
आनन्द बाँटें, - सन्तोष पायें!
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हाड़ माँस के टोकरे को मनुष्य नहीं कहते। जो दूसरों के दुःख में दुःखी नहीं होता, जो दूसरों की पीड़ा से व्यथित नहीं होता, जिसे पत्थर की तरह अपनी सीमा तक से ही संबंध है, जो यह नहीं सोचता है कि दूसरों की प्रगति और प्रसन्नता के साथ अपना भी कुछ संबंध है, उसे चेतन होते हुए भी जड़ ही समझना चाहिए। पत्थर दूसरों के दुःख, दर्द में शरीक नहीं होता, किसी भी प्रसन्नता में उसे प्रसन्नता भी नहीं होती। आदमी और पत्थर में कुछ तो अन्तर होना चाहिए।
कुछ चीजें ऐसी है, जिन्हें मिलजुल कर ही उपयोग करना चाहिए। जिनमें सुख दुःख भी है। एक कोने में मृतक रोगी, घायल, पीड़ित पड़े हों, और दूसरे कोने वाले उनकी और लापरवाही बरतें या हँसी खुशी की मौज मनायें, तो समझना चाहिए कि यहाँ आदमी नहीं रहते।
इस दुनिया में कोई ऐसा नहीं जिस पर बुरे दिन न आयें। बीमारी, लड़ाई, चोरी, कलह का सामना हर किसी को करना पड़ता है। बुरे दिनों में हर कोई चाहता है कि दूसरे लोग उसकी सहायता करें, कम से कम सहानुभूति तो अवश्य दिखायें किन्तु हितैषी, संबंधी कहलाने वाले तक उदासी दिखायें और मुँह मोड़ लें, तो उस दिन के लिए भी तैयार रहना चाहिए कि यह अकेलापन उनके लिए भी कष्टदायक होगा।
अपना पेट भरने के बाद जिन्हें इस बात की चिन्ता नहीं होती कि पड़ोसी भूखा और दुःखी है तो उन्हें इस बात के लिए भी तैयार रहना चाहिए कि उनकी तंगी में दूसरे लोग मुँह मोड़ लें और हँसी उड़ायें।
मनुष्य की इसलिए प्रशंसा नहीं होती कि वह धनवान या बुद्धिमान है, वरन् उसे इसलिए सराहा जाता है कि वह हिल-मिल कर रहता है। मिल बाँट कर खाता है और सुख दुःख में पड़ोसियों के साथ साझेदारी बरतता है। जो निष्ठुरता बरतता है, किसी से कोई संबंध नहीं रखता उसे इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए कि जब बुरे दिन आयें तब दूसरे उसका मजाक उड़ायें।
शरीर के अवयवों से कुछ शिक्षा लें। हाथ कमाते है तो उसे मुख को प्रदान करते हैं। मुँह पेट को देता है। पेट पचाने के बाद उससे बने रक्त को नस नाड़ियों द्वारा सारे शरीर को बाँट देता है। यदि यह बँटवारा न हो और हाथ ने जो कमाया है उसे मुट्ठी में ही बंद रखे तो सारा शरीर गड़बड़ा जायगा और मुट्ठी भी इस योग्य नहीं रहेगी कि उस कमाई को सदा सर्वदा अपने पास कैद रख सके।
मनुष्य ने इसलिए प्रगति की है उसने एक दूसरे की सहायता करना सीखा है। अकेला आदमी दूसरों की विशेषताओं का लाभ न उठा सकेगा। तब फिर उसे ऐसा रहना पड़ेगा मानों सुनसान में कैद भुगतनी पड़ी रही हो।
मनुष्य को ईश्वर का अनुदान आत्मा के रूप में मिला है। आत्मा उसे कहते है जो दूसरों के साथ मिलजुल कर रहे। अपना सुख दूसरों को बाँटें और दूसरों का दुःख हलका करने के लिए अपने हाथ बढ़ाये। कठिनाइयाँ ऐसी हैं जो दूसरों की सहायता के बिना हलकी नहीं हो सकतीं। इसी प्रकार खुशी भी ऐसी है कि उसमें किसी को सम्मिलित न किया जाय तो उसका आनंद चौथाई रह जायेगा।
संसार में आनन्द भी बहुत है, पर वह मिलता उन्हें है जो दूसरों की प्रसन्नता के साथ स्वयं प्रसन्न होना जानते है। दूसरों के दुःख दर्द में साथी बनने के बाद मनुष्य न केवल कष्ट पीड़ित की व्यथा हलकी करता है, वरन् स्वयं भी संतोष लाभ करता है। यह संतोष ऐसा है जिसे प्राप्त करने से आदमी खोता कम और पाता अधिक है।