
प्रमाण-ही-प्रमाण, अनेकों प्रमाण
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आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का सिद्धांत भारतीय दर्शन का तो प्राण है ही, अन्यान्य धर्मों एवं दर्शनों ने भी उसे किसी-न-किसी रूप में स्वीकार किया है। ईसाई, मुसलमान धर्मों में पुनर्जन्म की तो मान्यता नहीं है, पर उनके यहां भी आत्मा का अस्तित्व मरने के बार भी बने रहने और ‘न्याय के दिन’ ईश्वर के सम्मुख उपस्थित होने की बात है। इसका अर्थ कम-से-कम इतना तो है ही कि मरने के साथ-साथ ही जीव की सत्ता सदा-सर्वदा के लिए समाप्त नहीं हो जाती, वरन् फिर से सचेतन की तरह काम करने का अवसर मिलता है। स्वर्ग-नरक की मान्यताएं भी इसी सिद्धांत की पुष्टि करती हैं कि अशरीरी आत्मा को भी एक विशेष प्रकार का जीवनयापन करने का अवसर मिलता है।
भूत-प्रेतों का अस्तित्व पिछड़े लोगों में अंधविश्वास की तरह फैला हुआ है। प्रगतिशील लोग उस बात का मजाक बनाते हैं, पर दोनों की मध्यवर्ती भी एक स्थिति है, जिसमें कठोर परीक्षणों की कसौटी पर भी मृतात्माओं के द्वारा शरीरधारियों जैसे आचरण होने के प्रमाण मिलते हैं। प्रेत कैसे होते हैं? क्या करते हैं? मनुष्यों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करते हैं, क्या चाहते हैं? इन प्रश्नों पर मतभेद हो सकता है, पर यह तथ्य अब दिनोंदिन अधिक प्रामाणिक होता जा रहा है, जिसमें किन्हीं आत्माओं को मरने के उपरांत भी अपनी हलचलें प्रत्यक्ष करने की बात विश्वासपूर्वक स्वीकार की जा सके।
आत्मा की अमरता का एक प्रमाण पुनर्जन्म है। मरने के बाद दूसरा जन्म मिलने का तथ्य हिंदू धर्म में सदा से माना जाता रहा है। पुराणों में इसका पग-पग पर वर्णन है। धर्मशास्त्रों के अगणित आप्त वचनों में आत्मा के पुनर्जन्म लेने की बात कही गई है। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरांत मनुष्य जन्म मिलने, पुण्य और पाप का फल भोगने के लिए फिर से जन्म मिलने की बात को धर्मग्रंथों में अनेकानेक उदाहरणों के साथ समझाया गया है।
भारत में पुनर्जन्म के संबंध में चिर मान्यता होने के कारण यह भी कहा जा सकता है कि पुनर्जन्म की स्मृति बताने वाले, यहां के वातावरण से प्रभावित रहे होंगे। या किसी कल्पना की आधी-अधूरी पुष्टि हो जाने पर यह घोषित किया जाता होगा कि यह बालक पिछले जन्म में अमुक था। यों इस आशंका को भी कठोर परीक्षा की दृष्टि से भली भांति निरस्त किया जाता रहा है और बच्चे ऐसे प्रमाण देते रहे हैं, जिनके कारण किसी झांसेपट्टी की आशंका नहीं रह जाती। पिछले जन्म के संबंधियों के नाम तथा रिश्ते बताने लगने—ऐसी घटनाओं का जिक्र करना जिनकी दूरस्थ व्यक्तियों को जानकारी नहीं हो सकती, वस्तुओं के साथ जुड़े हुए इतिहास का विवरण बताना, जमीन में गड़ी चीजें उखाड़कर देना अपने और पराये खेतों का विवरण बताना जैसे अनेक संदर्भ ऐसे हैं, जिनके आधार पर पुनर्जन्म होने की प्रामाणिकता से इनकार नहीं किया जा सकता। फिर भारत से बाहर उन संप्रदाय के लोगों पर तो पूर्व मान्यता का भी आक्षेप नहीं लगाया जा सकता। पुनर्जन्म के प्रमाण तो वहां भी मिलते हैं। यह भी किंवदंतियों के आधार पर नहीं, वरन् परामनोविज्ञान की शोधकर्त्ता मंडली द्वारा उनकी छान-बीन की गई है और यह पाया गया है कि ये घटनाएं मनगढ़ंत, कपोल-कल्पित या धोखाधड़ी नहीं हैं। इनसे पुनर्जन्म की मान्यता की ही पुष्टि होती है।
भारत के बाहर इस तरह की घटनाओं पर अब गंभीरतापूर्वक ध्यान दिया जा रहा है और उनका वैज्ञानिक विश्लेषण किया जा रहा है। इस क्षेत्र में सर्वप्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढंग से गवेषणा करने वालों में प्रसिद्ध परामनोवैज्ञानिक डॉ0 इवान स्टीवेंसन ने पुनर्जन्म की वास्तविकता को वैज्ञानिक ढंग से परखने का सिलसिला शुरू किया। सन् 1966 ई0 में इस विषय पर उनकी पहली पुस्तक ‘ट्वेंटी कॉजेस सजेस्टिव ऑफ रीइन्कार्नेशन’ प्रकाशित हुई। इस पुस्तक के बाद उनकी तीन पुस्तकें और प्रकाशित हुईं, जिनमें पुनर्जन्म की कई प्रामाणिक घटनाओं का विवरण देते हुए इस विषय का प्रतिपादन किया गया था।
ये तीनों पुस्तकें अलग-अलग देशों में घटी घटनाओं के आधार पर लिखी गई हैं। एक में भारत में जन्मे व्यक्तियों का विवरण है जिन्हें अपने पिछले जन्मों की याद रही। दूसरी में श्रीलंका और तीसरी पुस्तक में तुर्की की घटनाओं का विवरण है। इन तीनों पुस्तकों में कुल मिलाकर 1300 घटनाओं का वर्णन है, जिनकी वास्तविकता और प्रामाणिकता असंदिग्ध बताई गई है।
लेबनान और तुर्की के मुस्लिम परिवारों में भी पुनर्जन्म की अनेक स्मृतियां सामने आईं हैं जिन्हें स्वयं शोधकर्त्ताओं ने सही पाया है। लेबनान के एक गांव कोरनाइल में एक मुस्लिम परिवार में एक बालक जन्मा, जिसका नाम अहमद था। बच्चा दो वर्ष की उम्र से ही पूर्वजन्म की घटनाओं और संबंधियों के बारे में बुदबुदाया करता था, किंतु किसी ने ध्यान नहीं दिया। बड़ा होने पर अपना पूर्व जन्म का निवास खेरबी और नाम बोहमजी बताने लगा फिर भी उस पर किसी ने विश्वास नहीं किया। एक दिन उसने सड़क पर खेजबी के एक आदमी को पहचान लिया।
पता लगने पर पुनर्जन्म के शोधकर्त्ता वहां पहुंचे और उस बालक को 40 किमी0 दूर गांव खेरबी ले गए। बालक ने अपने पूर्वजन्म के नाम इब्राहिम बोहमजी के बारे में जितना बताया था, वही सही निकलता गया। उसकी मृत्यु रीढ़ की हड्डी के क्षयरोग से हुई। उसके पैर उस समय अशक्त थे। इस जन्म में ठीक तरह से चलने पर वह बड़े उत्साह और हर्ष के साथ इस बात को दूसरों के सामने प्रकट करता।
खेरबी में उसने कुटुंबियों, संबंधियों, मित्र, परिचितों आदि को पहचान लिया। ऐसी घटनाएं सुनाईं, जो केवल संबंधित लोग ही जानते थे। उसने अपनी प्रेयसी का नाम भी बताया। मित्र की ट्रक दुर्घटना से मरने की बात कही। मरे हुए भाई दाऊद का चित्र पहचाना। अपनी बहन हुडा को भी पहचान लिया।
इस्तंबूल (तुर्की) के विज्ञान अनुसंधान परिषद ने पुनर्जन्म की इस घटना की जांच कर उसे सत्य पाया है। एक चार वर्ष का बालक इस्माइल अतलिंट्रालिक पूर्वजन्म में दक्षिण-पूर्वी तुर्की के अदना नामक गांव का आबिद सुजुलयुस था। उसकी हत्या की गई। वह अपने पीछे तीन बच्चे गुलशरां, जैकी और हिकमन छोड़ आया था। वह चार साल का बालक इस्माइल रोते-रोते पूर्वजन्म के अपने बच्चों को पुकारने लगता तथा उनकी स्मृति में रोता भी था।
एक दिन उसी इस्माइल ने एक फेरी वाले को आइसक्रीम बेचते देखा। उसने उस अजनबी का नाम महमूद लेकर पुकारा और उससे कहा कि ‘तुम तो शाक-सब्जी बेचते थे, आइसक्रीम कब से बेचने लगे? महमूद चकरा उठा। पर यह कहकर तो उसने उसके आश्चर्य को कई गुना अधिक बढ़ा दिया कि तुम भूल रहे हो, भाई! मैं तुम्हारा चिर-परिचित आबिद हूं जिसकी छह वर्ष पूर्व हत्या की गई थी।
पत्र-प्रतिनिधि इस्माइल को अदना नगर ले गए। वहां पहुंचते ही उसने अपने पूर्वजन्म की बेटी गुलशरां को पहचान लिया। वह वहां भी पहुंचा, जहां अस्तबल में रमजान ने उसकी कुल्हाड़ी से हत्या की थी। उस कब्र पर भी गया, जहां उसे दफनाया गया था। पुलिस से पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि उपर्युक्त हत्याकांड हुआ था। हत्यारे रमजान को फांसी का दंड भी दिया था। आबिद की कब्र वही थी, जो इस्माइल ने बताई। बालक इस्माइल का चाचा जब उसके साथ क्रूर व्यवहार करने लगा, तो उसने कहा कि ‘तुम भूल गए, मेरे ही बाग में तुम काम करते थे और बहुत समय तक तुम्हें मैंने ही रोटी खिलाई थी।’ जानकारी प्राप्त करने पर यह पाया गया कि आबिद के इस व्यक्ति पर, जो अब इस्माइल का चाचा था, अनेकों एहसान थे। इस घटना ने कभी मुस्लिम समुदाय में क्रांति मचा दी थी। ऐसे-ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाण मिलने पर भी मरणोत्तर जीवन को नकारना हठधर्मिता ही कहा जाएगा।
भारत में हाल ही में एक पुस्तक प्रकाशित हुई ‘लिविंग एंड डाइंग।’ इस पुस्तक में 3 सितंबर 1969 को उत्तर प्रदेश के एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी कन्या का उल्लेख है। लड़की का नाम स्वर्णलता रखा गया। जब वह साढ़े तीन वर्ष की हुई, तो उसके घर उसके पिता से मिलने के लिए कुछ सफाई करने वाले जमादार आए। उन्हें देखकर स्वर्णलता सूअर का गोश्त खाने की जिद करने लगी। ब्राह्मण परिवार में गोश्त–अंडे की बात तो दूर रही, चींटी भी नहीं मारी जाती। फिर लता ने यह कहां सुना और सीखा? पिता जब उसे टालने और डपटने लगे, तो स्वर्णलता ने बताया कि वह भी सफाई जमादारों की जाति की ही थी। उसने यह भी बताया कि उसका पूर्वजन्म का नाम शांति था और उसके पति का नाम राजिंदर था। उसने अपने पिछले जन्म के निवास ग्राम और घर का पता बताया, जो वर्तमान निवास से कुल दो किलोमीटर दूर ही था। उसकी मृत्यु किस प्रकार हुई? यह पूछे जाने पर स्वर्णलता ने बताया कि वह रोज पास ही रेलवे लाइन पर कोयले बीनने के लिए जाया करती थी। जिस दिन उसकी मृत्यु हुई वह रामनवमी का दिन था। उस दिन किसी बात पर पति से तकरार हो गई और उसके पति ने शांति को झाड़ू की मूंठ से पीटा। इससे वह बेहद दुखी हुई। उसी दिन जब वह रेल की पटरी पर कोयले बीनने गई, तो रेल के नीचे कुचलकर मर गई। स्वर्णलता ने अपने पुराने परिवार और विशेषतः अपनी बेटी जिसका नाम गीता था और जो अविवाहित थी, देखने की हार्दिक इच्छा व्यक्त की।
स्वर्णलता ने जो भी बातें बताईं थीं उन सारी बातों की छान-बीन प्रसिद्ध परामनोविज्ञानवेत्ताओं द्वारा की गई, जो ऐसे मामलों की पहले भी कई बार जांच कर चुके थे, इन विशेषज्ञों ने जिन मामलों की पहले जांच की थी, उनका नीर-क्षीर विश्लेषण कर सच-झूठ को निष्पक्ष ढंग से प्रतिपादित किया गया। इसलिए उनके निष्कर्षों पर जरा भी संदेह करने की कोई गुंजाइश नहीं थी। अनुसंधान करने वाले परामनोविज्ञानवेत्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि स्वर्णलता ने जो कुछ भी बताया था, वह अक्षरशः सच था। उन्होंने यह भी पाया कि पिछले जन्म के संस्कार उसके इस जनम में भी विद्यमान थे। उन्होंने यह भी पाया कि अपनी पिछली जाति के अनुसार ही उसकी व्यक्तिगत आदतें भी थीं। वह घर के दूसरे बच्चों से अलग-अलग ही रहती और यह कहकर उसने स्कूल जाने से भी इनकार कर दिया कि वह तो नीची जाति की है। इसके साथ ही वह रेलगाड़ियों से भी बहुत डरती थी। सन् 1975 में उससे अनुसंधानकर्त्ताओं ने आखिरी बार मुलाकात की। इस समय भी उसे अपने पिछले जन्म का स्मरण था, पर तब वह पहले की तरह बातें नहीं करती थी, क्योंकि वर्तमान जीवन के संस्कार प्रबल होने लगे थे।
जून 1965 में जन्मी पुष्पा नाम की लड़की (सिरसा) डेढ़ वर्ष की हुई, तभी से एक घर की ओर इशारा करने लगी, जिसे बाद में उसने पिछले जन्म का घर बताया। बोलने योग्य होते ही उसने अपने आप को एक सिख परिवार की बहू बताया और अपने बच्चों के नाम भी बताने लगी, वह अपने पिछले जनम का नाम मनजीत कौर बताती थी। यह पूछने पर कि उसकी मृत्यु किस प्रकार हुई? मनजीत कौर (पुष्पा) ने भयभीत होकर कहा कि उसकी सास उसके पति को उलटी-सीधी पढ़ाती रहती थी और उसके विरुद्ध कान भरती रहती थी। एक दिन तो उसका पति इस तरह भड़क उठा कि उसने मनजीत को चाकू से मार ही डाला। जब इन बातों की पुष्टि के लिए पुनर्जन्म में रुचि रखने वाले व्यक्तियों ने छान-बीन की, तो इस तथ्य को बिलकुल सही पाया गया कि मनजीत कौर की पुष्पा के जन्म से ठीक चार वर्ष पहले हत्या कर दी गई थी।
अमेरिका के कोलोराडीप्यूएली नामक नगर में रूथ सीमेन्स नामक लड़की ने अपने पूर्वजन्म की घटनाओं को बताकर ईसाई धर्म के उन अनुयायियों को असमंजस में डाल दिया, जो पुनर्जन्म के सिद्धांत को नहीं मानते हैं। इस लड़की को मोरेबर्न-स्टाइन नामक आत्मविशारद ने प्रयोग द्वारा उसी के पूर्वजन्म की अनेक घटनाओं का पता लगाया। प्रयोग के दौरान उसने बताया कि वह सौ वर्ष पूर्व आयरलैंड के यार्क नगर में हुई थी। उसका नाम ब्राइडीमर्फी था और उसके प्रति का नाम मेकार्थी था। रूथ सीमेन्स ने अपने विगत जनम के बारे में भी बातें बताईं, उनकी जांच की गई तो वे अक्षरशः सत्य पाई गईं। डॉ0 रैना रूथ ने इस संबंध में अनेकों प्रमाण अपनी पुस्तक ‘री-इन्कार्नेशन एंड साइंस’ में दिए हैं।
विलियम वाकर एवं केन्सन ने अपनी पुस्तक ‘‘री-इन्कार्नेशन’’ में ऐसी अनेक घटनाओं का विवरण दिया है। जिनमें पुनर्जन्म में विश्वास न करने वाले परिवारों में जन्मे बच्चों को भी पूर्वजन्म की स्मृतियां थीं। बच्चों द्वारा प्रस्तुत किए गए विवरणों से इस सिद्धांत की पुष्टि ही होती है। बड़ी आयु हो जाने पर यद्यपि ऐसी स्मृतियां नहीं रहतीं या धुंधली पड़ जाती हैं, पर बचपन में बहुतों को ऐसे स्मरण बने रहते हैं, जिनके आधार पर उनके पूर्वजन्म के संबंध में काफी जानकारी मिलती है। मोटे रूप में जीवात्मा के योनि-परिभ्रमण का यह अर्थ समझा जाता है कि वह छोटे-बड़े कृमि-कीटकों, पशु-पक्षियों की चौरासी लाख योनियों में जन्म लेने के बाद ही मनुष्य जन्म प्राप्त करता है। पुनर्जन्म की इन घटनाओं से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य को दूसरा जन्म मनुष्य के रूप में ही मिलता है। इसके पीछे तर्क भी है। जीव की चेतना का इतना अधिक विकास-विस्तार हो चुका होता है कि उतने फैलाव को निम्न प्राणियों के मस्तिष्क में समेटा नहीं जा सकता। बड़ी आयु का मनुष्य जिस प्रकार अपने बचपन के कपड़े पहनकर काम नहीं चला सकता उसी प्रकार मनुष्य योनि में जन्म लेने के बाद छोटी योनियों में प्रवेश करने से गुजारा नहीं चलता।
रही बात बुरे कर्मों के दंड की, तो कर्मों का फल भुगतने के लिए दुष्कर्मों का अधिकाधिक दंड मनुष्य जन्म में ही मिल सकता है। मनुष्य को शारीरिक कष्ट से भी अधिक मानसिक यातनाएं सहनी पड़ती हैं। शोक, चिंता, भय, अपमान, घाटा, बिछोह आदि से वह तिलमिला उठता है, जबकि अन्य प्राणियों को मात्र शारीरिक कष्ट ही होते हैं। मस्तिष्क अविकसित रहने के कारण उनमें भी उतनी तीव्र पीड़ा नहीं होती, जितनी मनुष्यों को होती है। इस स्थिति में पापकर्मों का दंड भुगतने के लिए मनुष्य को निम्न योनियों में जाना पड़े, यह आवश्यक नहीं। यह सही है कि पुनर्जन्म सिद्धांत में प्रारब्ध कर्म का अपना विशेष महत्त्व है। पर प्रारब्ध भी किसी चमत्कार का परिणाम नहीं होता और न ही उसमें हेर-फेर सर्वथा असंभव होता है। लेकिन आज पुनर्जन्म को मानने वालों में बड़ी तादाद उन लोगों की है जो प्रारब्ध या दैवी-विधान को अकारण या व्यवस्था-विहीन, चमत्कारिक मानते हैं और इनमें परिवर्तन भी चमत्कार के सहारे ही संभव मानते हैं। ये दोनों ही बातें पुनर्जन्म सिद्धांत के वास्तविक आधारों के विरुद्ध हैं।
निःसंदेह ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिनमें जन्म से ही अनेक विलक्षणताएं होती हैं या जो प्रचलित लोक-प्रवाह से अप्रभावित, अपनी ही विशिष्टता से विभूषित देखे जा सकते हैं। इसका कारण भी दैवी चमत्कार नहीं, पिछले जन्म में वैसे विकास हेतु किया गया उनका स्वतः का प्रयास-पुरुषार्थ होता है।
महर्षि अरविंद की प्रधान सहयोगिनी श्री मां मीरा जब फ्रांस में बाल्यावस्था व्यतीत कर रही थीं, उसी समय उन्हें दिव्य दर्शन होते थे, जो उनके पिछले जन्म के ही संस्कारों के परिणाम थे। आचार्य विनोबा भावे ने अपने बारे में कहा है कि मुझे ये भास होता है कि पूर्वजन्म में मैं बंगाली था। साथ ही जिन वस्तुओं के प्रति जन-सामान्य में प्रचंड आकर्षण होता है, उनके प्रति विनोबा में कभी आकर्षण ही नहीं हुआ। इसे भी वे अपने पिछले जन्म की कमाई मानते हैं। इस जन्म की कमाई तो वह तब होती, जब उस ओर आकर्षण होता और वे उस पर नियंत्रण करते। श्री अरविंद के एक प्रमुख शिष्य श्री अनिलवरण राय ने शैशवावस्था में ही श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप के प्रत्यक्ष दर्शन की बात कही है। उस समय तक उन्होंने कैसी भी साना नहीं की थी। अतः यह अनुभूति पूर्वजन्म की साधना का ही फल थी, यह बात उन्होंने स्वयं कही थी एवं योगीराज अरविंद ने भी इसे स्वीकार किया था।
पुनर्जन्म के प्रति विवेक विरुद्ध मान्यताएं पालकर हर दुःखग्रस्त या आर्थिक दृष्टि से कुछ खोने वाले व्यक्ति को पिछले जन्म का पापी और सुविधा-सज्जित लोगों, धनकुबेरों, सत्तासीनों को विगत जन्म का पुण्यात्मा मान बैठने की मूढ़ता से बचना चाहिए। इन मापदंडों से तो राम, कृष्ण, विवेकानंद, मार्क्स, महात्मा गांधी, समेत सभी महा-मानवों को अभागा और महापापी बताना तथा अत्याचारी विलासी सामंतों-धनपतियों को महान पुण्यात्मा करार देना आसान होगा।
आवश्यकता जन्म-जन्मांतर तक चलने वाले कर्मफल के अटूट क्रम को समझने की है। उसे समझने पर ही उसकी दिशाधारा निर्धारित करने और मोड़ने में सफलता मिल सकती है। अपने भीतर की दुर्बलताओं और विकृतियों को अपनी ही भूल से चुभे कांटे समझकर धैर्यपूर्वक निकालना और घाव को पूरना चाहिए। अपनी सत्प्रवृत्तियों, श्रेष्ठ उमंगों को अपनी अमूल्य थाती समझकर उसे संरक्षित ही नहीं रखना चाहिए, अपितु बढ़ाने का भी प्रयास करना चाहिए। इस हेतु न तो किसी ग्रह-नक्षत्र की मनुहार की जरूरत है, न चमत्कारों के खोज की। अपने भीतर की देव-प्रवृत्तियों की पूजा-प्रतिष्ठा और अपने भीतर जगमगा रहे आस्था के प्रकाशपूर्ण ग्रह-नक्षत्रों की अनुकूलता ही अपने विकास का आधार बन सकती है। यही पुनर्जन्म सिद्धांत की दार्शनिक पृष्ठभूमि और नैतिक प्रेरणा है।