गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 5)
बहुपत्नी प्रथा चलते हुए यह आवश्यक हो गया कि इसकी प्रतिक्रिया से नारी को भी तनकर खड़े न होने देने के लिए धार्मिक मोर्चे पर मनोवैज्ञानिक दीवार खड़ी की जाय और उन्हें अपनी विवशता को भगवद् प्रदत्त या धर्मानुकूल मानने के लिए बाधित किया जाय। सती प्रथा- पर्दा प्रथा- जैसे प्रचलन नारी को अपनी विवशता- नियति प्रदत्त मानने के लिये स्वीकार करने हेतु कुचक्र भर थे। इसी सिलसिले में धार्मिक अधिकारों से उन शोषित वर्गों को वंचित करने की बात कही जाने लगी। शस्त्रों में भी जहाँ-तहाँ ये अनैतिक प्रतिपादन ठूँस दिये गए और भारतीय संस्कृति की मूलाधार को उलट देने वाले प्रतिपादन चल पड़े। धार्मिक कृत्यों से वंचित रखने की बात भी उसी सामन्ती अन्धकार युग का प्रचलन- आधुनिक संस्करण भर है। वस्तुतः नर-नारी के बीच शास्त्र परम्परा के अनुसार कहीं राई-रत्ती भर भी अन्तर नहीं है।
प्राचीन काल में वेद-ऋचाओं की दृष्टा प्रतिपादनकर्त्ता ऋषियों की तरह ऋषिकाएँ भी हुई हैं। गायत्री वेदमन्त्रों का सिरमौर है। स्त्री, शूद्रों को वंचित करने के सिलसिले में गायत्री का वेदमन्त्र होने के कारण प्रतिबन्ध लगाया जाता है, जिसका किसी तर्क, तथ्य, न्याय, औचित्य की कसौटी पर कसने वाला कोई भी विज्ञजन समर्थन नहीं कर सकता।
गायत्री नारी रूप है। माता से पुत्रियों को कैसे दूर किया जा सकता है। बेटे को दूध पिलायें और बेटी को कचरे में फेंक दें, ऐसे निष्ठुर तो मात्र पिशाच ही होते हैं। गायत्री माता का ऐसा पिशाचिनी स्वरूप नहीं हो सकता। नर को नारी के क्षेत्र में प्रवेश से रोकने का मर्यादा के नाते कोई तुक भी हो सकता है पर नारी-नारी के क्षेत्र में प्रवेश न कर सके इसका तो लोक व्यवहार की दृष्टि से भी कोई औचित्य नहीं है। इस शंका का सर्वथा निर्मूल कर नर और नारी समान रूप से इसकी उपासना करते रह सकते हैं।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जून 1983 पृष्ठ 48
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