
महात्मा बुद्ध के व्यवहारिक उपदेश
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(श्री सत्यभक्त जी सम्पादक सतयुग)
गतमास में महात्मा बुद्ध की 2500 वीं जयन्ती मनाई गई और संसार के समस्त विद्वान तथा सदाचार प्रिय व्यक्तियों ने उनका गुणगान किया और श्रद्धाँजलि दी। यदि विचार पूर्वक देखा जाय तो महात्मा बुद्ध संसार के सभी धर्मोपदेशकों से अधिक व्यवहारिक प्रतीत होते हैं। इसका एक प्रमाण तो यह है कि इतने वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी उनके उपदेश अपने मूल रूप में स्थिर हैं और करोड़ों लोग उनको सत्य मान कर तदनुसार आचरण करने का प्रयत्न करते हैं। अन्य धर्मोपदेशकों के अनुयाइयों की संख्या भी कम नहीं हैं पर उनके उपदेश बहुत शीघ्र विकृत कर दिये गये और उनमें से कितनों के ही अनुयायी तो सर्वथा उल्टा आचरण करते दिखाई पड़ते हैं। उदाहरण के लिये महात्मा ईसा गरीबों के बड़े पक्षपाती थे और उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि “सुई के नाके में होकर चाहे ऊँट निकल जाय, पर कोई धनवान व्यक्ति स्वर्ग के दरवाजे में होकर भीतर प्रवेश नहीं कर सकता।” पर आज हम देखते हैं कि ईसाई राष्ट्र और व्यक्ति कैपिटेलिज्म (पूँजीवाद) के सबसे बड़े प्रचारक और पोषक हो रहे हैं। दूसरा प्रमाण यह है कि महात्मा बुद्ध ने अहिंसा और सब के प्रति मैत्री भाव का जो मुख्य उपदेश दिया वह आज पूर्ण रूप से सत्य प्रतीत हो रहा है और पंडित नेहरू से लेकर संसार के सभी प्रमुख नेता यह कह रहे हैं कि अगर इस समय किसी उपाय से संसार की रक्षा हो सकती है। तो वह उपाय महात्मा बुद्ध के सिद्धान्तों पर आचरण करना ही है।
वैसे तो बुद्ध धर्म का साहित्य बहुत विशाल है और उनके मुख्य शास्त्र भी हजारों पृष्ठों के हैं, पर वे अधिकाँश में बाद के आचार्यों द्वारा रचित हैं। महात्मा बुद्ध ने स्वयं कोई पुस्तक नहीं रची। वे नित्य प्रति अपने अनुयायियों को जो उपदेश दिया करते थे उनका संकलन ‘धम्म पद’ के नाम से किया गया है यह संकलन भी बुद्ध के देहावसान के 236 वर्ष बाद अशोक के शासन काल में किया गया। इसलिये उसे भी बुद्ध के मुँह से निकले ज्यों के ज्यों शब्द नहीं माना जा सकता। तो भी विद्वानों का विचार है कि उसमें बुद्ध के विचारों का साराँश अवश्य पाया जाता है। हम नीचे उसी से महात्मा बुद्ध के उपदेशों की झाँकी पाठकों को कराने का प्रयत्न करेंगे।
वैर से वैर कभी नहीं जाता। वैर के बदले मित्रता करने से वैर नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य दूसरों द्वारा की बुराइयों का चिन्तन करता रहता है उसका हृदय और वैर भाव से पूरित रहता है। इसलिये यदि कोई तुम्हारे साथ बुराई करे भी तो उसे भूल जाओ, क्योंकि वैर का भाव दूसरे का नहीं अपना ही नाश करने वाला है।”
“पाप और पुण्य दोनों मनुष्य के साथ रहते हैं। पापों से कष्ट होता है और पुण्यों से सुख। पाप पापी को इस प्रकार कष्ट देते हैं जैसे बैलगाड़ी का पहिया बैल को। ज्यों-त्यों बैल भागता है त्यों त्यों बैलगाड़ी का पहिया भी उसके पीछे-पीछे दौड़ता है। इस प्रकार जहाँ कहीं पापी जाता है, वहीं पाप भी उसको दुःख देने के लिये उसके साथ रहता है। पुण्य की उपमा छाया से दी गई है। छाया मनुष्य के साथ तो रहती है पर उसे कष्ट नहीं देती। इसी प्रकार पुण्य मनुष्य के साथ तो रहता है पर उससे पुण्यात्मा व्यक्ति को कोई कष्ट नहीं होता। पापी को इस लोक और परलोक दोनों में कष्ट होता है और पुण्यात्मा दोनों लोकों में सुख पाता है।”
‘केवल उसी पुरुष को संन्यासी होना चाहिये जो सार और असार को समझता है, सत्यप्रिय है और दोषरहित है। केवल गेरुये वस्त्र पहनने से कुछ नहीं होता।
“शान्तिप्रद एक बात हजारों बातों से अच्छी। शान्तिदायक एक गीत हजारों गीतों से अच्छा। अनर्थक सैकड़ों श्लोकों से एक ऐसा धर्म पद अच्छा जिसके सुनने से शान्ति मिलती है। सहस्रों को जीतने की अपेक्षा अपने को जीतना अच्छा। हजारों रुपये खर्च करके सैकड़ों वर्ष तक हवन करने से एक दिन आत्मजित् पुरुष का सत्कार करना अच्छा। दुष्ट मनुष्य के सौ वर्ष के जीवन से सदाचारी का एक दिन का जीवन अच्छा। सौ वर्ष के आलसी और हीन वीर्य जीवन की अपेक्षा एक दिन का दृढ़ कर्मण्यता का जीवन अच्छा। अमृत पद (निर्वाण) को न देखने वाले सौ वर्ष के जीवन से अमृत-पद को देखने वाले एक दिन का जीवन अच्छा। उत्तम धर्म को न देखने वाले सौ वर्ष के जीवन से एक दिन का उत्तम धर्म देखने वाला जीवन अच्छा।”
दण्ड से सब काँपते हैं। मौत से सब डरते हैं। अपनी आत्मा के तुल्य सबको समझकर न किसी को मारो न मरवाओ। सबमें तुम्हारी सी ही जान है इसलिये किसी की हत्या मत करो। जो अपने सुख के लिए दूसरे की हत्या करता है, उसे मृत्यु के पीछे सुख नहीं मिलेगा। किसी से कटु वचन न बोलो क्योंकि वे भी तुमसे उसी प्रकार बोलेंगे और इससे झगड़ा उत्पन्न होगा।”
“जो अपने को दमन नहीं कर सकता, वह दूसरों को वश में नहीं रख सकता। मनुष्य को अन्य से सहायता नहीं मिल सकती, अपने ही किये से काम चलता है। मनुष्य को अपना कर्तव्य स्वयं पालना चाहिये। पवित्रता और मलिनता मन की है। कौन किसको शुद्ध कर सकता है?”
“मनुष्य को बिना कुछ पास हुए भी आनन्द से रहना चाहिये। राग के समान कोई आग नहीं है। द्वेष के समान कोई हराने वाला पासा नहीं है। शरीर के समान कोई दुःख नहीं। शान्ति के समान कोई सुख नहीं।”
“आरोग्य परम लाभ है, सन्तोष परम धन है, विश्वासी पुरुष ही परम बन्धु है, निर्वाण ही परम सुख है।”
“धर्मात्मा वही है जो धर्म-अधर्म का निश्चय कर सके। वह पण्डित नहीं जो बहुत बोले। क्षमाशील, वैर रहित और अभय पुरुष ही पण्डित है। बाल पकने से कोई बड़ा नहीं होता। बड़ा वही है जो सत्य, अहिंसा, संयम, दम आदि का अवलंबन करे। सिर मुड़ाने से कोई श्रमण (संन्यासी) नहीं होता, श्रमण वही है जो पाप रहित हो।”
‘आलसी, समय पर न उठने वाले तथा निर्बल संकल्प वाले को प्रज्ञा (ज्ञान) की प्राप्ति कभी नहीं होती। शुद्धि के लिये तीन मार्ग हैं—काया, वाणी और मन की रक्षा करना। ध्यान से ज्ञान होता है, बिना ध्यान के ज्ञान नहीं हो सकता। वासना के वन को काट डालो। एक भी वृक्ष शेष न रहे, तभी निर्वाण होगा।”
“झूँठ बोलने वाला नरक को जाता है। साधुओं के वस्त्र पहिन कर पाप करने वाला नरक को जाता है। राष्ट्र का धन व्यर्थ में खाने से तो आग में तपाया हुआ लोहे का गोला खा लेना अच्छा है। परस्त्रीगामी को चार चीजें प्राप्त होती हैं- अपुण्य लाभ, कष्ट युक्त शय्या, निन्दा और नरक।”
“बुद्धिमान लोग लोहे, लकड़ी या सन के बन्धन को दृढ़ नहीं कहते। पुत्र, स्त्री, तथा धन का मोह सबसे बड़ा बन्धन है। जो बन्धन खिंच जाय, ढीला पड़ जाय, परन्तु टूटे नहीं वही दृढ़ बन्धन है। ज्ञानी को यही बन्धन तोड़ना चाहिये।”
“जटा, गोत्र या जाति से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जिसमें सत्य और धर्म है वही ब्राह्मण है। जो शरीर, वाणी और मन से बुरा काम नहीं करता उसको मैं ब्राह्मण कहता हूँ। मैं उसको ब्राह्मण कहता हूँ जो निर्धन और बन्धनों से मुक्त है। मैं उसको ब्राह्मण कहता हूँ जिसने कुछ अपराध नहीं किया फिर भी गाली, हानि तथा दण्ड को शान्ति पूर्वक सह लेता है। जिसमें शाँति का बल है, जो क्रोध रहित कर्तव्य परायण, शीलवन्त, इच्छा रहित, दमन युक्त और जीवनमुक्त है, मैं उसको ब्राह्मण कहता हूँ। मैं उसको ब्राह्मण कहता हूँ जिसने डण्डे को उठाकर रख दिया है, जो स्थावर या जंगम किसी प्राणी को हानि नहीं पहुँचाता और न मारता है। मैं उसको ब्राह्मण कहता हूँ जो सुखों में लिप्त नहीं होता, जैसे पानी में कमल।”
बुद्ध का यही शासन अर्थात् उपदेश है कि “सब पापों से बचो, अच्छे विचार रखो और चित्त को शुद्ध करो। शान्ति ही परम तप है, तितिक्षा ही परम निर्वाण है। दूसरों को हानि पहुँचाने वाला साधु नहीं हो सकता, न दूसरों को मारने वाला श्रमण। किसी की निन्दा न करो, किसी को न मारो, इन्द्रियों को वश में रखो, कम खाओ, एकान्तवास करो और विचारों को शुद्ध रखो।”