
पुनर्जन्म सिद्धांत को भली भाँति समझा जाए
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किसी भी सिद्धांत को भली भाँति नहीं समझा जाए, तो उसे मानने का दम भरने पर भी आचरण उससे विपरीत ही बना रहता है। पुनर्जन्म सिद्धान्त के साथ भी ऐसा ही हुआ है। उसकी वैज्ञानिक प्रक्रिया को न समझने वालों ने जहाँ इस जीवन में भौतिक सुविधा-साधनों को ही पूरी तरह पिछले जन्म के पुण्यफल मान लिया, वहीं इस पुण्य कर्म का अर्थ पूजा-पत्री, कर्मकांड तक ही सीमित माना जाने लगा। परिणाम यह हुआ कि न तो व्यक्ति की आदर्शपरायणता के प्रति कोई वास्तविक सम्मान बचा, न ही पुरुषार्थ की प्रगति का आधार समझा गया। इसके स्थान पर भौतिक सुख-सुविधाएँ अपने पुरुषार्थ की तुलना में कहीं अधिक जुटा पाना या पा जाना ही चारित्रिक सौभाग्य या श्रेष्ठता का प्रमाण माना जाने लगा और वह श्रेष्ठता पाने का आसान तरीका ग्रह-नक्षत्रों, देवताओं को टंट-टंट से प्रसन्न करना समझा गया।
यह एक विचित्र विडंबना ही है कि पुनर्जन्म का जो सिद्धान्त पुरुषार्थ और कर्म की महत्ता का प्रतिपादक था, कठिन-से-कठिन अप्रत्याशित विपत्ति को भी प्रारब्ध भोग मानकर धैर्यपूर्वक सहने और आगे उत्कर्ष हेतु पूर्ण विश्वास के साथ प्रयासरत रहने की प्रेरणा देता था, वही निष्क्रियता और अंध नियतिवाद का भ्रांत मतवाद बनकर रह गया है।
मनुष्य द्वारा अपने भाग्य का निर्माण आप किए जाने का तथ्य भुलाकर यह माना जाने लगा कि देवता अपनी मरजी और मौज के मुताबिक किसी का भाग्य खराब, किसी का अच्छा लिखते या बनाते हैं। भला यदि ऐसा होने लगे, तो इन देवताओं को शक्ति-संपन्न पागलों के अतिरिक्त और क्या कहा जाएगा ? पूजा-पत्री के रूप में मिथ्या या अतिरंजित प्रशंसा तथा अत्यंत सस्ती उपहार-सामग्री पाकर ही अपनी नीति-व्यवस्था को उलट-पलट देने वाले देवता तो अस्त-व्यस्त अफसरों और बाबुओं से भी अधिक भौंदू सिद्ध होते।
प्रायः किसी को धन-सुविधासंपन्न देखकर इसे उसके पिछले जन्मों का पुण्य मान लिया जाता है। पर, धन मनुष्य की अनेक विभूतियों में से एक विभूति है, एकमात्र नहीं। कोई व्यक्ति धनी है, यह यदि उसके किसी विगत पुण्य का फल है, किन्तु साथ ही यदि वह दुराचारी है, क्षुद्र है, क्रूर है, व्यसनी है; तो यह सब उसके किसी विगत पाप का फल मानना होगा। यही स्वाभाविक और तर्कसंगत प्रतिपादन कहलाएगा। सामान्यतः लोग जीवन में कुछ सत्कर्म करते हैं, कुछ अनैतिकता भी। सत्कर्म का सुफल किसी सद्गुण या समृद्धि के रूप में सामने आएगा, तो दुष्कर्म का प्रभाव दुष्प्रवृत्ति दुर्गुणों के रूप में दीखेगा। धनिकों में से कोई मतिमंद देखे जाते हैं, तो कोई ओछे भी। कोई दुर्व्यसनी-दुराचारी होते हैं, तो कोई धूर्त-प्रवंचक भी। सबके सब धनिक सर्वगुण संपन्न होते हों, ऐसा देखने में नहीं आता। लेकिन उनके दुर्गुणों को पिछले जन्म में उनके पापी होने का प्रमाण तो खुलेआम नहीं कहा जा जाता, जबकि उनकी धन-संपन्नता को उनके पुण्यात्मा होने का चिह्न बताते प्रायः बहुत-से रूढ़ि-पूजकों को देखा जाता है। यह पुनर्जन्म की अधूरी और भ्रांति धारणा हुई।
साधन-सुविधाओं की प्रचुरता उपलब्ध होना न तो किसी के पिछले जन्म में पुण्यात्मा होने का प्रमाण है और न ही किसी के व्यक्तित्व की श्रेष्ठता का परिचायक है। प्रवृत्तियां दूषित या पतनशील हुईं, तो परिस्थितियों की अनुकूलता और साधनों की प्रचुरता बौद्धिक, नैतिक एवं चारित्रिक पतन में भी सहायक सिद्ध होती है। साधन-संपन्नता से भी बढ़-चढ़कर उत्कृष्ट संवेदना, आदर्शवादी आस्था, सात्त्विकता, प्रसन्नता, धैर्य, साहस, शौर्य, सूझ-बूझ, स्वाध्याय-परायणता, कला-कौशल, व्यवहार-कुशलता, भावनात्मक श्रेष्ठता, करुणा, निरहंकारिता, अंतर्दृष्टि कुशाग्रबुद्धित्व, प्रखर धारणा शक्ति, सहयोग वृत्ति आदि सैकड़ों, हजारों मानवीय विशेषताएं हैं। इनमें से प्रत्येक का अपना महत्त्व है और उपयोगिता है, प्रत्येक से अनेक प्रकार की उपलब्धियां संभव हैं।
इस पर भी इन दिनों किसी भी व्यक्ति की अन्य कोई विशेषता न देखकर, मात्र उसकी आर्थिक-समृद्धि के आधार पर भाग्यवान और पुण्यात्मा मान लिया जाता है अथवा आर्थिक विपन्नता देखकर अभागा और पिछले जन्म के पाप का फल भोगने वाला मान बैठा जाता है। इस प्रवृत्ति को पुनर्जन्म पर आस्था का द्योतक नहीं, चिंतन शक्ति एवं विवेक की दरिद्रता और व्यक्तित्व के उथलेपन का परिचायक मानना ही सही है। इस उथलेपन और बौनेपन के कारण ही भाग्य को बदलने के लिए चमत्कारों का आश्रय खोजने में अनावश्यक समय, श्रम एवं पुरुषार्थ गंवाया जाता है।
पुनर्जन्म की वास्तविक दार्शनिक मान्यता तो इससे भिन्न ही तथ्य एवं निष्कर्ष प्रस्तुत करती है। सफलताएं-विफलताएं व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व भर से संबंधित नहीं, सामाजिक परिस्थितियां और समाज की प्रचलित मान्यताएं भी इसमें निर्णायक भूमिका निभाती हैं। आदर्शवादी समाज में चरित्रवान का सम्मान होता है, तो भ्रष्ट समाज उसे पिछड़ा मूर्ख समझता है। कभी भारतवर्ष में तपस्वी विद्वानों का लोकमानस पर गहरा प्रभाव होता था। आज आर्थिक संपन्नता अन्य सभी सामर्थ्यों पर हावी है। पैसे वालों को बुद्धिजीवियों-कलाकारों तक का सहयोग सरलता से मिल जाता है। कभी यही कला और विवेक धर्म के लिए समर्पित होता था।
अतः किसी व्यक्ति के पिछले जन्मों की प्रवृत्तियों-संस्कारों का लेखा-जोखा यदि करना ही हो तो ऐसा उसकी वर्तमान प्रवृत्तियों-गतिविधियों के आधार पर किया जाना ही उचित है, न कि सफलता के आधार पर। सफलता की परिभाषाएं और पैमाने भिन्न-भिन्न होते हैं, किंतु आदर्शवादिता और अवसरवादिता का मापदंड प्रायः सर्वमान्य होता है। स्वार्थ को छलपूर्वक परमार्थ तो प्रचारित किया जा सकता है, परंतु वास्तविकता विदित होने पर सभी एक स्वर से उसे हेय स्वार्थ ही कहेंगे। जबकि सफलता के बारे में ऐसा एकमत नहीं हो सकता। भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद को कुछ लोग क्रांति-चेतना के प्रसार में सफल व्यक्ति मानेंगे, तो कुछ अन्य उस दशा में उन्हें विफल निरूपित करेंगे। किंतु उनका जो भी आदर्श था उसके प्रति वे निष्ठावान थे, यह सभी मानेंगे। इस प्रकार प्रवृत्तियों के मापदंड-सर्वस्वीकृत हैं, जबकि उपलब्धियों के मापदंडों में भिन्नता है। अतः पिछले जन्म के पुण्य-पापों को उपलब्धियों से नहीं, वरन प्रवृत्तियों से आंका जाना चाहिए।