
संस्कारों की महत्ता
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पुनर्जन्म किस योनि में या किस स्थिति में होगा, यह मृतक के अपने संस्कार समुच्चय पर बहुत कुछ निर्भर है। जिधर अपना रुझान, झुकाव या अभ्यास होता है, उसी दिशा में मन मुड़ता है और अपने अनुरूप वातावरण तलाश कर लेता है। एक ही बगीचे में भौंरा फूल पर बैठता है और गुबरीला सड़े गोबर की मांद ढूंढ़ निकालता है। संस्कार उसी रुझान को कहते हैं। इसके अतिरिक्त संचित कार्यों के भले-बुरे परिणाम भी अपने विधान-आकर्षण से प्राणी को अपनी ओर खींच बुलाते हैं। इन्हीं रस्से से बंधा हुआ प्राणी पुनर्जन्म के लिए स्थान एवं वातावरण ढूंढ़ निकालता है।
शास्त्र मत इस संदर्भ में इस प्रकार है—
मनसदं शरीरं हि वासनार्थं प्रकल्पितम् । कृमिकोशप्रकारेण स्वात्मकोश इव स्वयम् ।। करोति देहं संकल्पात्कुम्भकारो घटं यथा ।। —योग वासिष्ठ
जिस प्रकार रेशम का कीड़ा अपने रहने के लिए अपने आप ही कोश तैयार कर लेता है, वैसे ही मन ने भी अपने संकल्प से शरीर को इस प्रकार बनाया है, जिस प्रकार कुम्हार घड़ा बनाता है।
काले काले चिता जीवस्त्वन्योन्यो भवति स्वयम् । भविताकारवानन्तर्वासनाकलिकोदयात् ।। —योग वासिष्ठ
अपने भीतर की वासना को मूर्तरूप देने की इच्छा से आकार धारण करने के लिए जीव अपना शरीर बदलता है।
श्रीमद्भागवत में एक अत्यंत मार्मिक आख्यायिका आती है। जिसमें देवर्षि नारद ने मरते हुए व्यक्ति को देखा, तो उनका अंतःकरण जीव के मायावी बंधन को देखकर द्रवित हो उठा। मृतक के शव के समीप खड़े कुटुंबीजन तथा पुत्र विलाप कर रहे थे। नारद ने जीवात्मा को समझाया, वत्स! इस संसारी बंधन को छोड़कर मेरे साथ चल और जीवन मुक्ति का आनंद ले। किंतु मृतक पिता की आसक्ति विलाप कर रहे कुटुंबियों से जुड़ी थी। नारद की ओर उसने ध्यान नहीं दिया और अपने वासनामय सूक्ष्मशरीर से वहीं घूमता रहा। कुछ दिन बाद उसने पशुयोनि में प्रवेश किया और बैल बनकर अपने किसान बेटे की सेवा करने लगा।
कुछ दिन पश्चात् नारद पुनः आए और बैल के पिंजरे में बंद जीव से मिले और पूछा, ‘‘तेरा मन हो तो चल और अच्छे लोकों का आनंद ले। बैल ने कहा—‘‘भगवन! अभी तो बेटे की आर्थिक स्थिति खराब है मैं इसे छोड़कर कैसे चलूं?’’ नारद जी चले गए। जीव डंडे खाकर भी बेटे की आसक्ति में डूबा रहा। मृत्यु के समय भी आसक्ति कम न हुई, सो कुत्ता बनकर बेटे की संपत्ति की रक्षा करता रहा। पूर्वजन्मों के संस्कार और मोह-भावना में तल्लीन उस कुत्ते को मिलती दुत्कार और डंडे। फिर भी उसे मालिक बने पुत्र को दरवाजा नहीं छोड़ा।
देवर्षि नारद पुनः आए और चलने को कहा, तो कुत्ते ने कहा—‘‘भगवन! आप देखते नहीं, मेरे बेटे की संपत्ति को चोर-डाकू ताकते रहते हैं, ऐसे में उसे छोड़कर कहां जाऊं?’’ नारद ने कहा—‘‘वत्स! तू जिन इंद्रियों को सुख व साधन समझता है, वे तुझे बार-बार धोखा देती हैं, फिर तू उनके पीछे बावला क्यों बना है, किंतु कुत्ते की समझ में कहां आती? मानवीय सत्ता तो इसे समझ नहीं पाती।’’
जीव को बेटे के व्यवहार से क्रोध आया और अपना हिस्सा लेने के प्रतिशोध की भावना से कुत्ते का शरीर छोड़कर चूहा बना। उस स्थिति में भी नारद ने समझाया, परंतु उसे फिर भी ज्ञान न हुआ। चूहे से तंग आकर किसान बेटे ने विष मिले आटे की गोलियां रखीं। चूहा मर गया। चूहे ने देखा कि इस बार विष देकर मेरा प्राणांत किया गया है। इसका मन क्रोध और प्रतिशोध की भावना से जल उठा। फलतः उसे सर्प योनि मिली। क्रोधित हो सर्प बदला लेने बिल से जैसे ही बाहर निकला कि घर वालों ने उसे लाठियों, पत्थरों से कुचल-कुचलकर मार डाला। अब नारद जी ने उधर जाना ही व्यर्थ समझा, क्योंकि वे समझ चुके थे कि अभी वह प्रतिशोध की धुन में चींटी, मच्छर, मक्खी न जाने क्या–क्या बनेगा? भौतिक शरीर के साथ सदा-सर्वदा के लिए जीवन की समाप्ति नहीं हो जाती। नए कलेवर के रूप में जीव अपने कर्मानुसार परिस्थितियां लिए पुनः प्रकट होता है। इस तथ्य की पुष्टि धर्म ही नहीं, तर्क एवं प्रमाण भी करने लगे हैं। विज्ञान भी दबी जुबान से पुनर्जन्म का समर्थन करने लगा है। सचाई को और भी गहराई से परखने के लिए वैज्ञानिक प्रयासरत हैं। वह दिन दूर नहीं जब पुनर्जन्म तथा उससे जुड़ा कर्मफल का अकाट्य सिद्धांत सर्वत्र स्वीकार होगा। तब निश्चित ही मानव जाति को जीवनयापन के लिए स्पष्ट आचार संहिता प्राप्त होगी। विज्ञानसम्मत मूल्यों के आधार पर जीवन जीने वालों के लिए वह अनिवार्य है भी।