
चेतनसत्ता का अस्तित्व मृत्यु के बाद भी
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मरणोत्तर जीवन का विश्वास ही कर्मफल की पुष्टि करता है। उस मान्यता की जीवित रखकर ही सदाचार और परोपकार की लोकोपयोगी गतिविधियां जीवित रखी जा सकती हैं। यह दार्शनिक आवश्यकता नहीं, बल्कि एक सुनिश्चित सचाई भी है, जिसे हर आधार पर सिद्ध किया जा सकता है। इस संदर्भ में फोनोग्राफी, प्रकाश के बल्व के आविष्कर्त्ता टामस एडीसन ने अत्यंत बोधगम्य प्रकाश डालते हुए अपनी पुस्तक ‘द अल्टीमेट साइंस’ में लिखा है। ‘‘प्राणी की सत्ता उच्चस्तरीय विद्युत कण गुच्छकों के रूप में तब भी बनी रहती है, जब वह शरीर से पृथक हो जाती है। मृत्यु के उपरांत यह गुच्छक विधिवत तो नहीं होते, पर वे परस्पर संबद्ध बने रहते हैं। वे बिखरते नहीं, वरन् आकाश में जिस प्रकार मधुमक्खी छत्ता छोड़कर विचरती है उस प्रकार विचरते हैं। मधुमक्खियां पुराना छत्ता भी एक साथ छोड़ती हैं, नया भी एक साथ बनाती हैं। इसी प्रकार पुनः जीवनचक्र में प्रवेश करते और नया जन्म धारण करते समय उच्चस्तरीय विद्युत कणों के गुच्छक अपने साथ स्थूलशरीर से आस्थाओं, संवेदनाओं का समुच्चय साथ लेकर परिभ्रमण करते रहते हैं।’’ एक भौतिकविद के परोक्ष जगत संबंधी ये विचार निश्चित ही कोई सनक या भ्रांतियुक्त मान्यता नहीं हैं, अपितु एक सचाई की साक्षी में व्यक्त अभिव्यक्तियां हैं। इसी तथ्य को प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक अब्राहम मेस्लोव ने इस प्रकार लिखा है—‘‘भौतिकशास्त्र और जीवशास्त्र के क्षेत्र में आने वाले स्थूल शरीर के अतिरिक्त जीवधारियों का एक सूक्ष्म शरीर भी है, जो अलौकिक क्षमताओं से भरा पड़ा है। यह शरीर मृत्यु के बाद भी बना रहता है।’’
अमेरिका में ‘क्लिसा क्लाउड चैंबर’ द्वारा आत्मा के अस्तित्व संबंधी अनेक प्रयोग किए गए हैं। यह चैंबर एक खोखला पारदर्शी सिलेंडर है। इसके भीतर से हवा पूरी तरह निकालकर, भीतर रासायनिक घोल पोत देते हैं। इससे सिलेंडर में एक मंद कुहरा छा जाता है। इस कुहरे से यदि एक भी इलेक्ट्रॉन गुजरे, तो फिट किए गए शक्तिसंपन्न कैमरों द्वारा उनका फोटो ले लिया जाता है। सिलेंडर में होने वाली हर हलचल का चित्र आ जाता है।
इस चैंबर में जीवित चूहों और मेंढकों को रखकर बिजली की धारा प्रवाहित कर उनको प्राणहीन किया गया। देखा गया कि मरने के बाद चूहों या मेंढकों की हूबहू वही अनुकृति उस रासायनिक कुहरे में तैर रही है। उस आकृति की गतिविधियां संबंधित प्राणी के जीवनकाल की ही गतिविधियों के अनुरूप थीं। क्रमशः यह सत्ता धुंधली होती चली गई और विलुप्त होकर कैमरे की पकड़ से बाहर हो गई।
परामनोवैज्ञानिक विलियम मैकडूगल ने आत्मा के बारे में अनेक प्रयोग-परीक्षण किए हैं, जिनमें मरणासन्न रोगी का मृत्यु से पूर्व भार लिया गया और मरणोपरांत तौल की गई, तो उस भार में एक औंस अर्थात् 30 ग्राम तक की कमी पाई गई। इससे मैकडूगल इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि शरीरस्थ कोई सूक्ष्म तत्त्व ही जीवन का आधार है, जिसके न हरने पर भार में कमी हुई है। संभवतः जानकारी न रहने अथवा मृत्यु को ही मानवी काया की चरम परिणति मानने वालों ने ‘ऑकल्ट’ की इस खोज को मान्यता न दी हो, फिर भी इससे मरणोत्तर जीवन संबंधी आर्ष मान्यताओं की प्रतिष्ठा कम नहीं होती।
थियोसोफिकल सोसाइटी की जन्मदात्री मैडम ब्लाट्वस्की के बारे में कहा जाता है कि वे अपने को कमरे में बंद करने के उपरांत भी जनता को सूक्ष्मशरीर से दर्शन और उपदेश देती थीं। कर्नल टाउन शेंड के बारे में भी ऐसे ही प्रसंग कहे जाते हैं। पाश्चात्य योग-साधकों में से हैवंटलमान, लिंडर्स, एंड्रयू जैक्सन, डॉ. माल्थस जेल्थ, कारिंगटन, जुरावेल मुलडोन, ऑलिवर लाज, पावर्स, डा. मेस्मर, एलेक्जेंड्रा, डेविड नील, पाल ब्रंटन आदि के अनुभवों और प्रयोगों में सूक्ष्मशरीर की प्रामाणिकता सिद्ध करने वाले अनेक प्रमाण उपस्थित किए गए हैं। जे0 मुलडोन अपने स्थूलशरीर से सूक्ष्मशरीर को पृथक करने के कितने प्रदर्शन भी कर चुके थे। इनने इन सबकी चर्चा अपनी पुस्तक ‘दि प्रोजेक्शन ऑफ एस्ट्रन बॉडी’ में विस्तारपूर्वक की है।
शरीर के न रहने पर भी आत्मा का अस्तित्व बने रहने के बारे में जिन पाश्चात्य दार्शनिकों और तत्त्ववेत्ताओं ने अधिक स्पष्ट समर्थन किया है, उनमें राल्फ वाल्डो ट्राइन, मिडनी फ्लोवर, एला ह्वीलर, बिलकाक्स, विलियम वाकर, एटकिंसन, जेम्स केनी आदि का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। पुराने दार्शनिकों में से कालाईल, इमर्सन, कांट, हेगल, थामस, हिलमीन, डायसन आदि का मत भी इसी प्रकार का था। डेस्कर्ट, सोल को पीनियल में अवस्थित मानते थे एवं मृत्यु के बाद उसके नई काया में अवतरित होने की मान्यता के समर्थक थे।
इस संबंध में सामान्य व्यक्तियों की अनुभूतियां भी कम विलक्षण नहीं हैं। न्यूयार्क (अमेरिका) की एक दस वर्षीय बालिका डेजा ड्राइडन पेट की खराबी और टाइफ़ाइड की बीमारी से कृशकाय हो गई थी। अपने चारों ओर के भौतिक जगत के अतिरिक्त एक अन्य अलौकिक जगत की बातें करने लगती।
दसवें वर्ष, जिस दिन उसकी मृत्यु हुई, उस दिन उसने अपना चेहरा देखने के लिए दर्पण मांगा। दर्पण में अपना चेहरा देखने के बाद वह अपनी मां से बोली—‘‘मेरी यह देह जर्जर हो गई है। यह उस खूंटी पर टंगी पुरानी पोशाक की तरह हो गई है, जिसे मम्मी तुमने पहनना छोड़ दिया है। मैं भी इस पुरानी देह को उतारकर एली की भांति दिव्य देह धारण करूंगी।’’
‘‘एली कौन है?’’ मां के पूछने पर डेजी ने बताया कि यह वही व्यक्ति है, जो हवा में तैरता हुआ-सा आता है और उसे मृत्यु के बारे में बताता है। आज रात तक मैं भी चली जाऊंगी। अगले दिन ठीक ऐसा ही हुआ। ठीक दिन के साढ़े ग्यारह बजे उसने अपनी बांहें फैलाई व चिरनिद्रा में सो गई।
गत शताब्दी का विज्ञान आत्मा के अस्तित्व से इनकार करने में जितना कट्टर था, अब उतना नहीं रहा। शरीरशास्त्र के मूर्द्धन्य ज्ञाता अब यह मानने लगे हैं कि मरण थकान की परिणति है। भीतरी जीवनीशक्ति के अत्यधिक असमर्थ हो जाने पर ही मृत्यु के मुख में जाना पड़ता है। इतने पर भी बहुत समय तक शरीर की स्थिति ऐसी बनी रहती है कि यदि उसे समुचित विश्राम देकर थकान मिटाने का उपचार बन पड़े, तो कुछ समय उपरांत मरी हुई काया में फिर जीवन-संचार हो सकता है। गहरी थकान को मिटाने के लिए जिस प्रकार समाधि, निद्रा का उपाय अपनाया जाता है, उसी प्रकार भौतिक विज्ञान में शीत-समाधि का सिद्धांत स्वीकार किया गया है। यदि थोड़ा-सा भी जीवन किसी शरीर में शेष हो, तो उसे हिम-समाधि में लंबे समय तक रखने के उपरांत थकान मिटते ही पुनर्जीवन की आशा की जा सकती है।
दक्षिणी अफ्रीका में जोहान्सवर्ग शहन स्थित विक्टोरिया स्टैंड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आर्थर ब्लेकस्ले ने ‘साइकिक रिसर्च’ के क्षेत्र में अनेक प्रयोग किए हैं। पिता एडवर्ड माइकेल बर्वे और मां कैरोलिन फ्रांसिस एलिजाबेथ की संतान जाये बर्वे की जांच-पड़ताल इन्होंने उस समय शुरू की, जब वह 13 वर्ष की थी और उसकी विचित्रताओं की बात श्री ब्लेकस्ले को विदित हुई।
यह लड़की जोय ढाई वर्ष की आयु से ही अति प्राचीन ऐतिहासिक दृश्यों और वस्तुओं के चित्र बनाने लगी थी। उसकी इस शक्ति का प्रचार तब से अधिक हुआ, जब वह 12 वर्ष की आयु में ‘ग्रुगर हाउस’ नामक भवन देखने गई, जहां 15वीं शताब्दी में वहां के गणतंत्र का प्रधान ओम पाल रहा करता था। जोय का कहना था कि मैं पाल को जानती थी। उसने पाल के बारे में अनेक बातें बताईं। जोय के इतिहास-प्राध्यापक ने जांच के बाद उसके द्वारा बताए गए विवरण इतिहास प्रमाणित बताए और कहा कि इससे पूर्व मैं स्वयं यह सब नहीं जानता था। जोय के बताने पर मैंने पुस्तकों और रेकार्ड्स की छान-बीन की, तो पाया कि जोय की जानकारी आश्चर्यजनक रूप से सही थी। जोय ने बताया कि ओम पाल की पहली पत्नी मेरिया डूप्लेसिस 16 वर्ष की उम्र में एक बच्चे को जन्म देते समय मर गई थी। फिर मेरिया की भतीजी से पाल का दूसरा विवाह हुआ और उसके सोलह बच्चे हुए। जोय ने यह भी बताया कि पाल को विद्रोह के बाद देश से निर्वासित कर दिया गया था और वह स्विट्जरलैंड चला गया था, जहां 1950 में उसकी मृत्यु हुई। ये सभी बातें छान-बीन से सही निकलीं।
इस विचित्र बालिका जोय का दावा है कि उसे अपने पिछले नौ जन्मों की स्मृति है। इस बालिका के विवरणों में भी एक ही तथ्य अंतर्निहित है कि मनुष्य के विकासक्रम में एक सातत्य है और वह पिछले संस्कारों के साथ नया जीवन प्रारंभ करता है। यह बालिका तब परामनोवैज्ञानिकों के अध्ययन का एक आकर्षक केंद्र बनी हुई थी। अपने इन नवों जीवन के बारे में 12-13 वर्ष की आयु में जोय ने ऐसे विस्तृत विवरण पेश किए, जो मात्र अध्ययन के आधार पर शीर्षस्थ इतिहास पुरातत्त्ववेत्ता ही बता सकते हैं। यह चमत्कार दूरानुभूति का परिणाम भी नहीं माना जा सकता। क्योंकि दूरानुभूति की सामर्थ्य से व्यक्ति उन्हीं बातों को जान सकता है, जो प्रश्नकर्त्ता के मन-मस्तिष्क में हैं। किंतु जोय तो बिना किसी प्रश्नकर्त्ता के अनेक ब्यौरे सुनाती-बताती थी, जिसकी जानकारी खुद श्रोताओं को नहीं होती।
जोय के अनुसार बहुत पहले के एक जन्म की उसे इतनी ही याद है कि डायनोसौर यानी प्राचीन भीमकाय पशु ने उसका एक बार पीछा किया था। यह पाषाणकाल की घटना है। दूसरे जन्म में जोय दासी थी। उसके स्वामी ने अप्रसन्न होकर उसका सिर काट दिया था। तीसरे जनम में भी वह दासी के रूप में रही। चौथे जनम में वह तत्कालीन रोम में एक जगह रहती थी और रेशमी कंबल एवं वस्त्र बनाती थी। पांचवे जन्म में वह एक धर्मांध महिला थी और एक धर्मोपदेशक को उसने पत्थर दे मारा। जोय का छठवां जन्म इटली में नवजागरण के काल खंड में हुआ। उस समय वहां कला और साहित्य की नई जाग्रति उभार पर थी। जाये के घर में दीवारों और छतों पर बड़े-बड़े चित्र थे। सातवां जन्म गुडहोप के अंतरीप में 17वीं शताब्दी में हुआ। जहां पर वह ठिगने पीले रंग के लोगों में से थी। राज्याश्रय में पलने वाले व्यवसाय से उसका सदा संबंध रहा।
आठवें जन्म में वह अधिक विकसित रूप में पैदा हुई। 19वीं शताब्दी की यह बात है। सन् 1883 से सन् 1900 तक वह ट्रांसवाल गणतंत्र के राष्ट्रपति ओम पाल के निवास-भवन आती-जाती थी। कला और कारीगरों में उसकी गहरी रुचि थी।
नवें जीवन में वह प्रिटोरिया नगर की एक छात्रा थी। वह पिछले जन्मों के बारे में विस्तृत ब्योरे बताती है। उसकी कलारुचि प्रत्येक जन्म में अक्षुण्ण रही है। दासी के रूप में वह नाचती थी। रोम में रेशमी कंबल बुनती थी। धर्मक्षेत्र से भी वह सदा हर जनम में संबंधित रही। उसके संस्कारों में निरंतर एक धारावाहिकता देखी जा सकती है।
संस्कारों का यह प्रवाह ही पुनर्जन्म सिद्धांत का आधार है। भाव-संवेदनाएं, आस्थाएं, चिंतन की दशाएं और स्वभाव ही अगले जन्म में संस्कार रूप में साथ रहते हैं। साधन-सामग्रियां नहीं। साधनों की उपयोगिता भी प्रवृत्ति के अनुरूप घटती-बढ़ती रहती है। बुद्धि के विकास में उनका राजसी ऐश्वर्य कोई सहायता नहीं कर सका। अयोध्या की साधन-सुविधाएं राम को रावण विजय में रंचमात्र सहयोग ने दे सकीं। जिसके कारण राम या बुद्ध की गरिमा है, जो उनके व्यक्तित्व की वास्तविक विशेषताएं कही-समझी जाती हैं, उनका निर्माण उन सुविधाओं के द्वारा नहीं हुआ था, जो उन्हें जन्म से प्राप्त थीं। अपितु उन सत्प्रवृत्तियों के द्वारा हुआ था, जो उनके समग्र व्यक्तित्व के मूल में क्रियाशील रहीं। ये प्रवृत्तियां ही अपने अनुरूप साधन जुटाने का समर्थ आधार बन जाती हैं। व्यक्तित्व में ये विशेषताएं न हुईं तो साधनों-सुविधाओं का विशाल-भंडार खाली होते देन नहीं लगती