
मरण—सृजन का उल्लास भरा पर्व
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कारखानेदार पुरानी मशीनें हटाते, पुरानी मोटरें बेचते रहते हैं और उनके स्थान पर नई मशीन, नई मोटर लगाते हैं। इससे कुछ असुविधा नहीं होती, सुविधा ही बढ़ती है। पुरानी मशीन आएदिन गड़बड़ी फैलाती थी, पुरानी मोटर धीमे-धीमे और रुक-रुककर चलती थी। नई लग जाने से वह पुरानी अड़चनें दूर हो गईं। नई के द्वारा बढ़िया काम होने लगा। जीर्णता के साथ कुरूपता बढ़ती है और नवीनता में सौंदर्य रहता है। पुराने पत्ते रूखे, शुष्क और कठोर हो जाते हैं, जबकि नई कोपलें कोमल और सुंदर लगती हैं। पुराने पत्ते झड़ने पर, पुरानी मशीन उखड़ने पर, पुरानी मोटर बिकने पर कोई इसलिए रंज नहीं मानता कि अगले ही दिन नवीन की स्थापना सुनिश्चित है।
आत्मा अनादि और अनंत है। वह ईश्वर जितनी ही पुरातन है ओर कभी नष्ट न होने वाली सनातन है। उसकी मृत्यु संभव नहीं। शरीर का परिवर्तन स्वाभाविक ही नहीं, आवश्यक भी है। हर पदार्थ का एक क्रम है—जन्मना, बढ़ना और नष्ट होना। नष्ट होना एक स्वरूप का दूसरे स्वरूप में बदलना भर है। यदि यह परिवर्तन रुक जाए तो मरण तो बंद हो सकता है, जन्म की भी कोई संभावना न रहेगी। यदि जन्म का उल्लास मनाने की उत्कंठा है, तो मरण का वियोग भी सहना ही होगा। वधू अपने मां-बाप से बिछुड़कर सास-श्वसुर पाती है, सहेलियों को छोड़कर पति को सहचर बनाती है। यदि मायका छोड़ने की इच्छा ही न हो तो फिर ससुराल की नवीनता कैसे मिलेगी?
पीतल के पुराने बरतन टूट जाते हैं, तब उस धातु को भट्ठी में गलाकर नया बरतन ढाल देते हैं। वह सुंदर भी लगता है, सुदृढ़ भी होता है। पुराने टूटे, चूते-रिसते, छेद, गड्ढे और दरारों वाले शरीर रूपी बरतन को चिता की भट्ठी में गलाया जाना तो हमें दीखता है, पर उसकी ढलाई की फैक्टरी कुछ दूर होने से दीख नहीं पड़ती है। सोचते हैं पुराना बरतन चला गया। खोज करने से विदित हो जाएगा कि वह गया कहीं भी नहीं जहां-का-तहां है, सिर्फ शक्ल बदली है।
पुराने मकान टूट-फूट जाते हैं। उन्हें गिराकर नया बनाना सुरक्षा और सुविधा की दृष्टि से आवश्यक है। नया बनाने के लिए जब पुराना गिराया जा रहा होता है तो कोई रोता-कलपता नहीं। शरीर के मरने पर फिर दुखी होने का क्या कारण है?
बहुत दिन साथ रहने पर बिछुड़ने का कष्ट उन्हें होता है, जिनकी ममता छोटी है। कुछ ही चीजों जिन्हें अपनी लगती हैं, कुछ ही व्यक्ति जिन्हें अपने लगते हैं, वे प्रियजनों के बिछोह की बात सोचकर अपनी संकीर्णता का ही रोना रोते हैं। वस्तुतः कोई किसी से कभी बिछुड़ने वाला नहीं है, समुद्र में उठने वाली लहरें जन्मती और मरती भर दीखती हैं, पर यथार्थ में समुद्र जहां-का-तहां है। कोई लहर कहीं जाती नहीं, सागर का अस्तित्व समग्र जहां-का-तहां परिपूर्ण रहता है। कुछ समय के लिए बादल बनकर उड़ भी जाए, तो नदियों के माध्यम से फिर अगले क्षण उसी महाजलाशय में आकर कल्लोल करता है। मरने के बाद भी कोई किसी से नहीं बिछुड़ता। सूर्य की किरणों की तरह हम सब एक ही केंद्र में बंधे हुए हैं। कुछेक प्राणी ही हमारे हैं, अन्य सब बिराने हैं, इस सीमाबद्धता से ही हमें शोक होता है।
मृत्यु का अर्थ है—कुरूपता का सौंदर्य में परिवर्तन। अनुपयोगिता के स्थान पर उपयोगिता का आरोपण। इससे डरने का न कोई कारण है और न रुदन करने का। वह तो उल्लासप्रद उत्सव है।
इस तथ्य से अपरिचित लोग मृत्यु का विचार आते ही अजीब तरह से हताश तथा उदास हो जाते हैं। मृत्यु का नाम हृदय पर एक ऐसा धक्का मारता है, जिससे जब तक उसका प्रभाव दूर नहीं हो जाता, हृदय एक भयपूर्ण विरक्ति से भरा रहता है। मृत्यु का भय उन्हें यहां तक कायर तथा मिथ्यापूर्ण बना देता है कि नित्यप्रति अनेक लोगों को मरते देखकर भी अपने मरने की कल्पना में संदिग्धता का समावेश कर लिया करते हैं। भय के कारण वे अपने हृदय में इस सत्य को पूरी तरह स्थान नहीं दे पाते कि एक दिन उन्हें इस संसार को छोड़ ही देना है।
इसमें संदेह नहीं कि जो मनीषी व्यक्ति मृत्यु के अनिवार्य सत्य को साहस के साथ हृदयंगम कर लेते हैं, वे न केवल उसके भय से ही मुक्त रहते हैं, प्रत्युत जीवन का पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं। जिन्हें यह विश्वास रहता है कि न जाने मृत्यु किस समय अपनी गोद में उठा ले, वे जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग कर लेने में बड़ी तत्परता तथा सतर्कता से लगे रहते हैं। वे बहुत कुछ मृत्यु की वेला से पूर्व कुछ कर डालने के लिए प्रयत्नों में कमी नहीं रखते। मृत्यु का वास्तविक विश्वास उन्हें अधिकाधिक सक्रिय बना देता है।
इसके विपरीत जो मिथ्या विश्वासी मृत्यु से डर-डरकर जीवन में रेंगते हैं, वे बेचारे कुछ दूर भी ठीक से नहीं चल पाते। मृत्यु आकर उन्हें पकड़ ले जाती है। मृत्यु–जन्म अटल है, अनिवार्य है, तब उससे डरना क्या? मृत्यु से न डरने वाले ही उसे वरण करके चिरंजीवी बनते हैं।
मृत्यु से अभय रहने वाला व्यक्ति उसे एक चुनौती मानकर साहस तथा उत्साहपूर्वक जीता हुआ यह कोशिश करता है कि वह जीवन के राजकुमार की तरह मृत्यु का मेहमान बने। जीवन की तरह मृत्यु भी उसे पाकर कृतार्थ हो जाए।
मनुष्य की स्वाभाविक वृत्तियों में भय की गणना भी की गई है। किंतु वह भय कायरता का नहीं, सतर्कता का लक्षण है। यों तो कोई भी मरना नहीं चाहता। मृत्यु से बचने का हर संभव उपाय किया करता है। सड़क पर चलते मोटर से बचना, नदी में नहाते समय डूबने से सावधान रहना, मृत्यु भय नहीं है। हिंस्र जंतुओं, रोगों तथा शत्रुओं से जीवन-रक्षा करने में यथासंभव उपायों का करना स्वाभाविक है। निरर्थक एवं निरुद्देश्य मर जाना कोई वीरता नहीं मूर्खता है। ‘हाय मैं मर जाऊंगा’ की ही भावना ही मृत्यु का वह भय है, जो कायरता की कोटि में आता है। मनुष्य को ‘हाय मर जाऊंगा’ की ही हीन भावना में वशीभूत होकर कायरता का परिचय नहीं देना चाहिए।
‘हाय मर जाऊंगा’ की भावना में रो-तड़पकर मृत्यु से बचा तो जा ही नहीं सकता। उलटे यह भावना जीवन को बोझिल एवं भयावह बना देती है। मृत्यु से निरपेक्ष रहकर जीवन-रक्षा का हर संभव बना देती है। मृत्यु से निरपेक्ष रहकर जीवन-रक्षा का हर संभव उपाय करते हुए, आ जाने पर साहसपूर्वक उसका सहर्ष आलिंगन करने में ही पुरुषार्थ की शोभा है। महान मृत्यु के अवसर पर जीवन का मोह अश्रेयस्कर दुर्बलता है।
मृत्यु का भय उत्पन्न करने में परलोक की चिंता का बहुत बड़ा हाथ है। लोगों का यह सोचते रहना कि मर जाने के बाद न जाने हमारा क्या होगा? हम कहां, किस लोक अथवा योनि में भ्रमण करेंगे? न जाने हमारी सद्गति होगी अथवा अगति? मृत्यु भय को एक बड़ी सीमा तक बढ़ा देता है? परलोक की चिंता ठीक है, वह करनी भी चाहिए। किंतु इस शुभ चिंता से मृत्यु के अशुभ भय का पैदा होना बड़ी ही असंगत तथा अस्वाभाविक बात है। फिर भी परलोक की चिंता से लोगों में मृत्यु का भय उत्पन्न होता है। इसका एकमात्र कारण लोक को बिगाड़कर चलना है। परलोक का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। परलोक इस लोक की परिणति है। जिस प्रकार का हमारा लोग होगा, हमारे लिए उसी प्रकार के परलोक की रचना होगी। यदि हमने अपने आलस्य, अकर्म, अकर्त्तव्य अथवा अनीति, अत्याचार से अपने लोक को दग्ध कर लिया है और ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, काम, क्रोध, मोह आदि विकारों तथा वासनाओं से विषैला बना लिया है, तो निश्चय ही उसी के अनुसार हमें चलते हुए लोकों को साकार करने पर विवश होना ही होगा। यदि हम जानते हुए भी हुए अपने कर्मों से पतित परलोकों की रचना के लिए लोक में नींव रख रहे हैं, तो मृत्यु के उपरांत उसका दंड भोगना ही है और इसीलिए मृत्यु की कल्पना आते ही भय से सिहर उठते हैं।
इसके विपरीत यदि हम लोक को परलोक का आधार मानकर उसे सजाने, संवारने और सुंदर बनाने के शुभ प्रयत्नों को ईमानदारी से करते रहें, तो मृत्यु की कल्पना हमें विभोर करती रहे। क्योंकि हम जानते हैं, कि हम जो कुछ शिव तथा सुंदर कर रहे हैं, वह हमारे लिए मंगलमय परलोक की रचना कर रहा है, जिनको हम मृत्यु के उपरांत पुरस्कार के रूप में पाएंगे।
मनुष्य का विचार सान्निध्य भी मृत्यु के विषय में भय-अभय का कारण होता है। जिसकी चिंतनधारा जितनी अधिक जीवन के समीप रहेगी, वह उतना ही कम मृत्यु से डरेगा और जिनके विचार जितना अधिक मृत्यु का चिंतन करेंगे, वह उतना ही उससे भयभीत रहेगा। मृत्यु का चिंतन क्या करना? वह अपने समय पर आएगी, आती रहेगी, उसका विचार छोड़कर मनुष्य को जीवन की आराधना में लगा रहना चाहिए। चिंतन का विषय जीवन है, मृत्यु नहीं। मृत्यु का चिंतन करने से जीवनीशक्ति का ह्रास होता है, जिससे मृत्यु का भय स्थायी रूप से सूक्ष्म में बस जाया करता है। ऐसी भयपूर्ण स्थिति में कर्तव्यों का पालन यथाविधि नहीं हो पाता, जो स्वयं एक बड़ा दुःखद प्रसंग होता है। मनुष्य जब ठीक प्रकार से अपने कर्त्तव्यों में लगा रहता है, मृत्यु का भय उसके पास नहीं फटकने पाता। कर्त्तव्यों की आपूर्ति इस विचार के साथ मृत्यु का भय लाती है कि यह नहीं कर पाया, वह करने को रह गया है। सारा जीवन बेकार जा रहा है। यों ही दिन गुजर जाएंगे और एक दिन मृत्यु के मुख में चला जाना होगा। मनुष्य अपनी स्थिति के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन तत्परता से करता रहे, तो भी मृत्युभय उसे नहीं सताने पाए। फिर वह कर्त्तव्य छोटे हों अथवा बड़े, साधारण हों अथवा असाधारण, कर्त्तव्यहीन, अकर्मण्यता तो साक्षात मृत्यु ही कही गई है।
बहुत-से लोग अपनी बात की स्थिति पर विचार करते-करते मृत्यु से भयभीत होने लगते हैं। मेरे बाद न जाने क्या होगा? मेरे मर जाने पर बीवी-बच्चे क्या करेंगे? कहां किसका आश्रय लेंगे? पता नहीं क्या-क्या कष्ट उठाने पड़ेंगे? इस प्रकार की कल्पनाएं निरर्थक ही हैं। ऐसे लोग अपनी को ही बीबी-बच्चों का विधाता समझते हैं। वे समझते हैं कि जब तक वे जिंदा हैं, बीबी-बच्चों के लिए स्वर्ग-संचय कर रहे हैं। उनके न रहने के बाद वे यातनापूर्ण नरक में गिर जाएंगे। मानों उन सबकी जीवन-गाड़ी उनकी जिंदगी से चल रही है, जिसके खतम होते ही सबका खेल खतम हो जाएगा। दूसरों के लिए अपने को सब कुछ समझना दंभ है। जब हम नहीं थे, संसार का सारा काम चल रहा था और जब नहीं रहेंगे, तब भी सब काम चलता रहेगा। संसार का कोई काम किसी के न रहने से रुकता नहीं। यह बात सही है कि हमारा जीवन आश्रितों के लिए आवश्यक है। किंतु इस आवश्यकता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम अपने न रहने की कल्पना के साथ उनका जीवन जोड़कर कायरों की तरह मृत्युभय से रोते-कलपते रहें। अपने बाद की कल्पना के भयावह चित्र बनाने के बदले हमारी बुद्धिमानी इसी में है कि हम मरने के पूर्व ईमानदारी के साथ अपने आश्रितों की बेहतरी के लिए जो कुछ कर सकें, करें। ऐसा करने से ही अपने बाद की चिंता की सार्थकता है, केवल कल्पना करते रहना मूर्खता ही होगी। मृत्यु को भय का कारण बनाने की अपेक्षा उसे अपने कर्मों का सजग प्रहरी बनाकर चलने वाले सदाशयी व्यक्ति यशस्वी जीवन के अधिकारी बनते हैं।