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Books - मरणोत्तर जीवन एवं उसकी सचाई

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Language: HINDI
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पूर्वजन्म के संचित संस्कार, विलक्षण प्रतिभा के उपहार

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जीवन की अविच्छिन्नता एक सचाई है। नवीनतम वैज्ञानिक अन्वेषणों का भी निष्कर्ष यही है कि जीवन में निरंतरता तो है ही, किंतु वे यह मानते हैं कि जीवन-ऊर्जा का रूपांतरण होता रहता है उनकी मान्यता है कि जीवन कोशिकाएं और मस्तिष्क के विभिन्न चेतन-प्रकोष्ठ प्राणी की मृत्यु के उपरांत इधर-उधर बिखर जाते हैं, वे भूमि, जल, वनस्पतियों आदि में समाहित हो जाते हैं और बाद में आहार रूप में प्राणियों के भीतर रक्त-रस मज्जा में घुल-मिलकर उनकी संतति में ‘सेल्स’ ‘जीन्स’ ‘प्रोटोप्लाज्म’ आदि के रूप में सक्रिय रहते हैं।
अनेक व्यक्तियों द्वारा पूर्वजन्म की स्मृतियों के प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत किए जाने का विश्लेषण वैज्ञानिक इसी रूप में करते हैं कि इन व्यक्तियों में पूर्ववर्ती उस व्यक्ति के, चेतन-प्रकोष्ठ अथवा प्रोटोप्लाज्म का कोई अंश गर्भस्थिति में, इनके निर्माणकाल में घुल-मिल जाता है, जिस व्यक्ति से संबद्ध प्रामाणिक विवरण बाद में बताते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले जन्म की कुछ खास घटनाओं का विवरण जो मस्तिष्क के किसी चेतन-प्रकोष्ठ में अंकित-सुरक्षित था, वही चेतना-प्रकोष्ठ भर नए प्राणी के भीतर आ गया है। पूर्ववर्ती व्यक्ति का संपूर्ण मनोजगत या आत्मा से जुड़े समूचे संस्कार समूह नए शरीर में उसी पुरानी आत्मा के साथ स्वाभाविक रूप में आ गए हैं, ऐसा वैज्ञानिक अभी नहीं मानते। पूर्वजन्म की किन्हीं स्मृतियों के प्रामाणिक पुनर्प्रस्तुति मात्र उनकी दृष्टि में उसी आत्मा द्वारा नया शरीर धारण करने का यथेष्ट प्रमाण नहीं है। वे यह मानते हैं कि घास-पात, पेड़-पौधे में मृत प्राणी के प्रोटोप्लाज्म के अंश घुल-मिल गए, वही अंश आहार द्वारा मनुष्य शरीर में पहुंचे और संतान में अभिव्यक्त हुए।
इन वैज्ञानिकों की इस परिकल्पना को यदि सही माना जाए, तब यह प्रकट होता है कि किसी भी नई संतान के व्यक्तित्व के निर्माण में आनुवंशिक विशेषताएं ही सर्वप्रधान कारण होती हैं, हां छिटपुट नई विशेषताएं अवश्य प्रोटोप्लाज्म आदि के रूप में संतान में प्रविष्ट हो सकती हैं। किंतु उसका संपूर्ण व्यक्तित्व आनुवांशिक विशेषताओं के वाहक ‘जीन्स’ से ही गठित होता है। गुण-धर्म-स्वभाव आदि का निर्माण ये वंशानुगत ‘जीन्स’ ही करते हैं।
आनुवंशिकी की ये स्थापनाएं शारीरिक संरचना के क्षेत्र में तो अब तक पूरी तरह खरी उतरती रही हैं। संतान की नाक, कान, आंख, दांत, मुंह, यष्टि, अंग-उपांग एवं विभिन्न अवयवों की बनावट तो वंशानुगत विशिष्टताओं के ही किसी-न-किसी अनुपात में सम्मिश्रण का परिणाम होती हैं। किंतु बुद्धि और भावना के क्षेत्र में ऐसी विलक्षणताएं संततियों में उभरती देखी-पाई गई हैं कि उनका आनुवंशिकी से दूर का भी संबंध नहीं सिद्ध हो पाता और बड़ी दिमागी जोड़-तोड़ के बाद भी यह नहीं स्पष्ट हो पाता कि आखिर अमुक व्यक्तियों की अमुक संतान में ये बौद्धिक भावनात्मक विशेषताएं आईं कहां से, जो न तो उसके माता-पिता के वंश में थीं और न ही वातावरण में। उन विशेषताओं को प्रोटोप्लाज्म आदि के अंश की अभिव्यक्ति भी नहीं मान सकते, क्योंकि ऐसे लोगों में ये विलक्षणताएं आंशिक रूप में नहीं होती, अपितु उनके संपूर्ण व्यक्तित्व का ही वैसा गठन होता है। ऐसी स्थिति में यही मानने को बाध्य होना पड़ता है कि व्यक्तित्व की ये विशेषताएं आनुवंशिकी, पर्यावरण अथवा परिव्राजक प्रोटोप्लाज्म की कृपा नहीं, बल्कि उसी व्यक्ति द्वारा पिछले जन्म में अर्जित-वर्धित, संचित-सुरक्षित विशेषताएं हैं जो जन्मना ही उसमें उभर आई हैं।
अशिक्षा, अज्ञान और अभाव के वातावरण में अप्रतिम मेधावी विद्वान संगीतज्ञ, गणितज्ञ आदि का पैदा होना, श्रेष्ठ परंपराओं और उत्कृष्ट वातावरण वाले परिवारों में दुर्गुणी-दुराचारी संतति का जनम जैसी घटनाएं आए दिन देखने को मिलती हैं। जिस देश, समाज और परिवार में चारों ओर मांसाहार एक सामान्य आहार अभ्यास के रूप से स्वीकृत हो, वहां किसी अबोध बालक द्वारा मांस को छूने से भी अस्वीकार कर देना और पूर्ण सात्त्विक शाकाहारी भोजन पसंद करना, क्रूरता के वातावरण में जन्मतः अथाह करुणा की प्रवृत्ति का पाया जाना आदि अनेक विचित्रताएं देखने में आती रहती हैं, जो आनुवंशिकी संबंधी अथवा जीवात्मा के मरणोपरांत बिखर जाने संबंधी स्थापनाओं को खंडित करती हैं तथा उसी आत्मा द्वारा नया शरीर धारण करने की पुष्टि करती प्रतीत होती हैं।
महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने ऐसी ही एक विलक्षण प्रतिभा के किशोर की सामर्थ्य को देखकर उसे भावावेश में अपनी बांहों में उठा लिया था और आनंदातिरेक से बोल उठे थे—‘‘किशोर! तुमने आज फिर एक बार इस विश्व में ईश्वर के संचालक होने का विश्वास दिलाया है।’’
उस प्रतिभाशाली किशोर का नाम था मेनुहिन। तब वह मात्र आठ वर्ष का था। कुछ वर्षों पूर्व उन्हें भारत में भी नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आज वह दुनिया का सर्वोत्कृष्ट वायलिन वादक है।
यहूदी मेनुहिन के माता-पिता में से काई भी संगीतकार नहीं थे। वे स्कूल में साधारण शिक्षक थे। किंतु मेनुहिन में बचपन से ही संगीत की विलक्षण सामर्थ्य थी। आठ वर्ष की आयु में उसने बीथोवियन, ब्राह्मस, बारव जैसे महानतम संगीतकारों की कठिन संगीत रचनाओं को कुशलता से प्रस्तुत कर लोगों को चकित कर दिया था। सामान्य श्रोताओं की तो बात ही क्या, श्रेष्ठ संगीतज्ञों और संगीत समीक्षकों तक ने उसका वायलिन-वादन सुना तो विस्मय-विमुग्ध हो गए।
तीन वर्ष के नन्हें मेनुहिन की वायलिन-वादन की सामर्थ्य विलक्षण ढंग से प्रकट हुई। उसके माता-पिता उसके लिए नकली वायलिन खेलने के लिए लाए। मेनुहिन ने उसे बजाया, तो उसका संगीत उसे रुचिकर नहीं लगा। उसने वह खिलौना फेंक दिया और मचल गया। माना तब, जब माता-पिता ने असली वायलिन लाकर दिया। उसे पाते ही वह बालक उसी में लीन रहने लगा। उसकी दक्षता उभर आई। तब जाकर चार वर्ष की आयु में माता-पिता ने उसे संगीत शिक्षा दिलानी शुरू की। उसकी विलक्षण गति एवं लगन से संगीत शिक्षक भी विस्मित हो उठता। छह वर्ष के मेनुहिन ने सेनफ्रांसिस्को में हजारों श्रोताओं के सामने एक श्रेष्ठ संगीत-रचना प्रस्तुत की। अगले दिन अमेरिकी अखबार उसकी प्रशंसा से भरे थे।
यद्यपि बाद में मेनुहिन ने श्रेष्ठ संगीत शिक्षकों से संगीत की शिक्षा ग्रहण की, तथापि उसके प्रत्येक शिक्षक ने यह कहा कि हमने इसे सिर्फ सिखाया ही नहीं, इससे बहुत कुछ सीखा भी है।
टोस्कानिनी जैसे विश्वविख्यात संगीत-संचालकों ने उसे अलौकिक वायलिनवादक कहा। विश्व के अनेक शीर्शीस्थ कलाकारों, वैज्ञानिकों, राजनेताओं, लेखकों, संगीतज्ञों ने उसकी एक स्वर से प्रशंसा की है और उसकी जन्मजात विलक्षण सामर्थ्य को ईश्वरीय वरदान कहा है। स्पष्ट है कि मेनुहिन की यह क्षमता आनुवंशिक विशेषता नहीं है। यह उसके पूर्वसंचित संस्कारों का पिछले जन्म की प्रगति का प्रतिफल हो सकता है।
महान गणितज्ञ जानकार्ल फ्रेडरिक गॉस भी ऐसा ही अनुपम प्रतिभाशाली था। 30 अप्रैल, 1877 को जर्मनी के ब्रन्सविक शहर में उत्पन्न गॉस के पिता किसान थे और गरीब थे। छोटी-मोटी ठेकेदारी भी करते थे। तीन साल की ही आयु में उसने एक दिन मजदूरों का हिसाब कर रहे पिता की गलती पकड़ ली थी और उसे सुधार दिया था। नौ वर्ष की आयु में उसने कक्षा में अध्यापक को उस समय चमत्कृत कर दिया, जब गणित का लंबा प्रश्न बोर्ड पर लिखकर जैसे ही अध्यापक रुके, गॉस ने उस कठिन प्रश्न का सही उत्तर प्रस्तुत कर दिया।
14 वर्ष की आयु में उसकी चारों ओर प्रसिद्धि फैली। ब्रन्सविक के राजा ने उसे अपने दरबार में बुलाया, जहां उसने अपनी गणित विद्या की धाक जमाई। 19 वर्ष की आयु में उसने यूक्लीडियन सूत्रों में एक मूलभूत संशोधन प्रस्तुत किया कि सत्रह समान भुजाओं की आकृति को परकार तथा सीधी रेखाओं द्वारा भी बनाया जा सकता है। 22 वर्ष की आयु में उसने अपनी ‘थीसिस’ में ‘फंडामेंटल थ्योरम ऑफ अलजेब्रा’ नामक सिद्धांत प्रस्तुत किया। 25 वर्ष की उम्र में उसने ‘आंकिक सिद्धांत’ ग्रंथ रचा, जिसने गणितीय विश्व में तहलका मचा दिया।
चलते-फिरते ज्ञानकोश, अद्भुत स्मरण शक्ति के धनी अनेक विलक्षण व्यक्ति आएदिन देखने को मिलते हैं। इनके माता-पिता के वंश में अथवा वातावरण में इनमें से कोई भी विशेषताएं विद्यमान नहीं पाई जातीं। ऐसी स्थिति में यही मानना पड़ता है कि उनकी यह विभूति स्वयं उनके द्वारा पूर्वजन्म में अर्जित क्षमताओं का ही सत्परिणाम है।
इन विशेषताओं एवं भिन्नताओं का प्रत्यक्ष कारण ढूंढ़ने पर कोई ऐसा आधार नहीं मिलता जो मानवी मस्तिष्क को संतुष्ट कर एके। वातावरण एवं आनुवंशिकी जैसे वैज्ञानिक आधारों पर भी उक्त विषमताओं का कारण स्पष्ट नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में कर्मफल एवं पुनर्जन्म के सिद्धांत ही समाधानकारक सिद्ध होते हैं। वैचारिक गुणों के अतिरिक्त भी बच्चे के साथ कुछ ऐसी विशेषताएं जुड़ी होती हैं जो अधिक सूक्ष्म तथा सशक्त हैं। भारतीय संस्कृति में उन्हें ही सूक्ष्म संस्कार कहते हैं, जो मरणोपरांत भी जीवात्मा के साथ संलग्न रहते हैं तथा जन्म के साथ बच्चों में प्रकट होते हैं। जो उपयुक्त वातावरण में पोषण पाकर दृष्टिगोचर होते हैं। पातंजलि योग सूत्र के साधनपाद में इस तथ्य का इस प्रकार रहस्योद्घाटन हुआ है—
‘‘क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्ट जन्मवेदनीयः ।।12।।
सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा ।।13।।’’
‘‘यदि पूर्व जन्म के कर्म अच्छे हैं, तो उत्तम जाति, आयु और भोग प्राप्त होते हैं। जब मनुष्य शरीर त्याग करता है, तब इस जन्म की विधा, कर्म और पूर्व प्रज्ञा आत्मा के साथ जाती है और उसी ज्ञान और कर्म के अनुसार जन्म होता है, यानी वैसे ही संस्कार जनम के साथ प्रकट होते हैं।’’
पुनर्जन्म की पुष्टि वैज्ञानिक आधारों पर भी होती है। भौतिकी के पदार्थ के अविनाशिता के सिद्धांतानुसार न तो पदार्थ की उत्पत्ति होती है और न ही विनाश ही। मात्र उसका रूपांतरण होता है। इस रूपांतरण की प्रक्रिया में ही नित्य नए दृश्य दिखाई पड़ते हैं। पदार्थों का रूपांतरण ही उनका पुनर्जन्म है। प्रसिद्ध परामनोवैज्ञानिक डॉ0 रेना रूथ ने अपनी पुस्तक ‘री-इनकारनेशन एंड साइंस’ में भौतिकीविद क्लीफार्ड स्वाडस के सिद्धांत का उल्लेख किया है कि पदार्थ एवं ऊर्जा दोनों ही परस्पर परिवर्तनशील हैं। ऊर्जा परिवर्तित हो सकती है, अदृश्य हो सकती है पर नष्ट नहीं होती। उन्होंने डी0एन0ए0 (डिऑक्सीरीबो न्यूक्लिक एसिड) को संस्कार वाहक माना है। उनकी मान्यता है कि ‘डी0एन0ए0’ संस्कारों के साथ ही अदृश्य जगत में मृत्यूपरांत अदृश्य रूप में विद्यमान रहता है तथा जन्म के समय पुनः प्रकट होता है। अब तो पुनर्जन्म के सिद्धांतों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के लिए हमें सब एटामिक, एंटीयूनीवर्स जगत में प्रवेश करना होगा।
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