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Magazine - Year 1988 - Version 2

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Language: HINDI
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अणु में विभु, लघु में महान!

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काया में विद्यमान उस विराट का अनुमान करना ही तो इसके लिए स्थूल जगत पर एक दृष्टि आवश्यक है। इससे सहल ही अन्दाज लगाया जा सकता है कि यह ब्रह्माण्ड कितना विशाल है। हम जिस निहारिका के अंग है उसे देवयानी कहा गया है। प्रत्येक निहारिका में लाखों करोड़ों सौरमण्डल है। हरेक के अनेक ग्रह, उपग्रह है। हम जिस सौर-मण्डल में रह रहे हैं, उसमें सूर्य को छोड़कर कुल नौ ग्रह है - बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस, नेपच्यून, प्लूटो। ये सभी ग्रहपति सूर्य की परिक्रमा करते हैं। इनमें से प्रत्येक के पुनः कई-कई उपग्रह है। पृथ्वी का एक, मंगल के दो, बृहस्पति के 16, शनि के 16, यूरेनस 5, प्लूटो 1, नेपच्यून 2 इस प्रकार अपने सौरमंडल में कुल 43 चन्द्रमा है जो अपने ग्रहों के ईद-गिर्द परिभ्रमण करते हैं। सूर्य से इनकी दूरियाँ क्रमशः 297, 1090, 1521, 2491, 8957, 15070, 30040, 45370, 73750 लाख कि.मी. है। अर्थात् मोटेतौर पर अपने सौर मण्डल का विस्तार लगभग 73750 लाख वर्ग कि.मी. माना जा सकता है। यह तो सिर्फ अपने सौरमंडल की एक सामान्य सी झलक-झाँकी हुई। इस प्रकार के अनेकानेक सौर परिवार देवयानी में है। देवयानी जैसी अरबों निहारिकाओं के मिलने से आकाश गंगा बनती है। ब्रह्माण्ड में ऐसी अगणित आकाश गंगाएं हैं। अपने सूर्य जैसे करीब 500 करोड़ ताराओं के सौर-मण्डल तथा अकल्पनीय विस्तार वाले धूल एवं गैस वर्तुलों के मेघ मिलकर एक आकाश गंगा बनाते है। ऐसी 10 करोड़ से भी अधिक आकाश गंगाओं व उनके मध्य के अनन्त आकाश को एक ब्रह्माण्ड कहा गया है।

अपनी आकाश गंगा ध्रुव द्वीप की 19 आकाश गंगाओं में से एक है। इसमें लगभग एक अरब सूर्य है, जिसके पृथ्वी जैसे असंख्य ग्रह-उपग्रह हैं। इन ताराओं में से कई तो अपने सूर्य से अनेक गुना बड़े है। व्याध तारा सूर्य से विस्तार में 21 गुना अधिक है। ज्येष्ठा तो इससे भी कई गुना बड़ा है। उसका विस्तार इतना अधिक है कि उसमें लगभग 700 खराब पृथ्वी समा सकती है। अंतरिक्ष में ऐसे द्वीपों की संख्या भी कोई कम नहीं है। माउण्ट पैलोमर में लगी 200 इंच व्यास वाली विशाल दूरबीन से अनन्त अंतरिक्ष में अब तक कम से कम ऐसी एक अरब आकाश गंगाएं खोजी गयी है। मूर्धन्य अमेरिकी खगोलविद् ई0पी0 हब्बल के अनुसार आकाश गंगाएँ इससे भी कई गुना अधिक अस्तित्व में हो सकती हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि परिमित सामर्थ्य वाली दूरबीनों से अपरिमित आकाश का पर्यवेक्षण संभव नहीं हो सकता। उनका विश्वास है कि अबतक अंतरिक्ष की जितनी ढूंढ़ खोज की जा चुकी है, वह विराट् का एक नगण्य सा भाग है। इससे कई गुना अधिक अविज्ञात के गर्त में अभी भी पड़ा हुआ है। जिसका अन्वेषण प्रायः असंभव है। इसी से विराट् ब्रह्माण्ड की विशालता का अनुमान लगता है। यदि इन आँखों से अपने ही सौर मण्डल की हलचलें देख लें, तो हम चकराये बिना न रहेंगे, इससे भी करोड़ों गुने विराट् के दिग्दर्शन की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती।

आत्मवेत्ताओं का विचार इससे भिन्न है। उनका कहना है कि यह बात भले ही भौतिक जगत के लिए शत-प्रतिशत सही हो, किन्तु आत्मिकी के क्षेत्र में ऐसी कोई बात नहीं, जो असंभव प्रतीत हो। वे काया को ब्रह्माण्ड का लघु-संस्करण मानते हैं और कहते हैं कि ब्रह्माण्ड में जो-जो संरचनाएं है वह सब कुछ इस काया में देखी जा सकती है। मगर वह सब इस शरीर में माइक्रोफिल्म की तरह है। जिस प्रकार माइक्रोफिल्म में अंकित चित्रों और अक्षरों को सीधे आँखों द्वारा देख-समझ नहीं पाती। इसके लिए ज्ञान-चक्षु, दिव्य-चक्षु की आवश्यकता पड़ती है, जिसे पराक्रमपूर्वक विकसित करना पड़ता है।

ऐसी बात नहीं कि आत्मविदों का यह कथन मात्र कपोल-कल्पना और चर्चा भर है, वरन् इसमें सच्चाई भी है। हमारे धर्म ग्रन्थों में इसकी अनेक साक्षियाँ उपलब्ध है। रामचरित मानस में इस संदर्भ में दो आख्यायिकाएं हैं।

माँ कौशल्या अपने पुत्र राम को पय-पान कराने की इच्छा से शिशु-ग्रह में प्रवेश करती है। राम सोते हुए पाकशाला में बैठे अन्न ग्रहण करते दिखाई देते हैं। कौशल्या को भय, भ्रम और विस्मय होता है। वह फिर भागकर शिशुगृह पहुँचती है, तो वहाँ राम पूर्ववत् निद्रालीन दिखाई पड़ते है। आश्चर्य से माता का सिर चकरा जाता है। उसी अवस्था में भगवान राम अपना विराट् रूप दिखाते हैं - अगणित ब्रह्माण्ड, उनके अपने लोकपाल, दिग्पाल, खरबों नक्षत्र, अरबों लोक, सर्वत्र जीवन-पालन-प्रगति, सर्वत्र मरण और सर्वत्र प्रलय के विनाशकारी दृश्य।

कौशल्या परेशान हो उठती है। राम अपनी माया समेट लेते है। जननी को पिण्ड में ब्रह्माण्ड की उपस्थिति और विराट् ईश्वरीय सत्ता का बोध हो जाता है फिर वे सुस्थिर चित्त अपने कर्त्तव्य पालन में निरत हो जाती है।

दूसरे प्रसंग में काकभुशुण्डि को इसका दिव्य-दर्शन हुआ। किसी ने उनसे बताया कि राम ईश्वरीय-सत्ता के प्रतीक-प्रतिनिधि हैं, आपको उनके दर्शन करना चाहिए। इसी इच्छा से वे अयोध्या पहुँचे। मुँडेर पर बैठे-बैठे वे राम को आँगन में सामान्य बालकों जैसी क्रीड़ा करते, खाते-पीते, हँसते-बोलते देखकर भ्रमित हो जाते हैं। सोचते है - यह कैसा अवतार, जो साधारण बालकों जैसी अठखेलियाँ करें? राम उनकी मनःस्थिति भाँप लेते हैं और मुँह फाड़कर उन्हें उदरस्थ कर लेते हैं। उनके उदर में काकभुशुण्डि जी को विराट्-विश्व के दर्शन होते हैं। उस अनुभूति का वर्णन वे बड़े ही सुन्दर ढंग से गरुड़ जी से करते हैं “हे गरुड़ जी! मैंने राम के मुँह में अनेक ब्रह्माण्ड देखे, अनेक लोक, अनेक रचनाएं, अनेक शक्तियाँ, देवी-देवता, कोटि-कोटि तारागण, सूर्य-चन्द्र, अगणित भूखण्ड, सागर, सर, वन और तरह-तरह की सृष्टियाँ। जो कुछ इस पृथ्वी पर नहीं है, वह सब भी देखा, जिसका वर्णन करना भी कठिन है। एक-एक ब्रह्माण्ड में मैंने सौ-सौ वर्ष बिताये। ऐसे अनेक ब्रह्माण्डों में मैं कुल दो घड़ी में घूम आया। उस विराट को देखकर मैं अत्यन्त भ्रमित हो उठा हूँ।”

श्रीकृष्ण ने ऐसा ही विराट स्वरूप अपनी माँ यशोदा तथा सखा अर्जुन को भी दिखाया था और लोगों को बता दिया था कि यदि व्यक्ति चाहे, तो इस व्यष्टि सत्ता में ही उसे समष्टि के दर्शन हो सकते हैं, पर इसके लिए दिव्य दृष्टि चाहिए। हमारी स्थूल आँखें उतनी समर्थ नहीं कि उस विराट् को देख सकें। इसीलिए भगवान ने अर्जुन को यह कहते हुए दिव्य चक्षु प्रदान किया कि -

न तु माँ शक्यसे द्रष्टफमनेनैव स्वचक्षुषा। दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य में योगमैश्वरम्॥

अर्थात् हे अर्जुन! तू मेरे विराट स्वरूप को इन सामान्य आँखों से नहीं देख सकता। इसलिए मैं तुझे दिव्य चक्षु प्रदान करता हूँ। उससे तू मेरे विस्तार, प्रभाव और योग शक्ति को देख। सचमुच, इसके बाद अर्जुन ने जो कुछ भी देखा उससे हतप्रभ रहे गये। एक अन्य अवसर पर महाभारत से पूर्व जब दुर्योधन श्रीकृष्ण को बाँधने चले थे, तब भी उनने अपने विराट् स्वरूप का प्रदर्शन किया था, जिसे देख वह चकरा गये थे।

इन आख्यायिकाओं में जिस तथ्य की ओर संकेत किया गया है, वह है ब्रह्माण्ड की विराट् संरचना इतनी बड़ी रचना को और उनके नियन्ता को स्थूल आँखों से देख सकना संभव नहीं। इसलिए ज्ञान की परिधि की विराट् तक चौड़ा तो किया जाय पर अन्ततः उस मूल चेतना को मानवीय अस्तित्व के रूप में स्वीकारा जाय। विराट् को देख सकना संभव नहीं, पर अणु को, आत्मा को देख सकना शक्य है। इस आवश्यकता को पूरा कर लिया जाय, तो अणु में ही विराट् के दर्शन और अनुभूति संभव है। इतना ही नहीं, साँसारिक जीवन में कर्तव्य-कर्म से बँधे रह कर भी उस मूल सत्ता को प्राप्त करने की आकाँक्षा को पूरा किया जा सकता है पर इसके लिए व्यक्तित्व में उत्कृष्टता ओर कर्तव्य में परमार्थ परायणता का एक आवश्यक अनुबन्ध पूरा करना पड़ता है। यदि यह सम्भव हो सके स्वयं को सामान्य स्तर से कुछ ऊँचा उठाकर भावनाओं को उच्चस्तरीय बनाया जा सके तो इसी काय-पिण्ड में विशाल ब्रह्माण्ड की अनुभूति की जा सकती है। मानव जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य भी यही है।

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