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Magazine - Year 1988 - Version 2

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सत्य और अहिंसा के परिपालन की सीमा!

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सभी शास्त्रकारों ने सत्य और अहिंसा को धर्म का प्रधान स्वरूप माना है। किन्तु इन दोनों ही तथ्यों का मोटा अर्थ करने से अनेकों शंकाएं उठ खड़ी होती है। अतएव वे तनिक गहराई तक उतरकर उनके भावार्थ और व्यवहार को अधिक अच्छी तरह समझने की आवश्यकता होगी।

सत्य का मोटा अर्थ सच बोलना होता है। जो बात जैसी सुनी या समझी है, उसे उसी रूप में कह देना इसे सत्य–भाषण कहा जा सकता है। पर यह सत्य का एक बहुत छोटा अंश है। सत्याचरण इतने तक ही सीमित नहीं है। कभी-कभी सत्याचरण और सत्य–भाषण के बीच विरोध, विपर्यय भी खड़ा होता है और यह विचारना पड़ता है कि दोनों का साथ-साथ निर्वाह संभव भी है या नहीं।

चोर, डाकुओं, तस्करों, हत्यारों, षडयंत्रकारियों का पता लगाने के लिए सरकारी गुप्तचर विभाग को अपना छद्म परिचय देना पड़ता है और भेद निकालने के लिए भूमिका कई प्रकार से बनानी पड़ती है। शत्रु देश आक्रमण करने वाला हो और अपनी रणनीति का - साज सज्जा का पता लगाना चाहता हो ता बात ज्यों की त्यों नहीं बताई जा सकती। बता देने पर अपने देश का सर्वनाश हो जायगा और अगणित लोगों को धन-जन की हानि उठानी पड़ेंगी।

एक कथा आती है कि किसी कसाई के हाथ से छूटकर गाय भागती चली गई। पीछे कसाई ढूंढ़ता हुआ आ रहा था। उसने एक संत को कुटी के आगे बैठा देखा और पूछा आपने हमारी गाय इधर आती हुई देखी है क्या? संत क्या जवाब देते? यदि सच बोलते तो गाय की हत्या होती है और झूठ बोलते है तो पाप लगता है। इस धर्म संकट में उनने चतुरता से काम लिया। कहा “जिसने देखी है वह बोलता नहीं और जो बोलता है उसने देखी नहीं।” उनका तात्पर्य था कि आँखों ने देखी है, पर वे बोलती नहीं और जो जीभ बोलती है उसने देखी नहीं। इस कथन का तात्पर्य कसाई समझ न सका आगे बढ़ गया। गाय संत की कुटिया की पीछे ही चर रही थी। गाय के प्राण भी बच गये और वाक-चातुरी से असत्य कथन भी बच गया। भगवान कृष्ण के परामर्श से युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य ने पूछने पर कह दिया था कि “अश्वत्थामा मर गया” पीछे बहुत धीमी आवाज से कह दिया था। “नरोवा कुंजरोवा” यह तो इस नाम का हाथी मरा है या मनुष्य। जयद्रथ वध में श्री कृष्ण ने दिन डूब जाने पर भी नकली प्रकाश में रात को दिन बना दिया था। दुष्ट का हनन और सज्जन का संरक्षण होने से वह असत्य नहीं ठहराया गया।

कई व्यक्ति स्वयं व्यभिचारी होते हुए भी पत्नी से सत्य की दुहाई देकर उसकी गलती उगलवा लेते हैं और पीछे उसे असाधारण त्रास देते हैं। इसकी अपेक्षा तो वह बात को छिपा जाती तो दाम्पत्य जीवन के दोनों भागीदारों का जीवन शान्ति-सन्तोष का बना रहता।

विग्रह, कलह, अशान्ति, असंतोष, वैमनस्य उत्पन्न करने वाले, सत्य को भी असत्य को बुरा बताया गया है। वस्तुतः सत्याचरण के अंतर्गत न्याय और नीति की जीवन आता है। इसमें परिणाम को ध्यान में रखते हुए कुछ आगा पीछा करने की पूरी-पूरी गुंजाइश है। अकारण गप्पेबाजी में निंदा-चुगली में दुष्परिणाम के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले असत्य का ही निषेध है।

इसी प्रकार अहिंसा की व्याख्या और प्रयोग नीति अपनाने में भी विवेकशीलता को ध्यान में रखना होगा। वनस्पति में जीवन में होना सिद्ध हो चुका है। पानी में भी सूक्ष्म जीवाणु होते हैं और हवा में भी। इस सब में से किसी की भी हिंसा न होने देना तभी संभव है जब अपना जीवन समाप्त करना हो। यहाँ इतना ही संभव है कि जीवधारी संवेदनशील प्राणियों की ऐसे ही शिकार आदि विनोद के लिए अथवा माँसाहार के लिए प्राणी-वध न किया जाए।

शिर में जुएँ, खाट में खटमल, अन्न में घुन, नाली के कृमि, घर में बैठे साँप बिच्छू यदि न मारे जायँ तो फिर अपनी खैर नहीं। बढ़ने मक्खी-मच्छरों के लिए फिनायल चूना आदि का छिड़काव वर्जित नहीं है। बीमारियों के भी कीटाणु होते हैं, उन्हें औषधि से मारना पड़ता है। रास्ते में अनजाने ही कितने ही चींटी, कीड़े आदि मरते हैं। खेत की सिंचाई करने पर ढेरों दीमक मर जाती है, चूल्हा जलाने में भी कुछ न कुछ प्राणी मरेंगे। इन्हें बचाने का प्रयत्न करना अपने को संकट में डाल लेना है। अनिवार्य अथवा अनजान में होने वाली हिंसा को रोका नहीं जा सकता।

शत्रु का अपने देश पर आक्रमण हो तो उससे लड़ने में अपने अथवा शत्रु के पक्ष का रक्तपात होगा ही। चुप बैठे रहने पर तो जापान पर गिराये गये बमों की तरह अपना सब का सफाया जो जायगा। कहते है कि मिश्र के पिरामिड बनने में एक लाख करीब गुलामों को कोड़े खाते मरना पड़ा था। बिना प्रतिरोध के नृशंसों के ऐसे ही असंख्य अत्याचार होते रहेंगे। तब अहिंसा क्या काम देगी?

गाँधी जी के ‘करो या मरो’ आन्दोलन में अहिंसा निर्वाह नहीं हो सका। दोनों ही पक्ष के ढेरों आदमी मरे थे। अहिंसा नीति हो सकती है पत्थर की लकीर नहीं। बराबरी का मुकाबला न होने पर शस्त्र बल से लड़ा जाने वाला युद्ध सफल नहीं हो सकता था। ऐसी बेबसी में असहयोग, विरोध, सत्याग्रह जैसे ही उपाय कम जोखिम के और शत्रु को हैरान करके दबाने वाले हो सकते थे। यही उपाय अमेरिका की नीग्रो लूथर किंग ने भी अपनाया था। नीति की दृष्टि से यह साधना उपयुक्त थी, क्योंकि कुछ महीने के लिए जेल जाने के लिए हजारों सत्याग्रही मिल गये, पर हिंसा पर उतारू होने पर जो गोलीकाण्ड होते उसके लिए मुट्ठी भर लोग ही मुश्किल से तैयार होते। गाँधी जी के असहयोग सत्याग्रह आन्दोलन को उनकी नीति और धर्म का समन्वय माना गया। यों बीमारी में तड़पते हुए बछड़े को जहर की सुई लगा देने के लिए गाँधी जी ने ही डॉक्टर को परामर्श दिया था।

निजी जीवन में अहिंसा का पालन उस सीमा तक हो सकता है, जहाँ किसी भूले, अनजाने या कमजोर से वास्ता पड़े। खाने के लिए अथवा देवता पर चढ़ाने के लिए पशुबलि का निषेध किया जा सकता है। यह व्यक्तिगत जीवन को घरेलू नीति है। इसका यथासंभव अधिकाधिक पालन करना चाहिए। किन्तु यदि घर पर डाकू चढ़ आवें और बहिन, बेटियों से बलात्कार करने लगें अथवा अत्याचारपूर्वक धन का सामान का अपहरण करें तो उसका सामना ही किया जाना चाहिए। इसमें चाहे हिंसा ही क्यों न अपनानी पड़े।

सामान्यतया निजी व्यवहार में प्रेम का - उदारता का परिचय देना चाहिए। यही अहिंसा धर्म की मर्यादा है। उसे भी पत्थर की लकीर मान लेने से अनीति का त्रास सहना पड़ेगा और अत्याचारी का हौंसला बढ़ेगा। वह ऐसे-ऐसे अनेकानेक कुकृत्य करने के लिए उतारू हो जायगा।

अत्याचार करने की तरह अत्याचार सहना भी पाप है। यही एक नीति वचन सही है तो फिर अत्याचारी का सामना कैसे किया जाय, हाथ जोड़ने, गिड़गिड़ाने से, तो अहिंसक पशु तक नहीं रुकते, फिर मनुष्य कैसे मानेगा जिसके समुदाय में अधिकाँश निष्ठुर और निर्दयी ही भरे पड़े है। पुलिस, कचहरी और जेल का भय न हो तो दिन–दहाड़े कोई भी, किसी का भी, कत्ल कर सकता है। सामन्ती शासन के दिनों यही होता भी रहा है। डाकुओं के गिरोह बनाकर उनका सरदार राजा जागीरदार बन जाता था और चाहे जहाँ हमला करके सैकड़ों नव युवतियों, नव युवकों को गुलाम बना ले जाता था। विरोध करने पर कत्लेआम मचाता था। प्रजा के धन की लूट, लूट नहीं मानी जाती थी। ऐसी स्थिति में बदला लेने और दाँत खट्टे करने की छापामार नीति भी न अपनाई जाय तो आखिर क्या किया जाय? छत्रपति शिवाजी ने यही नीति अपनाई थी।

अहिंसा की अति, कायरता बन जाती है। वह मनुष्य को क्षमाशील, भाग्यवादी, भक्तजन बना देती है। उससे अपना और अपने समूचे समाज का अहित ही होता है। दुष्टता को इससे पोषण ही मिलता है।

सत्य और अहिंसा दोनों ही सराहनीय है। सामान्य जीवन में स्वभावतः इनका उपयोग किया ही जाना चाहिए। किन्तु यह भी समझा जाना चाहिए कि यह पत्थर की लकीर नहीं है। आपत्तिकाल में इनका उल्लंघन भी अपवाद स्वरूप किया जा सकता है।

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