
जन्म-जन्मांतर के संस्कार
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जन्मजात प्राप्त क्षमताएं एवं प्रतिभाएं इस तथ्य की पुष्टि करती हैं कि मनुष्य की अर्जित बौद्धिक विशेषताएं इस जीवन तक ही नहीं रहतीं, वरन अगले जन्मों में भी बनी रहती हैं। विश्व भर में कितने ही बालक ऐसे हुए हैं, जो अल्पायु में ही असामान्य प्रतिभासंपन्न देखे गए। आधुनिक ग्रामोफोन के आविष्कार एवं विद्युत लैंप के जन्मदाता अमेरिका निवासी टामस एल्वा एडिसन ने मात्र दस वर्ष की आयु में सियर बर्टन एवं गिलन के महान ग्रंथों एवं डिक्शनरी ऑफ साइंस का अध्ययन पूरा कर लिया। पंद्रह वर्ष की आयु में वे एक स्थानीय पत्र के संपादक बने। सापेक्षवाद को जन्म देने वाली अल्बर्ट आइन्स्टीन के गणित के प्रश्नों की बौछार से सेकेंडरी स्कूल के अध्यापक परेशान हो जाते थे तथा उत्तर देने में अपने को अक्षम पाते थे। 14 वर्ष की अवस्था तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने भौतिक विज्ञान, बीजगणित, उच्च ज्यामिती जैसे विषयों में विशेषता प्राप्त कर ली।
माइकेलग्रास्ट मिशिगन स्टेट यूनीवर्सिटी का प्रथम विद्यार्थी था, जिसने मात्र 15 वर्ष की आयु में गणित जैसे क्लिष्ट विषय में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। एल्मर स्पेरी ने दस वर्ष की आयु में मसाला पीसने की मशीन बनाई, पानी के चक्र का आविष्कार किया। रेलमार्ग पर चलने वाली तीन पहियों वाली पैडल की गाड़ी बनाई। बोनेटेरेकी को दो वर्ष चार माह की आयु में 3500 शब्द याद थे एवं प्रसिद्ध कवियों की 100 कविताएं कंठस्थ थीं। उसका बौद्धिक स्तर ‘आई0क्यू0’ 185 आंका गया। जो असाधारण प्रतिभा से भी 45 अधिक होता है। मास्को की इर्मासोखादभे नामक नौ वर्षीय बालिका अठारह भाषाओं के दो सौ गाने गाया करती थी। तीन वर्ष की आयु में ही उसने सभी प्रकार के संगीत में विशेषता अर्जित कर ली।
जर्मनी का जॉन फिलिप नामक दो वर्षीय बालक फ्रेंच, जर्मन और लैटिन भाषा धारा-प्रवाह बोलता था। पांचवे वर्ष में उसने बाइबिल का ग्रीक भाषा में अनुवाद करना आरंभ कर दिया। छह वर्ष की आयु में वह बर्लिन की रायल एकेडेमी का सदस्य बना और पी-एच0 डी0 की उपाधि प्राप्त की हो। 19 वर्ष की अल्पायु में वह मर गया। जर्मनी का विलक्षण बालक ‘क्रिश्चियन फ्रेडरिक हीन केन’ जन्म के कुछ घंटों बाद ही बोलने लगा था। दो वर्ष की आयु में ही उसे बाइबिल के सभी प्रसंग याद हो गए। अमेरिकी बालक ‘विलियम जेम्स सिदिस’ दो वर्ष का था, तभी से पढ़-लिख सकता था। आठ वर्ष की उम्र में वह छह विदेशी भाषाओं का जानकार था।
फ्रांस का लुई कार्दियेक नामक बालक जन्म के तीसरे माह से ही वर्णमाला पढ़ने लगा था। तीन वर्ष की आयु में वह लैटिन भाषा पढ़ लेता था। फ्रेंच और अंगरेजी भाषा का वह लैटिन अनुवाद भली भांति कर लेता था। हीब्रू और ग्रीक भाषाओं पर भी उसका पूर्ण अधिकार था। सातवें वर्ष में उसकी मृत्यु हो गई। इंग्लैंड का विलियम हेनरी वेट्टी ग्यारह वर्ष की आयु में अभिनय के क्षेत्र में विश्व-विख्यात हुआ। बचपन से ही वह शेक्सपीयर के नाटक में हैमलेट की भूमिका बड़ी कुशलता से निभाता था। इस अल्पायु में एक बार वह लंदन के क्वेंट गार्डन के रंगमंच पर पहली बार अभिनय के लिए उतरा, तो इतनी अधिक भीड़ हुई कि उसे हटाने के लिए पुलिस बुलानी पड़ी। उसे प्रत्येक अभिनय के लिए ग्यारह सौ रुपये प्राप्त होने लगे थे। मैकाले दो वर्ष की आयु में ही पढ़-लिख सकता तथा बुजुर्गों जैसी बात करता था। आठवें वर्ष में उसने विश्व का इतिहास नामक पुस्तक लिखी।
प्रो0 हार्वी फ्रिडमैन ने 10वें वर्ष में इंजीनियरिंग में पी-एच0डी0 की उपाधि प्राप्त की। बिना मैट्रिक परीक्षा दिए ही उसने छह वर्ष की आयु में मैसाचुसेट्स इंजीनियरिंग कॉलेज के छह वर्षीय अभ्यासक्रम को पूरा कर लिया। जर्मनी का नौ वर्षीय बालक कार्लावेट अपनी असाधारण प्रतिभा के कारण ही लिपजिंग विश्व विद्यालय में प्रवेश पाने में सफल हो गया। चौदह वर्ष की आयु में उसे पी-एच0डी0 तथा सोलहवें वर्ष में डॉक्टर ऑफ लॉ की उपाधि प्रदान की गई।
विदेशों में ही नहीं, भारत में भी अनेकों व्यक्ति पैदा हो चुके हैं, जो बाल्यावस्था में ही विलक्षण प्रतिभासंपन्न थे। शंकराचार्य ने सोलह वर्ष की आयु में भारत के सभी मूर्द्धन्य विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया। मुगल सम्राट अकबर ने तेरहवें वर्ष में ही राजगद्दी संभाली थी। वह एक कुशल प्रशासक सिद्ध हुए। छत्रपति शिवाजी ने तेरह वर्ष की आयु में ही तोरण का किला जीत लिया।
रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी पहली प्रसिद्ध पुस्तक 14वें वर्ष में पूरी की थी। भारत की प्रथम महिला गवर्नर श्रीमती सरोजनी नायडू ने चौदह वर्ष की अल्पायु में चौदह सौ पंक्तियों की एक गंभीर कविता की रचना की थी। श्रीनिवास रामानुजम केवल 32 वर्ष जिए, पर इस संक्षिप्त अवधि में गणितज्ञ के रूप में उन्होंने विज्ञान जगत को जो उपलब्धियां दीं, वे आज गणितशास्त्र का मूल आधार बनी हुईं हैं।
पश्चिम जर्मनी के ऑसवर्ग नामक स्थान पर जन्मी फ्रैड्रिका का केस इस तरह की घटनाओं में बहुत दिलचस्प है। उसका रंग, रूप, कद-काठी तो जर्मनों की तरह ही थी, परंतु उसकी आंखें भारतीय महिलाओं की तरह काली और केश भी भारतीय स्त्रियों जैसे ही थे। कम उम्र में ही उसने विलक्षण बुद्धि का परिचय दिया और पढ़ना-लिखना सीख लिया। वह अपना प्रत्येक काम अपनी उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक कुशलता और स्फूर्ति के साथ निबटा लेती थी। जब वह तेरह-चौदह वर्ष की थी, तभी उसने जर्मन, डच और अंगरेजी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। भारतीय भाषाओं में उसने संस्कृत को सीखने में बड़ी कुशाग्रता का परिचय दिया। उल्लेखनीय है कि जर्मनी की लगभग सभी शिक्षण संस्थाओं में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन की सुविधा उपलब्ध है। फ्रैड्रिका ने इस व्यवस्था का लाभ तो उठाया ही, भारतीय धर्म दर्शन के अध्ययन-मनन में भी उसने पर्याप्त रुचि ली और कुछ ही समय बीतते वह पूजा-पाठ करने लगी। उसने वेद-पुराणों और आर्षग्रंथों के कई अंश कंठस्थ कर लिए। किशोरावस्था में प्रवेश करने तक तो वह ज्योतिष, अंकशास्त्र, पराविद्या, ब्रह्मविद्या, योगचक्र, कुंडलिनी आदि के विषय में भी इस प्रकार बातें करने लगी, जैसे वह इन विषयों की अधिकारी विद्वान हो।
फ्रैडरिका के पिता बैंक में नौकरी करते थे। परिवार की स्थिति सामान्य थी। मां अपनी बेटी के इस स्वभाव और रुझान को देखकर चिंतित रहने लगी थी। बचपन में ही उसने अपनी मां की चिंताओं का समाधान करते हुए बताया कि वह पिछले जन्म में एक धर्मपरायण भारतीय महिला थी और उसका सारा जीवन ही धार्मिक कर्मकांडों तथा पूजा-पाठों को करते हुए व्यतीत हुआ था। उसने वेद-पुराणों और अन्य भारतीय धर्मग्रंथों का गहन अध्ययन किया था। एक दुर्घटना में जब उसकी मृत्यु हुई, तो मरने के पूर्व उसे अच्छी तरह होश था तथा वह मरते समय यही सोचती रही थी कि उसे अगला जन्म जहां कहीं भी मिले, वेद-पुराणों तथा धर्म शास्त्रों के अध्ययन में उसकी रुचि इसी प्रकार बनी रहे।
फरवरी 1979 में फ्रैडरिका भारत भी आई। यहां उससे बरेली की पराविद्या शोध संस्थान की उस यूनिट ने संपर्क किया जो पुनर्जन्म पर शोध कर रही थी। फ्रैडरिका ने अपने पिछले जन्म का जो भी विवरण बताया, यथा जन्मस्थान, माता-पिता का नाम, परिवार के संबंध में परिचय, पति और पति के परिवार की जानकारी, बच्चों के नाम आदि के संबंध में उसने जो भी वक्तव्य दिए, वे सब टेप किए गए और उस आधार पर जांच की गई, तो बताए गए सभी विवरण सही पाए गए।
गणितशास्त्र के मूर्द्धन्य विद्वान पास्कल को रेखागणित के प्रति बचपन से ही विशेष रुचि थी। वह बचपन से ही भूमि पर रेखांकन द्वारा विभिन्न प्रकार की आकृतियां बनाया करता। माता-पिता ने उसकी इस प्रवृत्ति को रोकने की भी कोशिश की। किंतु लुक-छिपकर वह आकृतियां बनाकर उन्हें ध्यान से देखता तथा सोचता रहता था। बिना किसी पुस्तक एवं अध्यापक के उसने बारह वर्ष की आयु में ही तीस ‘साध्य’ बनाए। उसकी असामान्य प्रतिभा ने गणितशास्त्र के विद्वानों को भी अचंभित कर दिया तथा यह सोचने को बाध्य किया कि इतनी कम आयु में बिना किसी पुस्तक एवं अध्ययन, शिक्षण के यह कैसे संभव हो सका?
प्रसिद्ध विद्वान ‘मायर्स’ ने अपनी पुस्तक ‘ह्यूमन परसनाल्टी’ में सिसली में जन्मे एक गड़रिये के लड़के का उल्लेख किया है, जिसकी बौद्धिक क्षमता असामान्य थी। दस वर्ष की अल्प आयु में ही उसने पेरिस के विद्वानों की एकेडमी में अपने हिसाब की शक्ति से सबको आश्चर्यचकित कर दिया। एकेडमी में उपस्थित गणितशास्त्र के विद्वानों में से एक ने उससे पूछा 3796416 का घनमूल क्या है? आधे मिनट में ही उसने उत्तर दिया, 156 जो बिलकुल ठीक था। पुनः 282475249 का ‘दसवां मूल पूछने पर उसने सात’ बताया? अन्यान्य पूछे गए गणित के प्रश्नों का उत्तर भी उसने सही देकर उपस्थित सभी विद्वानों को अचंभित किया। उक्त बालक का नाम बाइटो मैंजियामीन था।
सुमेश चंद्र दत्त नामक एक बालक भी बीसवीं सदी के तीसवें दशक में बड़ा लोकप्रिय हुआ। उसकी प्रतिभा असामान्य थी। ढाका का उक्त बालक 15 अंकों की राशि को 15 अंकों की राशियों से मौखिक गुणा कर सकता था। विकसित होकर यह क्षमता यहां तक जा पहुंची कि वह 100 अंकों की राशि का 100 अंकों की राशि से मौखिक गुणा कर सकता था। इस बच्चे की अद्भुत क्षमता का प्रदर्शन पूरे विश्व में हुआ। अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में उसने 60 अंकों का 60 अंकों के साथ गुणा मात्र 45 मिनट में करके दिया। गुणा करने में किसी भी प्रकार के कागज, पेंसिल अथवा अन्य साधनों का प्रयोग नहीं किया गया। इन अंकों का गुणा कोलंबिया विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने दो घंटे प्रतिदिन के हिसाब से खरच करके दो सप्ताह में किया था। किंतु उनका उत्तर सही न था। जबकि सुमेश चंद्र का मौखिक हल किया गया उत्तर सही था। गणित के अन्य प्रश्नों के हल में भी असामान्य बौद्धिक क्षमता का परिचय अमेरिका के विद्वानों को मिला। अमेरिका के अखबारों ने उसे ‘दिमागी जादूगर’ ‘विद्युत की तरह काम करने वाला’ (लाइटनिंग केलकुलेटर) जैसी उपाधि दी।
बौद्धिक सामर्थ्यों की विलक्षणता की ही तरह स्वभाव एवं संस्कारों की, भावनात्मक विलक्षणताएं भी देखी जाती हैं। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के कुल में सभी मांसाहारी थे। समाज में भी मांसाहार का ही प्रचलन था। किंतु वे बचपन से ही शाकाहारी थे। देशभक्ति परिवारों का देशद्रोही तथा दुराचाररत परिवारों में सज्जन-साधु व्यक्तियों का जन्म लेना भी संस्कारों की दृष्टि से वंशानुक्रम एवं वातावरण से विलक्षण ही है।
बुद्धि, भावना और गुण-स्वभाव की ये विलक्षणताएं जो आनुवंशिकता तथा पर्यावरण के प्रभावों से सर्वथा भिन्न होती हैं, संबद्ध व्यक्तियों के स्वतः अर्जित संस्कार एवं सामर्थ्य का ही परिणाम मानी जा सकती हैं। इन प्रत्यक्ष उदाहरणों से यही तथ्य उभरता है कि शरीर नाश के साथ ही मानव जीवन का अंत नहीं हो जाता, न ही यह बिखरकर टुकड़े-टुकड़े होकर नदी, पर्वत, मैदान, वृक्ष, वनस्पति आदि में समाहित हो जाता, अपितु आत्मा का अस्तित्व शरीर त्याग के बाद भी बना रहता है और उससे जुड़े संस्कार समूह जन्म-जन्मांतर तक धारावाहिकता के साथ गतिशील रहते हैं। प्रगति-पथ पर बढ़ते रहा जाए, तो उसके सत्परिणाम इस जीवन में ही नहीं, अगले जीवन में भी मिलते हैं। इस तथ्य को समझ लिया जाए, तो आत्मिक विकास में कभी भी आलस्य-प्रमाद की मनोवृत्ति नहीं, उभर-पनप पाएगी। ‘जब जागे तभी सवेरा’ की तरह कितने ही विलंब से श्रेष्ठता की दिशा में कदम बढ़ाया जाए, तो भी उसमें निराशा की कोई बात नहीं। साथ ही, एक क्षण भी अनौचित्य-अनाचार में लगाया गया, तो उसका भी परिणाम अवश्य होगा। अतः उस दृष्टि से रत्ती भर भी लापरवाही हानिकर सिद्ध होगी और प्रत्येक गलती को सुधारने की आवश्यकता बनी रहेगी। इतना तो सत्कर्म कर लिया, अब जीवन का जो अंश बचा है, उसमें जरा मनमानी कर लें, मौज-मजे ले लें, यह भावना भी पूर्वजन्म को मानने वाले में कभी नहीं आ सकती। यौवन के उभार में आदर्शोन्मुखता और प्रौढ़ावस्था में भोग परायणता के जो दृश्य सामाजिक-राजनीतिक जीवन में देखे जाते हैं, वे जीवन की संकीर्ण धारणा का ही परिणाम हैं। पुनर्जन्म की वास्तविकता को समझने वाला तो अंतिम क्षण तक श्रेयस पथ पर चलता रहेगा। बुढ़ापे में पढ़कर, साधना-स्वाध्याय कर या संयम-उपासना-सेवा का पथ अपनाकर भी क्या होगा, अब तो थोड़े दिनों का खेल है, चाहे जैसे दिन काटने हैं, यह भावना पुनर्जन्म पर सच्ची आस्था रखने वाले में नहीं आ सकती। उसके लिए तो जीवन का प्रत्येक क्षण और प्रत्येक कार्य महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उसका परिणाम अवश्यंभावी है।