
स्वर्ग, नरक एवं कर्मफल
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कर्मफल व्यवस्था के मूलभूत सूत्रों को भली भांति समझ लेने के बाद स्वर्ग, नरक संबंधी लोकमान्यता का भी स्पष्टीकरण संभव है। जनमानस में यह स्वर्ग के ऊपर आकाश में एवं नरक के नीचे पाताल में होने की मान्यता संव्याप्त है। इस संदर्भ में वैज्ञानिक जांच-पड़ताल निराशा उत्पन्न करती व अविश्वास बढ़ाती है। क्या स्वर्ग-नरक की मान्यता गलत है? ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि कर्मफल को किसी-न-किसी रूप में दर्शन ने स्वीकार किया है। मूल तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि बुरे कर्मों का प्रतिफल दुःख और सत्कर्मों की परिणति सुख के रूप में होती है। यह कार्य परलोक में चित्रगुप्त द्वारा किया हुआ बताया जाता है। प्रश्न केवल इस पौराणिक प्रसंग के तर्कसम्मत स्पष्टीकरण का रह जाता है। कौन है यह चित्रगुप्त एवं यह किस माध्यम से दुःख-सुख की व्यक्ति को अनुभूति कराता है?
यह चित्रगुप्त, अपना ही गुप्त चित्र अचेतन मन है। इसमें अन्याय कृत्य करते रहने के लिए यह विशेषता भी है कि क्रिया की प्रतिक्रिया उत्पन्न करके स्वसंचालित पद्धति के अनुसार दंड-पुरस्कार की व्यवस्था भी करता रहे। हम स्वयं ही आग छूते और स्वयं ही जलन अनुभव करते हैं। विष खाते और मरते हैं। विद्या पढ़ते और श्रेय पाते हैं। कुकर्म करते और आत्मप्रताड़ना भुगतते हैं। इसके लिए किसी अन्य मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसी प्रकार शुभ-अशुभ कर्मों का भला-बुरा प्रतिफल पाने के लिए अपने भीतर ही ऐसा तंत्र विद्यमान है, जो समुचित दंड-पुरस्कार की व्यवस्था करता रहे। देर-सवेर में जीवित स्थिति में भी यह प्रतिफल प्राप्त होते हैं और मरणोत्तर जीवन में भी वहां की परिस्थितियों के अनुसार ऐसी व्यवस्था हो सकती है, जिसमें कि पाप-पुण्य के फलस्वरूप उपलब्ध होने वाली प्रतिक्रियाओं की भली-बुरी अनुभूति का कोई-न-कोई क्रम चलता रहे।
स्वर्ग-नरक की मूल स्थापना कर्मफल की सुनिश्चितता प्रकट करने के लिए की गई है। वर्णनों के साथ जुड़े हुए घटनाक्रमों में जो विसंगतियां हैं, उन पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं। यह धर्म दर्शन के प्रवक्ताओं ने सामान्य जनों को उनकी अभ्यस्त अनुभूतियों का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए निर्धारित की है। जिन देशों में जिन क्षेत्रों में, जिन समुदायों में सुख-दुःख की अनुभूति जिस स्तर की होती है, उन्हीं को स्मरण दिलाते हुए स्वर्ग-नरक का वर्णन किया गया है। यही कारण है कि संसार के विभिन्न भागों में इस संदर्भ में जो वर्णन किए गए हैं, उनके बीच अंतर पाया जाता है। इतने पर भी फल तथ्य जहां-का-तहां रहता है। अशुभ कर्मों का फल दुःखदायक और सत्कर्मों की प्रतिक्रिया सुख-संतोष से भरी-पूरी होनी चाहिए, यह स्थापना हर दृष्टि से सही है। इस विश्वास के उपरांत स्वर्ग-नरक के चित्र-विचित्र वर्णन भी कोई असमंजस उत्पन्न नहीं करते, वरन् स्थानीय परिस्थितियों के साथ तालमेल बैठाने की उन प्रतिपादन-कर्त्ताओं की सूझ-बूझ की प्रशंसा ही करते हैं।
पौराणिक दृष्टि से विभिन्न धर्म संप्रदायों में स्वर्ग-नरक संबंधी अपनी-अपनी मान्यताएं हैं। श्रीमद्भागवत में 28 नरकों का वर्ण है, जो पृथ्वी से नीचे किंतु पानी के ऊपर हैं। गरुड़ पुराण में नरकों का इतना विस्तृत वर्णन है मानो उनमें किसी समूचे ग्रह-नक्षत्र जितना बड़ा क्षेत्र हो और उसके असंख्यों कर्मचारी उसी उत्पीड़न प्रक्रिया में निरत रहते हों। हिंदू धर्मानुयायी दक्षिण दिशा में नरक बताते हैं, किंतु पारसियों का उत्तर में है। मुसलमानों के दोजख में आग की लपटें उठती रहती हैं, जबकि ईसाइयों के यमदूत त्रिशूलधारी दानवों के रूप में मार-काट मचाते रहते हैं।
जापानियों के नरक में बारह बिरादरी के घिनौने प्राणियों की भरमार है, तो यूनानियों की ‘स्टिक्स’ नदी, हिंदुओं की वैतरणी के समान ही सड़े पानी और काटने वाले कीड़ों से भरी है। अंतर इतना ही है कि हिंदुओं को गाय की पूंछ पकड़कर पार होने की सुविधा है और यूनानियों के मुरदे जितना पैसा मरते समय मुंह में दाबकर ले जाते हैं, उतने ही टैक्स से घटिया जलपान प्राप्त करते हैं। दोनों ही मान्यताओं में वह गौ या मुरदे की राशि पुरोहितों के घर पहुंचती है।
स्वर्ग के संबंध में एक मत इतना ही है कि वहां सुख-साधनों की कमी नहीं, पर वे साधन हैं किस प्रकार के, इस संबंध में ऐसे वर्णन हैं, जो एक दूसरे से तालमेल नहीं खाते। यूनानी भी ईसाइयों की तरह ही सात स्वर्ग मानते हैं। मुसलमानों का खुदा भी सबसे ऊंचे स्वर्ग सातवें आसमान पर अवस्थित है। प्रायः प्रशांत महासागर की सीध में बहुत ऊंचाई पर यूनानियों का स्वर्ग है, जिसमें हिंदुओं के नंदन वन जैसा मीठे फलों वाला एक विशाल एवं रमणीक उद्यान है। स्कैंडीनेविया का एस गार्ड विशाल भवन ही स्वर्ग है। इस महल के 450 दरवाजे हैं। चीनियों का ‘यांग’ सुनहरे प्रकाश और सुख-सुविधाओं से भरा-पूरा है। जापान के स्वर्ग में स्वर्ण पर्वत पर भगवान बुद्ध भव्य कमलासन पर विराजमान हैं। चारों ओर संत विराजमान हैं। स्वर्ग यात्री भी उन्हीं की पंक्ति में जा बैठता है और ज्ञानामृत का पान करता है। वेदकाल की मान्यताओं में कामधेनु गौ और कल्पवृक्ष के माध्यम से स्वर्ग पाए व्यक्ति सभी अभीष्ट सुविधाएं प्राप्त करते हैं।
मध्यकाल में सामंती विलासिता ने युद्धोन्माद को जन्म दिया था। इसके लिए कटने-काटने वाले योद्धाओं की आवश्यकता पड़ती थी। उन्हें लूट-पाट में हिस्सा और मोटा वेतन तो मिलता ही था, पर इसके अतिरिक्त स्वर्ग में उन सुविधाओं का बाहुल्य भी दरसाना पड़ता था, जिनके लिए वे लालायित रहते हैं। ऐसे प्रलोभनों में धन-संपदा के उपरांत कामुकता की तृप्ति ही बड़ा आकर्षण रह जाता है।
इसीलिए युद्ध में मरने वालों को स्वर्ग मिलने के आकर्षण का पूरा-पूरा लालच दिखाया गया है। इंद्रलोक में परियों की भरमार है, जो वीर गति पाने वाले सभी योद्धाओं की मनोकामना पूर्ण करने के लिए हर घड़ी उत्सुक आतुर रहती हैं। सात्तारों का मिलना और शराब की नहर से हर घड़ी सुरापान करने का चित्रण भी उसी मनोवृत्ति का परिचायक है।
मरने के बाद किसी स्थान विशेष पर पहुंचकर सुख-दुःख की उपलब्धि के संबंध में आस्तिक परामनोविज्ञानियों का मत है कि लंबे समय तक दिन-रात श्रम में संलग्न रहने के उपरांत मृतात्मा को कुछ समय विश्राम की आवश्यकता पड़ती है। श्रम के साथ विश्राम का अविच्छिन्न संबंध है। एक के बिना दूसरे की गति नहीं। दिन-रात की तरह यह चक्र सर्वत्र चलता है। जन्म और मरण के मध्य भी कुछ ऐसा ही अवकाश समय मिलता है जैसा कि सरकारी कर्मचारियों की बदली होते समय कुछ समय का अवकाश मिलने का अवसर रहता है। मृतात्मा अनंत-अंतरिक्ष में अपनी भारहीन स्थिति में किसी अनुकूल स्थान पर गहरी तंद्रा में चला जाता है और प्रगाढ़ निद्रा में विश्राम-लाभ करता है। इस अवधि में भले-बुरे स्वप्न भी आते हैं। दैनिक जीवन में भी निद्रा सर्वथा स्वप्न रहित नहीं होती, उसका प्रायः आधा समय स्वप्नावस्था में व्यतीत होता है। उद्विग्न दिनचर्या में निरत रहने वालों के सपने भी भयानक एवं असंतोषजनक होते हैं, जबकि शांत और प्रसन्न दिनचर्या बिताने वालों के सपने भी सुरुचि और प्रसन्नता के माध्यम बनते हैं। ठीक इसी प्रकार मृतात्मा को मरणोत्तर जीवन के विश्रामकाल में ऐसी भली-बुरी अनुभूतियां होती हैं, जिन्हें स्वर्ग या नरक कहा जा सके। मरणोत्तर काल की विश्राम वेला में ऐसी स्वप्न-शृंखला चलती रहती है, जिसमें भली या बुरी सुखद कष्टकारक अनुभूतियों का अवसर मिलता रहे।
प्रत्यक्षवादियों ने पूर्वजन्म के भले-बुरे कर्मों का प्रतिफल जन्मजात अपंगताओं एवं प्रतिभाओं के रूप में प्रतिपादित किया है। वे कहते हैं कि कितने ही लोग अपने जन्मकाल से ही कुछ असामान्य प्रकृति साथ लेकर आते हैं। इनमें विलक्षण मेधावानों के, कलाकारों के उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं, जो बिना प्रशिक्षण एवं वातावरण के भी ऐसी प्रतिभा का परिचय देने लगे, जिनकी प्रस्तुत परिस्थितियों के साथ कोई संगति नहीं बैठती। वंशानुक्रम, सुविधा-साधन, सहयोग, अवसर आदि के आधार पर ही आमतौर से किसी की विशेष प्रतिभा या प्रगति का तारतम्य जोड़ा जाता है। पर जहां अनोखापन दृष्टिगोचर होने लगे, तो यही कहना पड़ता है कि पूर्वसंचित पुण्य या सुसंस्कार अनायास ही फलित होने लगे।
नरक के संबंध में भी इस क्षेत्र का प्रतिपादन यही है। कुछ बालक जन्म से अपंग, असमर्थ, मूढ़मति एवं कुसंस्कारी होते हैं। यह उन्हें वहां से नहीं मिली होतीं, जहां कि वे जन्मे। वैसी विपन्नता का कोई प्रत्यक्ष कारण दृष्टिगोचर न होने पर यही मानकर संतोष करना पड़ता है कि यह पूर्वजन्मों के शुभ-अशुभ संस्कारों की जन्मजात प्रतिक्रिया है।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार मनोविकारों के शरीर व मन पर प्रभाव के रूप में परिणति ही कर्मफल मिलना है। यही हाथोंहाथ उपलब्ध होने वाला स्वर्ग-नरक है। क्या सही है, क्या गलत किंतु कर्मफल की सुनिश्चितता का तथ्य ऐसा है, जिसे अकाट्य ही समझना चाहिए। किए हुए भले-बुरे कर्म अपने परिणाम सुख-दुःख के रूप में प्रस्तुत करते रहते हैं। दुःखों से बचना हो तो दुष्कर्मों से पिंड छुड़ाना चाहिए, सुख पाने की अभिलाषा हो तो सत्कर्म बढ़ाने चाहिए। ईश्वर को प्रसन्न और रुष्ट करना सत्कर्मों एवं दुष्कर्मों के आधार पर ही बन पड़ता हे, यह एक ध्रुव सत्य है।