत्य का जिज्ञासु उत्तम स्वर्गीय आनन्द का लाभ उठाता है। इस गुह्यतत्त्व को उद्घाटित करता हुआ वैदिक चिन्तन पुरुषार्थ हेतु प्रेरणा देते हुए निर्देश देता है -

“उद्धरेदात्मानपात्सानःनात्मानम् वसादयेत। आत्मे ह्यात्मनों, बन्धुरात्मैं, स्पुँरात्मनः॥

अर्थात् व्यक्ति को स्वयं प्रयत्नशील होना चाहिए। अपने उत्कर्ष का जिम्मेदार वह स्वयं है। उसके अपने ही सद्गुण मित्र और दुर्गुण शत्रु की भूमिका निभाते हैं। दूसरे शब्दों में मनुष्य अपना मित्र-शत्रु स्वयं है अन्य कोई नहीं।

पुरुषार्थ की प्रेरणा देते हुए यह “अभ्य” को सर्वोच्च गुण के रूप में मान्यता देता है। इसके अनुसार भय का कारण मात्र अज्ञान ही है, जैसे किसी को रस्सी में सर्प का भ्रमण हो जाय तो वह तब तक डरता रहेगा, जब तक यथार्थता से अवगत न हो। सत्य का ज्ञान सारे भयों को उसी प्रकार विनष्ट कर देता है जैसे कि प्रकाश अंधकार को। ज्ञान का रहस्य, भक्ति के रहस्य और कर्म के रहस्य को खोलते हुए उसमें अद्भुत समन्वय, असामंजस्य स्थापित करना, इस चिन्तन धारा की विलक्षणता है। ज्ञान का अवलम्बन लें, अर्थात् विवेक से निर्णित कर अपने स्वधर्म रूप कर्मों को अनासक्त भाव से, भावनापूर्ण हृदय से विराट पुरुष के लिए अर्थात् ‘उसकी अभिव्यक्ति रूप इस विश्व वाटिका को अधिकाधिक सुन्दर, परिष्कृत सुगढ़ बनाने पुष्पित, मंजरित करने में किया जाय तो यह उपासना का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप बन सकता है। छोटी-छोटी क्रियाएं भी भावना और विवेक के संयोजन से महत्वपूर्ण बन जाती है। इस प्रकार की उपासना करने के लिए न तो कही पलायन की आवश्यकता है न भागने की। संसार एक रंग-मंच की तरह है। इसमें अपनी भूमिका का निर्वाह भली प्रकार करें। यही सही ज्ञान है।

नीति-शास्त्र का सामान्य कथन है कि हम अपने पड़ोसी को उसी प्रकार प्यार करें जैसा कि स्वयं से। पर प्यार करें क्यों? नीति-शास्त्र के पास इसका कोई समाधान नहीं है। वेदान्त का चिन्तन उत्कृष्ट ढंग से इस गुत्थी को सुलझाते हुए कहता है - “तत्वमसि” अर्थात् समस्त में वही परम तत्व व्याप्त है। वेदान्त के इस भाव को मानने वाला पड़ोसी को इसलिए नहीं चाहेगा कि उसके ऊपर कोई अहसान कर रहा है अपितु पड़ोसी ही नहीं, सभी के लिए समान रूप से होगा। यही भाव “स्प्रिचुअल वननेस” आध्यात्मिक एकता का केन्द्रीय आधार है। इस दृष्टिकोण को स्वीकार करने वाला किसी को दुःख कष्ट पहुँचाने की तो दूर वह इस बारे में सोचेगा भी नहीं। वेदान्तिक ज्ञान विभिन्न मत मतान्तरों के बीच ही नहीं अपितु वास्तविक धर्म और विज्ञान के सच्चे स्वरूप के बीच समस्वरता व सामंजस्य का स्थापन करता है, जो आज की आवश्यकता है।

परम सत्ता एक ही है, चाहे हम किसी मत सम्प्रदाय को मानें। यही न केवल मनुष्यों, मनुष्येत्तर प्राणियों वनस्पतियों में जीवन का संचार करती है अपितु जड़ कही जाने वाली सृष्टि को भी गतिशील बनाती है। क्योंकि जड़ में भी माँलीक्यूलर एक्टीविटी, जैसे इलेक्ट्रान का घूमना आदि हलचल हरदम होती रही है। इसे भले ही लाइफ फोर्स, प्राण जैसे अन्यान्य नाम क्यों न दिए जाएं, पर इसका मूल कारण वैश्व चेतना ही है।

वेदान्तिक चिन्तन बौद्धों की तरह निषेधात्मक नहीं वरन् विधेयात्मक है। इस चिन्तन को समझकर-अपनाकर पूर्व काल में ऋषियों ने और आधुनिक काल में, सदाशिव ब्रह्मदेव, रामकृष्ण, विवेकानन्द, रामतीर्थ, अभेदानन्द आदि सन्तों ने अपने जीवन का समग्र विकास किया और परम सत्य से एकत्व पा सके।

प्रसिद्ध चिंतक एवं “पेरेनिय फिलासॉफी” के लेखक एल्डुअस हक्सले के अनुसार “वेदान्त परम सत्य की खोज का मार्ग प्रशस्त करता है। यह स्पष्ट करता है कि इस शाश्वत सत्य की खोज शुद्ध मन, और ऋतम्भरा प्रज्ञा के द्वारा संभव है। पूर्णता की प्राप्ति हेतु आवश्यकताओं की सुन्दर वेवेचना व्याख्या अन्यत्र दुर्लभ है।

क्रिस्तेफर ईशरउड अपने एक लेख “व्हाट वेदान्त मीन्स टू मी” में बताते है कि वेदान्त की शिक्षा ने मेरे हृदय में अभव का संसार किया। सही माने में मुझे ज्ञात हो सकता कि अपना सच्चा स्वरूप क्या है।

सुप्रसिद्ध लेखक जेराल्ड हर्ड बताते हैं कि भारतीय चिन्तनधारा का मुकुटमणि वेदान्त एक विचार विज्ञान है जिसमें, वैश्व सत्ता, अपनी वास्तविक प्रकृति एवं मानव के सच्चे स्वरूप को स्पष्ट किया गया है।

प्रख्यात विदुषी डॉ. मेरिआना मासिन वेदान्त की शिक्षाओं को हृदय, मन की शांति एवं पूर्णता की प्राप्ति के लिए अद्वितीय एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानती है। उनके अनुसार इसके विचार जीवन की गुत्थियों को सुलझाकर नूतन दिशा प्रदान करते हैं। इसके अंधविश्वास जैसा कुछ नहीं। चिन्तन की यह विधा, तर्क, नैयामिक दृष्टिकोण तथा अनुभूतियों पर आधारित है।

आँग्लदेश की रुथ फोलिंग का कहना है कि वेदान्त में निहित शिक्षाएं, आध्यात्मिक क्षेत्र के नक्शे की रेखाओं की तरह है जिन्हें उपनिषदों के ऋषियों ने बनाया है।

इस विचारधारा ने पश्चिमी विचारकों में क्रान्तिवादी, उन्हें इसकी यथार्थता का बोध हुआ। सुप्रसिद्ध विद्वान जेराल्ड साइकेस ने अपने एक लेख “टू रिंग इण्डिया एट ए डिस्टेंस” में बताया कि फिप्लिंग फ्रारस्टर, इमर्सन, काण्ट, ह्यूम ने उच्चतम सत्य के बारे में जो बताया है उसका उद्गम स्त्रोत वेदान्त ही है। पश्चिमी विचारकों में इसी के विचार प्रतिविम्बित हुए है।

निःसन्देह इसका महत्व असाधारण है। इसकी शिक्षाओं को अपने जीवन में, आचरण में अपनाकर व्यावहारिक रूप में क्रियान्वित कर कोई भी अपने वास्तविक स्वरूप को जो दिव्य हैं, उसे जानकर शाश्वत सत्य को एकत्व पाकर जीवन का परम लाभ अर्जित कर कृत-कृत्य हो सकता है।

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