
नियंता की कर्मफल व्यवस्था
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मानव जीवन विचित्रताओं का एक ऐसा एक समुच्चय है जिसे देखकर कारण समझ न पड़ने पर हतप्रभ होकर रह जाना पड़ता है। ऐसी अनेकों अनबूझ पहेलियां जन्म से मरण तक मनुष्य के पल्ले बंधती रहती हैं। सामान्य बुद्धि उन्हें समझ नहीं पाती। समझ नहीं आता कि एक-सी परिस्थितियां, समान साधन होते हुए भी एक ही माता-पिता की दो संतानें भिन्न प्रकृति की क्योंकर विकसित होती चली जाती हैं। बौद्धिक दृष्टि से एक अत्यंत विकसित पाया जाता है तो एक मंदबुद्धि होता देखा जाता है। एक भाव-संवेदना की दृष्टि से कोमल हृदय का तो दूसरा निष्ठुर प्रकृति का देखा जाता है। एक कायर-भूरू मनःस्थिति का बन जाता है तो एक निडर, साहसी, संतुलित मनःस्थिति का।
वर्तमान में मनुष्य जीवन के विकास के हर घटनाक्रम को मनीषियों ने पूर्वजन्म के प्रयासों की फलश्रुति माना है। भारतीय अध्यात्म का मर्म समझकर मंतव्य व्यक्त करने वाले दार्शनिकों का मत है कि कर्मों के सूक्ष्म संस्कार जीवात्मा के साथ मरणोपरांत भी बने रहते हैं। इन्हीं संस्कारों को बाद के जन्मों में विकसित होते देखा जा सकता है। वे ही जन्मजात विशेषताओं के रूप में प्रकट होते हैं। मनुष्य की प्रकृतिगत विशिष्टताओं के गठन में आनुवंशिक कारणों का जितना योगदान होता है, उससे कम पूर्वजन्मों के अर्जित सूक्ष्म संस्कारों का नहीं होता। जन्मजात प्रतिभा के उदाहरण उसी सत्य के प्रमाण, विशिष्टताएं, जिनकी संगति न तो आनुवंशिक कारणों से बैठती है, न शैक्षणिक प्रयासों से और न बाह्य परिस्थितियों के प्रभाव से, वे भी वस्तुतः सूक्ष्म संस्कारों की ही प्रतिक्रियाएं होती हैं, जो स्वभाव का अंग बनी रहती हैं। व्यवहारविज्ञानी, मनःशास्त्री स्वभावगत इन विशेषताओं का कारण जब वातावरण में पैतृक गुणों में ढूंढ़ने का प्रयास करते हैं, तो कितनी ही बार असफलता हाथ लगती है।
जन्म के साथ ही कितनों को अनुकूल परिस्थितियां अनायास ही मिल जाती हैं। बिना किसी पुरुषार्थ के वे संपदा और वैभव के मालिक बन जाते हैं। विकसित होने के लिए कुछ को परिवार का सुसंस्कृत वातावरण मिल जाता है। जबकि कुछ को घोर प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता है। सर्वांगीण विकास के लिए अभीष्ट स्तर के साधन एवं सहयोग नहीं जुट पाते। उनका अपना पुरुषार्थ ही आगे बढ़ने का एकमात्र संबल होता है। अपंगता एवं विकलांगता के शिकार बच्चे भी पैदा होते हैं। जिन मासूमों ने जीवन का एक भी वसंत न देखा हो, जिन्हें पाप-पुण्य का, भले-बुरे का कुछ भी ज्ञान नहीं होता, उन्हें अकारण ही प्रकृति के कोप का भोजन बनना पड़े, यह बात तर्कसंगत नहीं उतरती। लेकिन नियम एवं व्यवस्था जड़ प्रकृति में भी दिखाई पड़ती है, तो कोई कारण नहीं कि चेतन जगत पर लागू न हों। जन्मजात विकलांगता, दुर्घटना में मृत्यु, विषम परिस्थितियों में भी बच निकलने का कारण सामान्य बुद्धि समझ नहीं पाती। उसे मात्र संयोग मान लेने से समाधान नहीं हो पाता। संयोग हो तो भी उसका कुछ आधार होना चाहिए।
कर्मफल सिद्धांत की आध्यात्मिक मान्यता में उपर्युक्त गुत्थियों का हल सन्निहित है। पेड़-पादपों की तरह जीवन का भी शरीर के साथ ही अंत नहीं हो जाता। आदि और अंत से रहित वह सतत नए जीवन की पृष्ठभूमि में सन्निहित है। जीवात्मा का वह एक पड़ाव है जहां से नई तैयारी, नई उमंग के साथ एक नए जीवन की शुरुआत होती है। कर्मों के सूक्ष्म संस्कार उसके साथ चलते हैं। उन्हीं के आधार पर अगले जीवन की भली-बुरी परिस्थितियां जीवात्मा उपलब्ध करती है। जन्मजात प्रकट होने वाली भली-बुरी विशेषताएं पूर्व जन्मों के कर्मों की ही प्रतिफल होती हैं, जो अनायास ही प्रत्यक्ष होती दिखाई पड़ती हैं। कर्मों का प्रतिफल तत्काल इसी जीवन में मिले, यह आवश्यक नहीं। कर्मों का फल पकने तथा मिलने की सुव्यवस्था होते हुए भी वह अविज्ञात है। कर्मफल की स्वचालित व्यवस्था एक रहस्य होते हुए भी इस सत्य पर प्रकाश डालती ही है कि अच्छे-बुरे कर्मों का फल मिलना सुनिश्चित है। कब और कितने परिमाण में यह सत्ता ने अपने हाथों में रख छोड़ा है।
गंभीरता से विचार करने पर स्रष्टा की इस कर्मफल व्यवस्था में उसकी दूरदर्शिता का ही आभास होता है। जड़ जगत के विकास एवं मरण के सुनिश्चित तथा ज्ञातक्रम में किसी प्रकार का कुतूहल नहीं होता। ढर्रे की भांति सब कुछ चलता जान पड़ता है। पेड़, पादप पैदा और समाप्त होते रहते हैं। जीव-जंतुओं का भी जीवन सतत ढर्रे की प्रक्रिया से लुढ़कता रहता है। परमात्मा ने मनुष्य को भी उन्हीं की स्थिति में रखा होता, तो मानव जीवन का कुछ विशेष महत्त्व नहीं रह जाता। बुद्धि और पुरुषार्थ को अपना जौहर दिखाने का अवसर नहीं मिल पाता। चोरी करते ही अपंग हो जाने, झूठ बोलते ही जीभ के गल जाने, व्यभिचार करते ही कोढ़ हो जाने, हत्या करते ही अकस्मात मर जाने की कर्मफल व्यवस्था रही होती, तो मनुष्य की स्वतंत्रता एवं कार्य-कुशलता का कुछ महत्त्व नहीं रह जाता। सब कुछ यंत्रवत चलता। कुछ विशेष सोचने तथा विशेष करने की उमंग नहीं रहती। भविष्य की जानकारी होने पर जीवनक्रम नीरस ही नहीं, भी होता। चारों ओर अकर्मण्यता छा जाती। सचमुच ही उस नियामक सत्ता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना चाहिए। जिसने कर्मफल व्यवस्था को अगणित जन्म शृंखलाओं के साथ जोड़कर मानवी विवेक को अपने वर्चस्व का परिचय देने का स्वतंत्र अवसर प्रदान किया है।
कर्म का उचित न्याय देने में समाजगत व्यवस्था में अंधेरगर्दी चल भी सकती है, पर ईश्वरीय व्यवस्था में ऐसा कभी संभव नहीं है। उसकी त्रिकालदर्शी आंखों से कुछ भी नहीं छिप सकता। कर्मों का फल मिलना सुनिश्चित है, अच्छे-का-अच्छा और बुरे-का-बुरा। संभव है, कोई व्यक्ति समाज एवं न्याय की आंखों में धूल झोंककर अपने कुकर्मों तथा पापों का दंड पाने से बच जाए, पर ईश्वरीय न्याय विधान से बचना संभव नहीं है। संभव है, उसका फल इस जीवन में मिले-न-मिले, पर दूसरे जन्मों में मिलना सुनिश्चित है।
इस तथ्य पर योगदर्शन स्पष्ट प्रकाश डालता है। योगदर्शन साधन पाद सूत्र 13 में उल्लेख है—‘‘सति मूले तद्विविपाको जात्यायुर्भोगाः।’’
‘‘कर्म का मूल रहने पर जब वह पकता है, तो जाति या जन्म, आयु और भोग के रूप में प्रकट होता है।’’ यह जन्म, आयु और भोग, पुण्य और पाप की अपेक्षा से सुख और दुःख रूपी फल वाले होते हैं।
कर्मफल सिद्धांत को और भी स्पष्ट करने के लिए प्राचीन ऋषियों ने कर्मों को तीन भोगों में बांटा है—संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध। वह कर्म जो अभी फल नहीं दे रहे हैं—बिना फलित हुए इकट्ठे हो जाते हैं, उनको संचित कर्म कहते हैं। कालांतर में वे फल देने के लिए सुरक्षित रखे हुए हैं। उन्हें फिक्स्ड डिपाजिट की संज्ञा दी जा सकती है। पर समस्त संचित कर्म भी एक जैसे नहीं होते, न ही उनका फल एक ही समय में मिलता है। विभिन्न प्रकार के संचित कर्मों के पकने की अवधि अलग-अलग हो सकती है।
इसी प्रकार जो कर्म वर्तमान में किया जाता है, वह क्रियमाण है। संचित कर्मों में से जिनका विपाक हो जाता है अर्थात् जो पककर फल देने लगते हैं, उनको प्रारब्ध कहते हैं। जन्म के साथ अनायास भली-बुरी परिस्थितियां लिए अथवा जीवन में अकस्मात उपलब्धियां लिए वे ही प्रकट होते हैं। कर्मों की शृंखला इस प्रकार है—क्रियमाण कर्म का अंत संचित में हो जाता है और संचित में जो कर्मफल देने लगते हैं, उनको प्रारब्ध कहते हैं।
मनुष्य का अधिकार क्रियमाण कर्मों पर है। संचित और प्रारब्ध उसकी ही उपलब्धियां हैं, जिन पर मनुष्य का कोई अधिकार नहीं। भले-बुरे कर्मों को वर्तमान में करने-न-करने की मनुष्य को पूरी-पूरी छूट तो हैं, पर वह स्वतंत्रता फल पाने में नहीं है। ‘‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्’’ किए गए शुभ-अशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। कर्मफल सिद्धांत का यह प्रमुख सूत्र है।