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Books - मरणोत्तर जीवन एवं उसकी सचाई

Media: TEXT
Language: HINDI
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एक सचाई, जिसे नकारा नहीं जा सकता

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First 8 10 Last

परामनोविज्ञान के आधुनिक अनुसंधानों के क्रम में ऐसे अनेक प्रमाण एकत्रित किए गए हैं जिनसे मनुष्यों की पूर्वजन्म की स्मृति होने के प्रमाण मिलते हैं। ऐसे अन्वेषणों में प्रो0 राइन की खोजें बहुत विस्तृत और प्रामाणिक मानी गई हैं, उनके आधार पर अन्यत्र भी इस दिशा में बहुत-सी जांच-पड़ताल हुई हैं। इस खोज-बीन के निष्कर्ष इस मान्यता का पलड़ा भारी करते हैं कि आत्मा का अस्तित्व मरने के बाद भी बना रहता है और वह पुनर्जन्म धारण करती है। हिंदू धर्म में आत्मा की अमरता एवं पुनर्जन्म की सुनिश्चितता को आरंभ से ही मान्यता प्राप्त है, किंतु संसार में दो प्रमुख धर्मों—ईसाई और इस्लामी धर्मों के बारे में ऐसी बात नहीं है, उनमें मरणोत्तर जीवन का अस्तित्व तो माना जाता है, पर कहा जाता है कि वह प्रसुप्त स्थिति में बना रहता है। किंतु अब मिल रहे प्रमाणों से यह कट्टर मान्यता क्रमशः कम होती जा रही है। विज्ञान और बुद्धिवाद के समन्वय ने यह नई दृष्टि दी है। अस्तु, पाश्चात्य देशों में तथ्यों पर ध्यान देने की प्रवृत्ति से पुनर्जन्म के संबंध में भी जांच-पड़ताल करने पर जो तथ्य सामने आए, उन पर विचार करने के संबंध में उत्साह उत्पन्न हुआ है।
19वीं शताब्दी में यूरोप में सबसे पहली किताब फ्रेडरिक स्पेन्सर आलीवर द्वारा लिखित ‘एन अर्थ ड्वेलर्स रिटर्न’ थी जिसमें उसने अपने पिछले 42 जन्मों का हाल लिखा था। उसका कथन था—‘‘यह पुस्तक उसने नहीं लिखी किंतु किसी दिव्यात्मा ने उसके शरीर में प्रवेश करके लिखाई है।’’ इस पुस्तक के पीछे तर्क और प्रमाण न होने से उसे विश्वस्त तो नहीं माना गया, पर जब उसमें की गई भविष्यवाणियों में से कितनी ही सही सिद्ध हुईं, तो वह बहुचर्चित अवश्य बन गई।
इसके बाद मनोविज्ञान और चिकित्साशास्त्र में समान रूप से ख्याति प्राप्त डॉ0 जीना सरमी नारा द्वारा लिखित ‘मैनो मेंशन’ का नंबर आता है, जिसमें ऐसे कितने ही आधार प्रस्तुत किए गए हैं, जिनसे शरीर न रहने पर भी आत्मा का अस्तित्व बना रहने तथा फिर से जन्म होने की बात पर विश्वास जमता है।
अमेरिका के कैंटकी प्रांत में होपकिन्स विले नामक व्यक्ति देहात में हुआ। वह अपने अन्य परिवारियों की भांति नाममात्र को ही शिक्षित था। उसे सम्मोहन विद्या से वास्ता पड़ा। वह उस तंद्रा में ऐसी बातें करने लगा जिन्हें अतींद्रिय अनुभूतियों की संज्ञा मिलने लगी। आरंभिक दिनों में वह रोगियों के कष्ट, निदान एवं उपचार के संबंध में तंद्रित स्थिति में परामर्श देता था, जो लाभदायक सिद्ध होते थे। फिर उसमें पिछले जन्मों का हाल बताने की नई क्षमता जागी। उसने सैकड़ों के पूर्वजन्मों के विवरण बताए और वे सभी ऐसे थे, जो तलाश करने पर सही प्रमाणित हुए। इन प्रमाणों की साक्षी कहां से प्राप्त की जाए? इस संदर्भ में उसने अनेकों सरकारी और गैर सरकारी कागजों में दर्ज ऐसे पुराने विवरण बताए, जिनका साधारण रीति से पता लगाना अति कठिन था। साक्षी रूप में वे ढूंढ़े गए तो जैसा कि उल्लेख बताया गया था, ठीक उसी रूप में उसी तरह वह सब मिल गया।
इसी प्रकार उसने ऐसे विवरण भी बताए, जिनमें पुराने जन्मों के दुष्कर्मों का फल इस जनम में मिलने के सिद्धांत की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। इन कष्ट–पीड़ितों में अधिकांश विकलांग एवं रोगी थे। उन्हें यह विपत्ति किस कारण उठानी पड़ रही है? इसके संदर्भ में विवरण बताए गए, वे भी उस कथन की पुष्टि के लिए सबल साक्षी थे। इनकी प्रामाणिकता भी बताए घटनाक्रम के साथ भली प्रकार खोजी गई और जो बताया गया था, वह सही मिला। इस प्रकार होपकिन्स विले रोगों की चिकित्सा-पूर्व जन्म और कर्मफल के तीन तथ्यों पर ऐसे रहस्यमय प्रकाश डालता रहा, जो इससे पूर्व इतनी अच्छी तरह कभी भी सामने नहीं आए थे।
सम्मोहन विद्या के उपयोग द्वारा पुनर्जन्म सिद्धांत की प्रामाणिकता को पुष्ट करने वाले ऐसे ही एक व्यक्ति और हुए हैं। उनका नाम था कर्नल डिरोचाज। दिसंबर 1904 का एक दिन, एक फ्रांसीसी इंजीनियर के घर खचाखच भीड़ से भरे वातावरण में अधेड़ आयु के व्यक्ति कर्नल डिरोचाज ने प्रवेश किया। कर्नल को देखते ही लोगों में खामोशी छा गई। एक सर्वथा विचित्र प्रयोग था। ये लोग पुनर्जन्म के प्रमाण देखने उपस्थित हुए थे। कर्नल ने इंजीनियर की लड़की मेरी मेव को स्वच्छ आसन पर बैठाया, उसकी दृष्टि में अपनी दृष्टि डालकर वे कुछ क्षणों तक एकटक देखते रहे, थोड़ी ही देर में लड़की की बाह्य चेतना शून्य हो चली, कर्नल ने उसे अहिस्ता से लिटा दिया और उसकी देह को हलकी काली चादर से ढक दिया।
देवयोग से कर्नल डिरोचाज ने भारतीय दर्शन की इस मीमांसा की अनुभूति कर ली थी। वे मैस्मेरिज्म के सिद्ध थे और इस विद्या द्वारा जीवन के गूढ़ रहस्यों का पता लगाने में सफल हुए थे। उन्होंने न केवल फ्रांस वरन सारे यूरोप को यह बताया था कि जीवन के बारे में पाश्चात्य मान्यता भ्रामक और त्रुटिपूर्ण है। हमें इस संबंध में अंततः भारतीय दर्शन की ही शरण लेनी पड़ेगी। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए ही वे यह प्रयोग कर रहे थे। उस प्रयोग को देखने के लिए फ्रांस के बड़े शिक्षाविद और वैज्ञानिक भी उपस्थित थे।
मेरी मेव के पिता सीरिया में इंजीनियर थे। मेरी प्रतिभाशाली लड़की थी। मैस्मेरिज्म द्वारा उसे अचेत कर लिटा देने के बाद कर्नल साहब ने उपस्थित लोगों की ओर देखकर कहा—‘‘अब मेरा इस लड़की के सूक्ष्मशरीर पर अधिकार है। मैं इसे काल और ब्रह्मांड की गहराइयों तक ले जाने और वहां के सूक्ष्म रहस्यों का ज्ञान करा लाने में समर्थ हूं।’’
किसी जमाने में भारत में प्राणविद्या के आधार पर प्राणों द्वारा आरोग्य प्रदान करने, गुप्त रहस्य ढूंढ़ने के प्रयोग हुआ करते थे। कर्नल डिरोचाज का यह प्रयोग भारतीय सिद्धांतों का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह अनेक विलायती पत्रों में छपा था। पीछे इसे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मासिक ‘सरस्वती’ में छपाया था। उसी से यह घटना आध्यात्मिकी पुस्तक के लिए उद्धृत की गई। यह पुस्तक इंडियन प्रेस लि0 प्रयोग से प्रकाशित हुई थी।
कर्नल डिरोचाज अब प्रयोग के लिए तैयार थे। उन्होंने मेरी मेव को संबोधित कर पहला प्रश्न किया—‘‘अब तुम्हें कैसा अनुभव हो रहा है, क्या दिख रहा है।’’ प्राणपाश में बद्ध अचेतन कन्या ने उत्तर दिया—‘‘मैं नीले और लाल रंग की छाया देख रही हूं। यह प्रकाश मेरे भौतिक शरीर से अलग हो रहा है और मैं अनुभव कर रही हूं कि मैं शरीर नहीं, प्रकाश जैसी कोई वस्तु हूं, अब मैं अपने शरीर से एक गज के फासले पर स्थित हूं। पर जिस तरह विद्युत कण एक रेडियो और रेडियो स्टेशन से संबंध किए रहते हैं, उसी प्रकार मेरा यह शरीर एक रस्सी की तरह पार्थिव शरीर से बंधा हुआ है। मेरे इस रंगीन प्रकाश शरीर के भीतर दिव्य ज्योति परिलक्षित हो रही है, मैं यही तो आत्मा हूं।’’
कर्नल ध्यानावस्थित हो गए। उन्होंने कहा—‘‘मेव तुम अपनी वर्तमान आयु से कम से कम आयु की ओर चलो और क्रमशः छोटी आयु की ओर चलते हुए यह बताओ कि तुम इस शरीर में आने के पूर्व कहां थीं? कौन थीं?’’
कर्नल के प्रश्न बड़े विचित्र लग रहे थे, पर उनमें एक अदृश्य सत्य झांक रहा था, उपस्थित जनसमुदाय स्तब्ध बैठा सारी गतिविधियों को देख-सुन रहा था। जब यह प्रयोग हो रहा था, मेरी मेव 18 वर्ष की थी। अब वह बोली—‘‘मैं 16 वर्ष की आयु के दृश्य देख रही हूं, अब 14, अब 12 और अब 10 की आयु के चित्र मेरे सामने हैं। इस समय में मारसेल्स में हूं। अपने पति के साथ एक विस्तृत जीवन के दृश्य मेरे सामने हैं। अब मैं क्रमशः छोटी होती जा रही हूं।’’ फिर वह कुछ देर तक चुप रही। फिर बताना प्रारंभ किया। अभी-अभी मैं एक वर्ष की थी बोल नहीं पाई। अब मैं अपने पूर्वजन्म के शरीर में हूं। इस शरीर से निकलने के बाद मुझे किसी अज्ञात प्रेरणा ने ‘मेरी मेव’ के शरीर में पहुंचा दिया था—अब मैं पहले जन्म के शरीर में छोटी हो रही हूं और देख रही हूं कि यह ग्रेट ब्रिटेन का समुद्री तट है, मैं एक मछुए की लड़की हूं। मेरा नाम ‘लीना’ था। 20 वर्ष की आयु में मेरी शादी हुई। मेरी एक कन्या हुई। वह दो वर्ष की आयु में मर गई। मेरा पति मछलियां मारता था। उसके पास एक छोटा-सा जहाज था, वह समुद्री तूफान में नष्ट हो गया, उसी में पति की मृत्यु हो गई, मैं बहुत दुखी हूं, मैं भी समुद्र में डूबकर मर गई हूं, मछलियों ने मेरा शरीर खाया, मैं वह सब देख रही हूं। इस सूक्ष्मशरीर में मैंने वैसी ही अनेक आत्माएं देखीं, मैंने कुछ बात भी करनी चाही, पर मेरी बात ही किसी से नहीं सुनी, मैं पति और बच्चे की याद में भटकती फिरी। वे मुझे मिले नहीं। हां, एक नया शरीर अवश्य मिल गया।’’ यहां तक जो कुछ मेरी ने बताया, पीछे जांच करने पर वह प्रामाणिक तथ्य निकला।
ऐसी ही एक घटना का विवरण एक रूसी विचारक ने दिया है। बात उन दिनों की है, जब रूस में क्रांति मच रही थी। वहां के डेनियल वेवरेस्की नामक प्रसिद्ध विचारक उन दिनों चीन में एक लामा के बारे में उत्सुक थे। उन्होंने सुन रखा था कि वह किसी भी भूतकालीन घटनाओं को स्वप्न में दिखा देने की क्षमता रखता है।
श्री वेवरेस्की उस तांत्रिक से एक बौद्ध मंदिर में मिले और उस तरह का प्रयोग देखने की इच्छा प्रकट की। लाम ने एक नवयुवक पर प्रयोग करके दिखाया। योग निद्रा द्वारा स्वप्न की अनुभूति कराने के बाद लामा ने पाल नामक इस युवक से पूछा—‘‘तुमने क्या देखा?’’ उसने बताया—‘‘मैंने देखा कि मैं रूस के सेंट पीटर्स वर्ग नगर में हूं। मेरी प्रेमिका एक बड़े शीशे के सामने खड़ी शृंगार कर रही है। उसे उसकी दासियां ‘क्रॉस ऑफ अलेक्जेंडर’ हीरे की अंगूठियां पहना रही हैं, मैंने मना किया कि तुम यह अंगूठी मत पहनो। मैंने सारी बात-चीत रूसी भाषा में ही की। अपनी प्रेमिका से मिलन का यह स्वप्न बड़ा ही मधुर रहा। तभी एक दूसरा स्वप्न भी दिखाई दिया। मैंने अपने आप को एक परिवर्तित दृश्य में निर्जन रेगिस्तान में पाया। मेरे दो बच्चे भूख से तड़प रहे हैं, पर मैं उनके लिए भोजन नहीं जुटा पाया। मुझे एक ऊंट ने हाथ में काट लिया मेरा अंत बड़ी दुःखद स्थिति में हुआ।
अपने सम्मुख यह घटना देखने के बाद डॉ0 बेवरेस्की रूस लौटे। देवयोग से एक बार सेंटपीटर्स में उनकी भेंट एक स्त्री से हुई। उससे इस बात का क्रम चल पड़ा, तो वह एकाएक चौंकी और बोली—‘‘आप जिस महल की बातें बता रहे हैं, वह मेरा ही मकान है। मेरे पास ‘क्रॉस ऑफ एलेक्जेंडर’ हीरे की अंगूठी भी थी। मैंने उसे कई बार पहनना चाहा, किंतु मेरा प्रेमी रास्पुटिन इसे पसंद नहीं करता था। ठीक जिस प्रकार आपने पाल की घटना सुनाई, वह मुझे यह अंगूठी पहनने से रोकता था।’’
डॉ0 वेवरेस्की उस स्त्री के साथ उसके घर गए। हूबहू वही दृश्य जो स्वप्न में देखकर पाल ने बताए थे। वे आश्चर्यचकित रह गए और माना कि स्वप्न सत्य था तथा यह भी कि जीवात्मा के पुनर्जन्म का सिद्धांत मिथ्या नहीं है। वे सहारा जाकर दूसरी घटना की भी जांच करना चाहते थे, पर कोई सूत्र न मिल पाने से वे निराश रह गए। पर सत्य था कि उनको जितनी भी जानकारियां मिलीं उन्होंने इन मान्यताओं का समर्थन ही किया। इन घटनाओं का उल्लेख प्रो0 वेवरेस्की ने अपने ग्रंथ ‘दि मेकर ऑफ हेवनली ट्रेजर्स’ में किया है।
गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं—
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।                       तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ।।     —अध्याय 4/5

‘‘अर्जुन मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म बीत गए हैं। ईश्वर होकर मैं उन सबको जानता हूं, परंतु हे परंतप! तू उसे नहीं जान सका।’’
थियोसॉफी के जन्मदाताओं में से एक सर ओलिवर लाज ने लिखा है—‘‘जीवित और मृतभेद स्थूल जगत तक ही सीमित है। सूक्ष्मजगत में सभी जीवित हैं। मरने के बाद आत्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। जिस प्रकार हम जीवित लोग परस्पर विचार-विनिमय करते हैं, उसी प्रकार जीवित और मृतकों के बीच में आदान-प्रदान हो सकना संभव है। हमें विज्ञान के इस नए क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए और एक ऐसी दुनिया के साथ संपर्क बनाना चाहिए, ताकि हम विश्व-परिवार को कहीं अधिक सुविस्तृत, सुखी और प्रगतिशील बना सकें।’’
सर आर्थर कानन डायल भी इसी विचार के थे। वे कहते थे कि अपनी दुनिया की ही तरह एक और सचेतन दुनिया है, जिसके निवासी न केवल हमसे अधिक बुद्धिमान हैं, वरन शुभ चिंतक भी हैं। इन दोनों संसारों के बीच यदि आदान-प्रदान का मार्ग खुल सके, तो इसमें स्नेह-संवेदनाओं का सुखद सहयोग का एक नया अध्याय प्रारंभ होगा। मृतकों और जीवितों के बीच संपर्क स्थापना का प्रयास यदि अधिक सच्चे मन से किया जा सके, तो अब तक की प्राप्ति वैज्ञानिक उपलब्धियों से कम नहीं, वरन बड़ी सफलता ही मानी जाएगी तथा यह भारतीय प्रतिपादन पुष्ट हो जाएगा कि जन्म और मृत्यु मात्र स्थूल जगत की घटनाएं हैं। ‘‘न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं’’ आत्मा न कभी जन्म लेती है और न कभी मरती है। यह कथन सत्य है एवं जीवन में उतारने योग्य भी।
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