
व्यक्ति निर्माण - उत्कृष्ट वातावरण पर निर्भर
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
व्यक्ति निर्माण एवं समाज निर्माण के लिए ऐसी शिक्षा-प्रणाली और वातावरण व्यवस्था की आवश्यकता है जिसके प्रभाव से अनुप्राणित होकर पिछड़े हुए लोग ऊँचे उठ सकें और नई पीढ़ी को उपयुक्त दिशा-धारा का सम्बल मिल सके।
वातावरण के प्रभाव और सत्संग-कुसंग की प्रशंसा-निन्दा से शास्त्र भरे पड़े हैं। सत्संग की महिमा का तो इतना भावनापूर्ण उल्लेख है जिसे पढ़ने सुनने पर अत्युक्ति की गंध आती है, पर विचार करने पर उस प्रतिपादन को तथ्य पूर्ण ही माना जायगा। इतिहास में इस बात के अनेकों प्रमाण है कि सामान्य मनःस्थिति और परिस्थिति के व्यक्ति किन्हीं महामानवों के उच्चस्तरीय संपर्क में आकर तेजी से अपने व्यक्तित्व को समुन्नत और परिष्कृत करते चले गये और प्रगति के उच्च शिखर पर जा पहुँचे। यदि उन्हें वैसा अवसर और वातावरण न मिलता तो संभवतः वे उसी स्थिति में पड़े रहते जिसमें कि उनके अन्य साथ कुटुम्बी निर्वाह करते हुए जिन्दगी के दिन पूरे कर गये। इस प्रकार ऐसी घटनाओं की भी कमी नहीं है जिनमें अच्छे, खासे-भले, चंगे मनुष्य हेय वातावरण के दबाव से कुसंग में फँसे और क्रमशः गिरते-गिरते पतन के भयंकर गर्त में जा गिरे। नई उम्र के किशोर और युवक प्रायः इसी कुचक्र में फँसकर अपना भविष्य अंधकारमय बनाते देखे गये हैं। आवारागर्दी, गुण्डागर्दी, उच्छृंखलता, चोरी, नशेबाजी जैसी बुरी आदतों में भले घर के बालकों को फँसते और अपना सर्वनाश करते बहुधा देखा जाता है।
ऐसा क्यों हुआ है? इसका पता करने पर यही बात सामने आती है कि कुसंग के फौलादी शिकंजे में फँसकर वे बाज द्वारा दबोचे हुए कबूतर की तरह निराश मनःस्थिति में कही से कहीं घिसटते चले गये हैं। नारद के संपर्क से ध्रुव, प्रहलाद, पार्वती, सावित्री जैसे अनेकों नर-नारियों ने ऐसी प्रेरणाएं पाई जिनके सहारे वे असामान्य बन गये। अंगुलिमाल, अजामिल, अम्बपाली जैसे ओछे जीवन भी किन्हीं प्रतिभाओं के प्रभाव से अपने में पूर्णतया परिवर्तन करके निकृष्ट से उत्कृष्ट बनने में समर्थ हुए थे। भगवान बुद्ध के संपर्क में आकर असंख्यों को देवमानव बनने का अवसर मिला। गाँधी जी की निकटता और घनिष्ठता ने कितनों को युग पुरुष बनाया। वे अपने को धन्य बनाने और उस समय को बदलने में सफल हुए। अरस्तू के द्वारा सिकन्दर का, चाणक्य द्वारा चन्द्रगुप्त का, समर्थ गुरु रामदास द्वारा शिवाजी का, रामकृष्ण परमहंस द्वारा विवेकानन्द का, विरजानन्द द्वारा दयानन्द का निर्माण हुआ था। उनमें अपनी मौलिक प्रतिभा भी थी, पर खराद ने से हीरे का मूल्य निखरता है।
संसार के विभिन्न क्षेत्रों का पर्यवेक्षण किया जाय तो प्रतीत होगा कि क्षेत्रीय विशेषता का वहाँ के पदार्थों और प्राणियों पर कितना प्रभाव पड़ता है। ठंडे देशों के निवासी गोरे रंग के सुदृढ़ और दीर्घजीवी होते हैं, परन्तु जहाँ गर्मी अधिक पड़ती है, वहाँ लोगों के स्वास्थ्य गिरे, शरीर दुर्बल और रंग काले पाये जाते हैं। यही बात वनस्पतियों के संबंध में भी है। जड़ी-बूटियाँ वहीं है, पर विभिन्न क्षेत्रों में उगाये जाने पर उनके गुणों में न्यूनाधिकता उत्पन्न हो जाती है। हिमालय क्षेत्र में गंगातट पर उगी ब्राह्मी की तुलना में मैदानी क्षेत्रों में नहर, चरागाहों के किनारे उगी हुई ब्राह्मी के गुणों में भारी अन्तर पाया जाता है। यही बात अन्यान्य वनौषधियों के संबंध में भी है।
मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान में पाया कि किसी स्थान विशेष के वातावरण का जीवों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए हिमालय की तराई में हरने वाले पहाड़ियों में अपराधवृत्ति कम पाई जाती है दूसरे दुश्चरित्र व्यक्ति भी यदि इस क्षेत्र में पहुँच जायँ तो उनकी विचारणाएं-भावनाएं भी बदलती देखी गयी है। इसका प्रमुख कारण उस क्षेत्र में चिरकाल से निवास करने वाले तपस्वी ऋषियों के द्वारा विनिर्मित पवित्र एवं प्रखर वातावरण को माना गया है। सुप्रसिद्ध विद्वान जान स्टुअर्ट मिल ने भी अपनी पुस्तक “प्रिंसिपल आफ पाँलिटिकल इकोनाँमी” में लिखा है कि स्थान-स्थान पर विभिन्न जातियों एवं समुदायों में रहने वाले व्यक्तियों के स्वभाव, मान्यताओं, आकाँक्षाओं एवं क्रियाकलापों में भारी अन्तर दिखाई पड़ता है। कही के निवासी अधिक बहादुर व साहसी होते हैं तो कही के खूँखार। किन्हीं-किन्हीं जातियों में चरित्रनिष्ठा अधिक दिखाई पड़ती है। जापान, इजराइल, डेनमार्क आदि देशों के निवासी अधिक परिश्रमी होते है। सरहदी पठानों का खूँखारपन प्रसिद्ध है। मिल के अनुसार स्थान विशेष के निवासियों में ऐसी विशेषताएं उस स्थान के वातावरण के प्रभाव का ही परिणाम है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जूलियन हक्सले ने इस विशेषता को ‘साँस्कृतिक विशेषता’ की संज्ञा दी है और कहा है कि इस विशेषता को कोई भी उस वातावरण में रहकर प्राप्त कर सकता है।
मनोवैज्ञानिकों एवं शिक्षा शास्त्रियों ने अनेकानेक प्रयोगों के द्वारा यह सिद्ध कर दिखाया है कि व्यक्ति के ऊपर वातावरण का विशेष प्रभाव पड़ता है। श्रेष्ठ एवं प्रेरणादायक वातावरण से व्यक्तित्व में निखार आता है, जबकि दूषित वातावरण के प्रभाव से होनहार, प्रतिभावान एवं सच्चरित्र व्यक्ति भी पशुतुल्य हेय जीवन जीते देखे गये हैं। समय-समय पर जंगली जानवरों के साथ पकड़े गये बालकों के जीवन स्तर को देखकर इस तथ्य की वास्तविकता को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।
फ्राँस के एविरोन नामक जंगल में कुछ शिकारियों ने सन 1977 में एक बारह वर्षीय बालक को बंदरों के साथ पेड़ों पर उछलते-कूदते देखा तो उसे पकड़कर वे पेरिस ले आये और वहाँ के प्रसिद्ध मनःचिकित्सक डॉ. ज्याँइनार्द के सुपुर्द कर दिया। उन्होंने उसका नाम विक्टर रखा तथा लम्बे समय तक उसका प्रशिक्षण किया। विक्टर चार वर्ष तक जीवित रहा लेकिन तब तक उसे मात्र खाने और वस्त्र पहनने जितना ही सिखाया जा सका। इसी तरह सीरिया के मरुभूमि में हिरनों के झुंड के साथ रहते हुए 1946 में एक बालक पकड़ा गया था। उस पर भी प्रशिक्षण के सभी प्रयास विफल रहे थे।
डॉ. ज्याँ इनार्द के अनुसार प्रस्तुत समय के वातावरण में विभिन्न स्तर के भरते जा रहे प्रदूषण में यदि इसी तरह अभिवृद्धि होती रही तो आने वाली पीढ़ी को इसके दुष्परिणाम निश्चय ही भुगतने पड़ेंगे और तब वे जंगली जानवरों के साथ पकड़े गये बालकों की तुलना में थोड़ा बहुत ही सभ्य कहलाने योग्य होंगे। इसी से मिलती-जुलती मान्यता मूर्धन्य वैज्ञानिक डॉ. क्रुक शैंक की है। उनका कहना है कि मनुष्य अपनी संतति या भावी पीढ़ी को अपनी प्रवृत्तियाँ एक अचल सम्पत्ति के रूप में सौंपता है। भली-बुरी जैसे भी वे रहती है, वातावरण उन्हें कई गुना बढ़ा देते हैं और यही उनके उत्थान पतन का कारण बनती है। व्यक्तित्व को सुधारने के लिए शिक्षणपरक उपायों की उपयोगिता को मानते हुए भी वे कहते हैं कि यदि प्रवृत्तियों की दृष्टि से भी मनुष्य को परिष्कृत बनाना है तो यह कार्य उनके जन्मदाताओं को प्रजनन की बात सोचने के पूर्व अपने जिन के सुधार-परिष्कार के साथ ही अपने आसपास के वातावरण को भी श्रेष्ठ बनाने के रूप में आरम्भ करना चाहिए। इतना ही नहीं यह कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी चले तभी ऐसा संभव है।
श्रेष्ठ वातावरण के निर्माण में सामूहिक उपासना, साधना महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्राचीन काल में सामूहिक प्रार्थना, उपासना एवं यज्ञ आयोजनों आदि का बाहुल्य था। परिशोधित वातावरण के कारण जन-जीवन उत्कृष्टता की चरम सीमा पर था। सभी का जीवन आनन्दमय था। उस काल में धार्मिकता ही नैतिकता की पर्यायवाचक थी। अब परिस्थितियाँ बदल गई है। साम्प्रदायिकता बहुमुखी हो गई है और परस्पर विरोधी भी। ऐसी दशा में वातावरण बनाने के प्रश्न पर विचार करने वालों को नैतिकता और सामाजिकता की आस्थाओं को ही सामूहिक सम्मिलन का माध्यम बनाना होगा। प्राचीन धर्म तत्वों का आधार समझदारी, ईमानदारी और जिम्मेदारी की भावनाओं में सन्निहित समझा जा सकता है। इसके लिए स्काउटिंग भावना को साथ लेकर हमें सामूहिक आयोजन की संरचना प्रेरणाप्रद वातावरण बनाने के निमित्त करनी चाहिए।