
निरंतर गतिशील जीवन-प्रवाह
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पुनर्जन्म होने और पूर्वजन्म की स्मृति बनी रहने वाली घटनाओं की शृंखला में एक कड़ी माइकेल शेल्डन की इटली यात्रा की है। इटली में तो प्रत्यक्षतः उसे कुछ आकर्षण नहीं था और न कोई ऐसा कारण था जिसकी वजह से इस यात्रा के बिना उसे चैन ही न पड़े, कोई अज्ञात प्रेरणा उसे इसके लिए एक प्रकार से विवश कर रही थी। माइकेल ने यात्रा के कुछ ही पूर्व एक स्वप्न देखा कि वह इटली के किसी जानी-पहचानी गली में घुसकर एक पुराने मकान में जा पहुंचा है। जीने में चढ़ते हुए वह चिर-परिचित दुमंजिले कमरे में सहज स्वभाव घुस गया और देखा एक लड़की घायल पड़ी है, उसके गले पर छुरे के गहरे घाव हैं और रक्त बह रहा है। अनायास ही उसके मुंह से निकला—मारिया! मारिया!! घबराना मत, मैं आ गया। सपना टूटा। शेल्डन इस विचित्र स्वप्न का कुछ मतलब न समझ सका और आतंकित बना रहा। फिर भी यात्रा तो उसने की ही।
जब वह जिनोआ की सड़कों पर ऐसे ही चक्कर लगा रहा था, तो उसे वही स्वप्न वाली गली दिखाई पड़ी। अनायास ही पैर उधर मुड़े और लगा कि वह किसी पूर्वपरिचित घर की ओर चला जा रहा था। स्वप्न में देखी कोठरी यथावत थी, वह सहसा चिल्लाया—मारिया! मारिया!! तुम कहां हो?
जोर की आवाज सुनकर पड़ोस के घर में से एक बुढ़िया निकली, उसने कहा—‘‘मारिया तो कभी की मर चुकी। अब वह कहां है? पर तुम कौन हो? बुढ़िया ने शेल्डन को घूर-घूरकर देखा और पहचानने के बारे में आश्वस्त होकर बोली—लुइगी ब्रोंदोनो! तुम तो इतने अरसे बाद लौटे अब तक कहां रह रहे थे?’’
इतना कहकर बुढ़िया हवा में गायब हो गई, तो शेल्डन और भी अधिक अकचकाया उसे ऐसा लगा मानो किसी जादू की नगरी में घूम रहा है। अपरिचित जगह में ऐसे परिचय मानो सब कुछ उसका जाना-पहचाना ही हो। बुढ़िया भी उसकी जानी-पहचानी हो, घर भी गली भी ऐसी है मानो वह वहां मुद्दतों रहा हो। मारिया मानो उसकी कोई अत्यंत घनिष्ठ परिचित हो।
हतप्रभ शेल्डन को एक बात सूझी, वह सीधा पुलिस स्टेशन गया और आग्रहपूर्वक यह पता लगाने लगा कि क्या कभी कोई मारिया नामक लड़की वहां रहती थी? क्या वह कत्ल में मरी? तलाश कुतूहल की पूर्ति के लिए की गई थी, पर आश्चर्य यह कि 122 वर्ष पुरानी एक फाइल ने उस घटना की पुष्टि कर दी।
पुलिस-रेकार्ड के कागजों ने बताया कि उसी मकान में मारिया बुइसाकारानेबो नामक एक 19 वर्षीय लड़की रहती थी। उसकी घनिष्ठता एक 25 वर्षीय युवक लुइगी ब्रोंदोनो नामक युवक से थी। दोनों में अनबन हो गई, तो युवक ने छुरे से उस लड़की पर हमला कर दिया और कत्ल करने के बाद इटली छोड़कर किसी अन्य देश को भाग गया। तब से अब तक उसका कोई पता नहीं चला।
शेल्डन को यह विश्वास पूरी तरह जम गया कि वही पिछले जनम में मारिया का प्रेमी और हत्यारा रहा है। यह तथ्य उसे न तो स्वप्न प्रतीत होता था और न भ्रम वरन् जब भी चर्चा होती, उसके कहने का ढंग ऐसा ही होता मानो किसी यथार्थ तथ्य का वर्णन कर रहा है।
इस घटना को परा मनोवैज्ञानिकों ने अपनी शोध का विषय बनाया। शेल्डन से लंबी पूछ-ताछ की, पुलिस-कागजात देखे और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जो बताया गया है—उसमें कोई बहकावा या अतिशयोक्ति नहीं है। इस प्रकार की अन्य घटनाओं के विवरणों पर गंभीर विचार करने के बाद शोधकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अतींद्रिय चेतना की स्फुरणा से ऐसी घटनाओं की स्मृति भी सामने आ सकती है, जिनका न तो वर्तमानकाल से कोई सीधा संबंध है और न अनुभव करने वाले व्यक्ति को इस तरह की कोई जानकारी या जिज्ञासा। ये स्मृतियां पूर्वजन्म की ही हो सकती हैं।
कोपेनहेगेन (डेनमार्क) में एक छह-सात वर्षीय बालिका थी, उसका नाम था लूनी मार्कोनी। जब वह तीन वर्ष की थी, तभी से वह अपने माता-पिता से कहती रहती कि वह फिलीपाइन्स की है और वहां जाना चाहती है। उसके पिता एक रेस्टोरेंट के स्वामी हैं, वह अपना नाम मारिया एस्पीन बताती। यह बच्ची अपने पूर्वजन्म के संस्मरण इतनी ताजगी से सुनाती, जैसे वह अभी कल-परसों की ही बात हो। उसने यह भी बताया कि उसकी मृत्यु 12 वर्ष की आयु में बुखार आने के कारण हुई थी। लड़की के दावों की जांच करने के लिए परामनोविज्ञान के शोधकर्ता प्रो0 श्री हेमेंद्रनाथ बनर्जी फिलीपाइन्स गए। वहां उन्होंने सारी बातें सत्य पाईं। यह 1968-69 के लगभग की बात है।
ब्रिटेन के सुप्रसिद्ध साहित्यकार डिक्सन स्मिथ बहुत समय तक मरणोत्तर जीवन के संबंध में अविश्वासी रहे। पीछे उन्होंने प्रामाणिक विवरणों के आधार पर अपनी राय बदली और वे परलोक एवं पुनर्जन्म के समर्थक बन गए। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘‘न्यू लाइट ऑन सरवाइवल’’ में उन तर्कों और प्रमाणों को प्रस्तुत किया है, जिनके कारण उन्हें अपनी सम्मति बदलने के लिए विवश होना पड़ा।
हालीवुड के प्रसिद्ध सिनेमा-अभिनेता ग्लेन फोर्ड ने भी अपने पूर्वजन्मों का वृत्तांत बताकर वैज्ञानिकों, परामनोवैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया है। एक दिन अचानक अंगरेजी में बात करते हुए उन्होंने अपना परिचय उन्नीसवीं सदी के एक संगीत शिक्षक के रूप में दिया। पियानो पर उन्होंने उन्नीसवीं सदी की एक प्रचलित धुन भी सुनाई, जबकि इस जीवन में उन्हें पियानो का कोई अभ्यास न था। खोज-बीन करने पर मालूम हुआ कि उक्त संगीतज्ञ की मृत्यु 1891 में क्षय रोग के कारण हुई थी तथा वह एक प्रख्यात संगीतज्ञ था। ग्लेनफोर्ड द्वारा बताए गए सारे विवरण सही पाए गए।
वस्तुतः पिछले चार दशकों में वैज्ञानिकों का चिंतन काफी सीमा तक बदला है एवं उन्होंने प्रमाणों, साक्षियों के आधार पर तथ्यों को मान्यता देना स्वीकार कर लिया है। वैज्ञानिकों की अधिकाधिक संख्या का परामनोविज्ञान में रुचि लेना यही बताता है। पुनर्जन्म के घटना प्रसंग इन वर्षों में बड़ी संख्या में प्रकाश में आए हैं।
सन् 1951 में सहारनपुर में भी ऐसी ही एक घटना घटी। इस घटना का विवरण बाद में धर्मयुग और नवनीत के भूतपूर्व संपादक श्री सत्यकाम विद्यालंकार ने नवनीत पत्रिका में प्रकाशित किया था। श्रीमती वंदना का परिवार सहारनपुर के संपन्न और प्रतिष्ठित परिवारों में से एक था। एक दिन उन्हें डाक से चिट्ठी मिली कि दो साल की एक लड़की बार-बार आपके परिवार से संबंधित होने की बात कहती हैं। उसके माता-पिता संकोचवश कुछ कहना नहीं चाहते, लेकिन मुझे विश्वास है कि यह पुनर्जन्म का मामला है। पत्र में उस परिवार से संपर्क करने का निवेदन भी किया गया था। पहले तो श्रीमती वंदना ने इसे फ्राड समझा और पत्र पर कोई ध्यान नहीं दिया। एक बार जब वे सहारनपुर के ही एक महिलाश्रम के कार्यक्रम में सम्मिलित होने जा रही थीं, तो एक बालिका उनके पास आई, साथ में उसकी मां भी थी। उस बालिका ने वंदना जी की आर इशारा कर कहा—‘‘यह रही मेरी भाभी और यह गुड्डी है, श्रीमती वंदना जानती थी कि दो ही लड़कियां उन्हें भाभी कहती थीं। एक तो उनकी स्वर्गीय लड़की सुधा, जिसकी 21 वर्ष की आयु में चार साल पहले मृत्यु हो चुकी थी और दूसरी जयमाला, जिसे बालिका ने गुड्डी कहा था और उस समय यह श्रीमती वंदना के पास ही बैठी थी। गुड्डी जयमाला का बचपन का नाम था, अब उसे सभी जयमाला कहकर पुकारते थे।’’
श्रीमती वंदना को एकाएक कुछ दिनों पहले मिली चिट्ठी की याद आ गई, पर उनका मन इस बात पर विश्वास करने को नहीं हो रहा था। उक्त बालिका जिसका नाम सरला था, वंदनाजी की गोदी में आकर बैठ गई। सरला की मां उस समय महिलाश्रम द्वारा चलाए जा रहे स्कूल में अध्यापिका थीं और वंदना के पति सेठ लक्ष्मण प्रसाद उस स्कूल के प्रबंधकों में से थे। कई तरह के सवाल-जवाब के बाद वंदना जी सरला को अपनी कोठी ले गईं, ताकि वास्तविकता का पता लगाया जा सके। वंदना जी की कार जैसे ही कोठी के सामने पहुंची वैसे ही सरला जी ने अपनी सीट पर से उतरते हुए कहा—‘‘आ गई मेरी कोठी।’’ कार में से सबसे पहले सरला जी ही उतरीं। उतरते ही वह कोठी के अंदर तेजी से इस तरह दौड़ती चली गईं जैसे वह कोठी उसकी जानी-पहचानी हो। सरला ने कोठी में पिछले जन्म की अपनी अलमारी, पुस्तकों, कपड़ों और अन्य वस्तुओं के बारे में बताया, जो अक्षरशः सत्य निकलीं।
नौ साल की आयु तक सरला को अपने पिछले जन्म की सभी बातें याद रहीं। बाद में वह उन बातों को धीरे-धीरे भूलने लगी। इस घटना का विवरण लिखते हुए बाद में श्री विद्यालंकार ने लिखा—‘‘पिछले दिनों यात्रा में मुझे श्रीमती वंदना, जिनकी आयु लगभग 65 वर्ष थी, मिलीं। उन्होंने मुझे यह घटना बताई। यह घटना आत्मा की जन्म-जन्मांतरों में होने वाली यात्रा का समर्थन करती है। पूर्वजन्म संबंधी इस घटना के ये अनुभव पूरी तरह प्रामाणिक हैं, ऐसा मेरा विश्वास है। क्योंकि श्रीमती वंदना से मैं स्वयं बहुत अच्छी तरह परिचित हूं।’’
8 अगस्त 1980 दैनिक पत्र हिंदुस्तान के रविवार अंक में छपी पुनर्जन्म की एक और घटना उल्लेखनीय है। ‘सिम्मी’ नामक एक बालिका का जन्म ग्राम बस्सी पढाणां जिला पटियाला (पंजाब) के निवासी ईश्वरीदास पाठक के घर 2 फरवरी 1976 को हुआ। एक दिन अपने माता-पिता से बोली कि, मैं अपने पति मोहिंदर सिंह को देखना चाहती हूं। बालिका ने उक्त व्यक्ति का पता भोजपुर बाजार, सलापड़ मंडी के निकट बताया। बारंबार आग्रह करने पर वास्तविकता का पता लगाने के लिए उसके पिता उक्त ग्राम में पहुंचे। पूछताछ द्वारा मालूम हुआ कि मोहिंदर सिंह नामक एक ड्राइवर है। उसकी पत्नी कुछ वर्ष हुए मर गई। उसने मोहिंदर सिंह को देखते ही पहचान लिया तथा बताया कि पूर्वजन्म के उसके पति हैं। बालिका ने अनेक ऐसे प्रामाणिक घटनाओं का भी उल्लेख किया जिसकी जानकारी मात्र मोहिंदर सिंह एवं उसकी पत्नी को थी। इसी आधार पर यह घटना विश्वस्त व प्रामाणिक मानी गई।
सन् 1953-54 में अमेरिका के मर्सर नाम के एक कस्बे में एक साधारण परिवार में जुड़वां लड़कियों ने जन्म लिया। एक का नाम रखा गया गेल और दूसरी का सुसान। दोनों को ही खेलने-कूदने का बड़ा शौक था और पढ़ाई-लिखाई में उनका कम ही मन लगता था। पर जैसे-जैसे दोनों बड़ी होने लगीं, गेल गंभीर रहने लगी और ऐसी बातें कहने लगी, जो उसने न तो कभी पढ़ी थी और न ही सुनी थी। उदाहरण के लिए वह कुछ यहूदियों के नाम लेती। आरंभ में तो वह अपनी बहन से ही इस तरह की बातें करती, परंतु पिता को जब इस बात का पता चला, तो उन्होंने पूछा, ‘‘तुम इन लोगों को कैसे जानती हो? यहां आस-पास तो कोई यहूदी नहीं है।’’ गेल ने बताया कि ये लोग जर्मनी के हैं और पिछले जन्म में उसके साथ रहे थे। इन लोगों के साथ वह हिटलर के यातना शिविर में रही थी और उस शिविर में ही उनकी मृत्यु हो गई थी।
गेल बार-बार इस तरह की बात दोहराती, तो उसके पिता ने अमेरिका के एक पुनर्जन्म विशेषज्ञ को यह सब बताया। परामनोविज्ञान शास्त्री डॉ0 जूलहर्ट ने इस मामले की गंभीरता से जांच की और पाया कि गेल जो भी बातें कहती है, वे सब सही हैं। तथ्यों के रूप में उनके प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं। आश्चर्य की बात तो यह कि ईसाई परिवार में जन्म लेने के बावजूद भी गेल अपने को यहूदी मानती थी। 18 साल की आयु में भी उस पर पिछले जन्म के संस्कार इतने प्रभावशाली थे कि वह अपने कस्बे के गिरजे में जाकर वहां से 15 मील दूर स्थित यहूदियों के उपासना-गृह में जाती थी।
पुनर्जन्म के प्रभाव स्वरूप ऐसी एक नहीं असंख्य घटनाएं हैं। आए दिन इस तरह की एक-न-एक घटना प्रकाश में आती ही रहती है और इस तथ्य को प्रामाणित करती है कि मृत्यु जीवन का अंत नहीं है, वरन् जीवन यात्रा मील का एक पत्थर है, जिसे पार करने के बाद यात्रा की और भी मंजिलें आती हैं। अस्तु, मृत्यु से डरने का कोई कारण नहीं।
यह निश्चित है कि एक बार जन्म लिया है, तो मृत्यु निश्चित रूप से आएगी ही। मृत्यु को निश्चित और अनिवार्य जानकर उससे भयभीत न हों और न ही उससे घबराएं। जन्म और मरण का युग्म है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है—
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।। देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।। —2/12-13
‘‘कदाचित् मैं नहीं था और तुम नहीं थे, ऐसी भी बात नहीं है और ये राजा भी नहीं थे, ऐसी भी बात नहीं। इतना ही नहीं, इसके बाद हम सभी नहीं होंगे, ऐसी बात भी नहीं जिस प्रकार इस देह में कुमार, युवा और युवावस्था होती है, उसी प्रकार इस आत्मा को दूसरी देह प्राप्त होती है।’’
आर्ष मान्यताओं की पुष्टि अब अनेक वैज्ञानिकों द्वारा की जा रही है। आत्मा अविनाशी है, सनातन है। वह न कभी नष्ट होगी और न उसका क्षय होगा। अपने चिंतन में हर पल इस मान्यता को जड़ जमाकर बैठा रखना ही आस्तिकता के तत्त्वदर्शन को जीवन में उतारना है।