
मरण के समय की अनुभूतियां
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अब विज्ञान की एक नई शाखा विकसित हो रही है, जो मरणासन्न व्यक्तियों का अध्ययन करती है। इस विद्या में यह जानने का प्रयास करते हैं कि क्या इन व्यक्तियों को मृत्यु का भय होता है? निकटतम आ रही मृत्यु के बारे में बोध होने पर इन व्यक्तियों को कैसी अनुभूति होती है? मृत्यु संबंधी ऐसे तथ्यों का अध्ययन करने वाले इस विज्ञान को ‘थेनेटॉलॉजी’ कहते हैं। ‘थेनेटॉस’ (ग्रीक शब्द) का अर्थ है मृत्यु।
पश्चिमी जर्मनी के डॉक्टर लोथर विट्जल ने मरणासन्न मरीजों से उनकी मृत्यु के 24 घंटे पूर्व बात-चीत की। उन्होंने पाया कि जैसे-जैसे मृत्यु आती है, मरणासन्न व्यक्ति में उसका भय मिटता जाता है। बीमारी की वृद्धि के साथ-साथ ऐसे व्यक्तियों की धार्मिक आस्था दृढ़ होती चली जाती हैं और चिंताएं कम होती जाती हैं।
‘मैंसाचुसेट्स मेडीकल सोसाइटी’ के बोस्टन निवासी डॉ0 मूर रसेल फ्लेचर ने लगभग पच्चीस वर्षों तक गहन अन्वेषण करने के पश्चात इन तथ्यों को ‘ट्रीटीज ऑन सस्पेंडेड ऑन सस्पेंडेड-ऐनीमेशन’ नामक ग्रंथ में लिपिबद्ध किया है, जिसमें मरने के उपरांत फिर से जी उठे लोगों के अनुभव हैं। डॉ0 फ्लैचर ने अपनी इसी पुस्तक में गार्नाइट शहर निवासी श्रीमती जान डी0 ब्लेक के बयान के अनुसार लिखा है कि वे तीन दिन तक मृतावस्था में पड़ी रही थीं। डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया, किंतु घरवालों ने शरीर गरम देखते हुए नहीं दफनाया। तीन दिन बाद वे जी उठीं। पूछने पर उन्होंने बताया कि वे ऐसे लोक में जा पहुंची थीं, जिसे सचमुच ‘परिलोक’ कहा जा सकता है। वहां बहुत-सी आत्माएं उन्हें प्रत्यक्ष प्रसन्न उड़ती दिखाई दीं, जिनमें उनकी कुछ मृत सहेलियां भी थीं। ऐसे कई प्रसंग पिछले दिनों शोधकर्त्ताओं की जानकारी में आए हैं, जिनमें मरने के बाद जी उठने वाले व्यक्तियों ने अपनी सुखद-दुःखद अनुभूतियों को व्यक्त कर एक अदृश्य लोक पर पड़े पर्दे को उठाने में मदद की है।
दस वर्षीय बालिका डैजी ड्राइडन, जिसका वर्णन पुस्तक के प्रारंभ में किया गया था, की मृत्यु दस वर्ष की आयु में टाइफाइड के बिगड़ जाने के कारण हुई थी, मरने से दो-तीन दिन पूर्व उसे परलोक के दृश्य प्रत्यक्ष दीखने लगे थे। उसने जो बताया उसके आधार पर ‘जीवन में उस पार’ नाम से अनुभव प्रकाशित हुए हैं। इनको पढ़ने से पता चलता है कि अपनी इसी दुनिया की तरह एक-दूसरी दुनिया भी है। जिसमें मृतात्माएं और देवात्माएं उसी प्रकार निवास-निर्वाह करती हैं, जैसे कि अपने इस लोक के निवासी।
मृतक समझे गए रोगियों को पुनर्जीवित करने के लिए किए प्रयासों का विशिष्ट अध्ययन मनोविज्ञानी स्टेनिस्लाव ग्रोफ और जॉन-हेलिफाक्स ग्रोफ ने किया है। इन्होंने अपने शोध प्रकाशनों में ऐसे कई रोगियों का वर्णन किया है, जो मरकर जी उठे और मरण-क्षणों के मध्यवर्ती अनुभव बता सकने में समर्थ हुए। कैंसर से मरे डीन ग्बिसन नामक एक रोगी ने पुनर्जीवित होने पर बताया कि पहले वह गहरे अंधकार में डूबा, इसके बाद उसे प्रकाश दिशा और फिल्म के परदे की तरह जीवन में किए गए भले-बुरे कामों की तसवीरें फिल्मी की तरह दिखाई पड़ीं, उसे लगा कि यह किसी न्यायाधीश का काम है, जो दंड-पुरस्कार देने से पहले यह दृश्य-झांकियां प्रस्तुत कर रहा है।
हृदय रोग से मृत एक महिला ने शोधकर्त्ता को बताया कि वह रूई के रेशों की तरह हलकी बनकर अस्पताल की छत तक उड़ी चली जा रही थी। डॉक्टर, नर्स आदि यथास्थान दिख रहे थे। दूसरी महिला को ‘मृत्यु का क्षण’ दुःखद प्रतीत नहीं हुआ, अपितु मृतक संबंधियों की समीपता, जो कि उसके स्वागत के लिए खड़े थे, सुखद ही लग रही थी। अधिकांश मृत व्यक्तियों को प्रकाश ज्योति के दर्शन हुए, जिसमें स्नेह और सहयोग का अनुदान झरते हुए अनुभव हुआ।
सत्य की शोध में चेतना के सिद्धांत का कम महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं है—इस निष्कर्ष पर पहुंचे सर आलिवर लॉज और क्रुप्स जैसे भौतिकीविदों ने इस तथ्य को मुक्तकंठ से स्वीकारा है। उनका मत है कि चेतना पदार्थों के संघात का प्रतिफल मात्र नहीं, अपितु उससे भिन्न स्वतंत्र है, जो शरीर के विनष्ट हो जाने पर भी विद्यमान रहती है। इस तथ्य के प्रमाण में उन्होंने कई मृतात्माओं का सहयोगपरक आह्वान किया, जिसके फलस्वरूप आत्माओं ने उसे स्वीकारा और उन्हें सहयोग भी प्रदान किया था। (‘ऑन टॉकिंग’) पुस्तक में कई प्रेतात्माओं के वैज्ञानिकों द्वारा टेप किए गए संदेशों का वर्णन है। इससे अदृश्य जगत के अस्तित्व की पुष्टि होती है।
मृत्यु के समय अलग-अलग लोगों को इस लोक में भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुभव होते हैं। इसका वर्णन करते हुए लेखक सीडेट्रन टॉमस ने अपनी पुस्तक ‘इन दी डॉन बियॉण्ड लाइफ’ में एक व्यक्ति के मृत्यु के समय के अनुभवों को इन शब्दों में व्यक्त किया है—‘‘मेरा हृदय बैठा जा रहा था। दिन का प्रकाश समाप्त होता जा रहा था। एकदम अंधेरा छा गया। फिर वायुमंडल में कुछ उजाला दिखाई दिया। मेरे पिता, मेरे भाई तथा अनेक संबंधी, जो मुझसे पहले मर चुके थे, उनकी आवाजें साफ सुनाई दे रही थीं, वे मेरे पास ही उपस्थित थे।’’
‘फ्रंटियर्स ऑफ द आफ्टर लाइफ’ के लेखक एडवर्ड सी. रेंडेल ने ऐसी ही एक दिवंगत आत्मा के अनुभवों को निम्न शब्दों में व्यक्त किया है—‘‘मरने के बाद मैंने स्वयं को चारों ओर से स्वजन-संबंधियों से घिरा हुआ पाया। पहले पहल अपने आप को ऊपर उठते देखा फिर धीरे-धीरे नीचे आ गया। एक शरीर बिस्तर पर पड़ा था, तो दूसरा मैं खड़ा था। शारीरिक वेदनाएं समाप्त हो गई थीं। जो-जो आत्माएं मुझे लेने आई थीं, उन्होंने मुझसे चलने को कहा। उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि मैं मर चुका हूं। संयोगवश मेरा पुनर्जीवन हुआ, लेकिन स्मृति उन क्षणों की भी रही।’’
मूर्द्धन्य मनोविज्ञानी कार्लजुंग ने अपने निजी मरणोत्तर जीवन का रोचक वृत्तांत स्वलिखित ‘मेमोरीज ऑफ ड्रीम्स रिफ्लेक्शन’ में लिखा है। सन् 1944 में उन्हें भयानक दिल का दौरा पड़ा। डॉक्टर उन्हें मरणासन्न स्थिति में अनुभव कर रहे थे और ऑक्सीजन के सहारे बचाने का प्रयत्न कर रहे थे। इसी समय जुंग ने अनुभव किया कि वे हजारों मील ऊपर उड़ गए और अधर में लटके हुए हैं। इतने हलके हैं कि किसी भी दिशा में इच्छानुसार जा सकते हैं। ऊपर से ही उन्होंने येरुशलम नगर का दृश्य तथा और भी बहुत-सी चीजें देखीं। उन्हें लगा कि वे अब पहले की अपेक्षा बहुत बदल गए हैं। बहुत देर इसी स्थिति में रहने के बाद उन्हें अपने पुराने शरीर में पुनः लौटना पड़ा और शरीरगत जीवन पुनः प्रारंभ हो गया। जुंग ने लिखा है—‘‘मरणोत्तर जीवन की इस अलौकिक अनुभूति ने मेरे समस्त संशय समाप्त कर दिए और यह समझा दिया कि मरने के बाद क्या होता है?’’
‘फ्रंटियर्स ऑफ द आफ्टर लाइफ’ के लेखक एडवर्ड रेंडेल ने एक दुर्घटना में मरने के बाद पुनर्जीवित हो उठने वाले व्यक्ति के अनुभव संकलित करते हुए उसे इस प्रकार लिखा है—‘‘मैं एक मूर्च्छा के बाद जागा। मैंने देखा कि मेरा शरीर अलग-थलग पड़ा हुआ है। भौचक्का-सा खड़ा होकर मैं देख रहा था और जब मैंने नीचे की ओर देखा, तो पाया कि मेरा शरीर लड़ाई में मारे गए और लोगों के साथ पड़ा हुआ है। मुझे लड़ाई की बात याद आ गई तथा यह भी याद आ गया कि मैं युद्ध में ही गोली लगने के कारण मारा गया हूं। मैंने कब शरीर छोड़ा इसका मुझे जरा भी स्मरण नहीं था, परंतु मृत्यु मेरे लिए एक आनंददायक और पीड़ा रहित घटना थी।’’
‘सायकिकल फिनोमिना एंड द वार’ पुस्तक के लेखक डॉ0 हायर वार्ड केरिंगटन ने एक सिपाही का ऐसा अनुभव प्रकाशित किया है—‘‘मैं अचानक अपने शरीर से बाहर फेंक दिया गया था। मैंने कोई पीड़ा अनुभव नहीं की।’’ अब तक संकलित विवरणों में जो मरने के बाद पुनर्जीवित हो उठे व्यक्तियों से पूछकर संकलित किए हैं, उससे यही सिद्ध होता है कि मृत्यु एक सामान्य घटना है, उतनी ही सामान्य जितना कि पुराने वस्त्र बदलना और नए पहनना। इसके संबंध में चिंता, भय और दुःख का एक ही कारण है—मृत्यु के संबंध में अज्ञान।
‘व्हेयर टू द वर्ल्डस् मीट’ पुस्तक के लेखक जे0 आर्थर फिंडले ने लिखा है—‘‘मरणासन्न व्यक्ति को अपने पिछले जीवन की सारी घटनाएं क्रमानुसार दिखाई देती हैं। यह सब तब होता है, जब होता है, जब वह शरीर छोड़ता है।’’ ‘साइकिक ब्रिज’ की लेखिका श्रीमती जेन लेरवुड ने भी इसी मत को दोहराते हुए लिखा है, ‘‘मृत्यु के समय तमाम जीवन की फिल्म विचारों की भीड़ की तरह भागकर जा रही होती हैं।’’ उल्लेखनीय है, इस पुस्तक की लेखिका ने मरणोपरांत प्रेत अवस्था में एक माध्यम से विवरण लिखवाया था।
अब तक इस संबंध में हुए अनुसंधान और शोध निष्कर्षों से यही प्रमाणित होता है कि मृत्यु के समय मनुष्य की वैसी ही मनःस्थिति रहती है जैसी कि उसके जीवनकाल में होती है। यों भी कहा जा सकता है कि जीवन भर के संस्कार, अनुभव, धारणाएं तथा दृष्टिकोण मिलकर ही पारलौकिक शरीर का स्वरूप निर्धारण करते हैं? भगवान श्रीकृष्ण ने इस शाश्वत सत्य का उद्घाटन हजारों वर्ष पूर्व करते हुए कहा है—
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।तं तमवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ।।तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च । मय्यर्पितमनोर्बुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ।। —भगवद्गीता 8।6, 7
हे कुंती पुत्र अर्जुन अंतिम समय जिस-जिस भाव का स्मरण करते हुए मनुष्य शरीर को छोड़ता है, सर्वदा उसी भाव के आश्रित होकर उसी भाव को प्राप्त करता है। इसीलिए सभी कालों में मुझे (ईश्वर को) ही मन और बुद्धि को अर्पित करो तभी तुम निस्संदेह मुझे प्राप्त होंगे।