
वैदिक युगीन एक धर्म प्रचारिका
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(श्रीमती सुनन्दा)
वैदिक युग को सुवर्णयुग कहा जाता है, जो भारतीय संस्कृति का प्राचीनतम समय है। उस समय संसार का कोई मानव समाज भारतीय जनता से सभ्यता में आगे बढ़ा हुआ नहीं था, बल्कि संसार में अभी सुधार, अन्वेषण एवं मानवता का सूर्य उगने को ही था जो भारत में अपनी पूरी दमक दिखा रहा था। भारत को जगद्गुरु की उपाधि सर्व प्रथम इसी युग के बल से प्राप्त हुई।
वैदिक युग में भारत के सर्वांगीण विकास के कारणों का यदि हम पता लगावें तो मालूम होगा कि उस वक्त स्त्रियों की समान उन्नति यह भी एक प्रमुख कारण था। साधारण रूप में स्त्री-पुरुषों की संख्या समाज में एक समान ही रहती आई। अतः स्त्रियों की उन्नति की उपेक्षा का अर्थ आधे समाज की अवहेलना ही हो सकता है। यही नहीं, बल्कि भावी पुरुषों एवं भावी माताओं का लालन-पालन भी स्त्रियों की गोदी में ही हुआ करता, जिससे उनकी अवनति-उन्नति पर समूचे भावी राष्ट्र का बनना-बिगड़ना निर्भर होता है। मतलब यह कि स्त्रियों की उन्नति के सिवा कोई राष्ट्र कभी अपना सर्वांगीण विकास करने में समर्थ नहीं होता। जिस वैदिक सत्ययुग का हम गौरव-गीत गाते नहीं थकते, उस युग के समाज ने इस सिद्धान्त के महत्व को पूरी तरह जानते हुए समस्त भारतीय स्त्रियों की सर्वांगीण उन्नति को अपना परम आवश्यक कर्तव्य समझ लिया था।
वैदिक युगीन स्त्रियों का स्थान-मान समाज में बहुत ऊँचा था। उन्हें समान स्वतन्त्रता, समान विद्या तथा समान सन्धि दी जाती थी। स्त्रियाँ पुरुषों की भोग सामग्री नहीं, अर्धांगिनी समझी जाती थी, जिनके सिवाय पुरुषों का धर्म कार्य भी अधूरा माना जाता। समाज की सभी प्रकार की उन्नति करने में हाथ बटाने का उन्हें पूरा अधिकार तथा सामर्थ्य प्राप्त था। वैदिक संस्कार और ज्ञान प्राप्त करने का भी उन्हें पूर्णाधिकार था, बल्कि उपनयन संस्कारपूर्वक वे वेदाध्ययन तथा अग्निहोत्र की अधिकारिणी बन जाती थी। इतना ही नहीं, उस युग की ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ ऋषियों के समान ही मन्त्रद्रष्टी ऋषिकाएँ थीं, जिन्होंने स्वयं वैदिक सूक्तों की रचना की। अदिति, रोमशा, अपाला, वाग्देवी, शश्चती, जुहू, दक्षिणा, सूर्या विश्ववारा, लोपामुद्रा, इंद्राणी आदि मन्त्रद्रष्टी देवियों की रचनाएँ आज भी वेदों में निहित है।
उपर्युक्त वैदिक महिलाओं में वेद प्रचारिका ‘घोषा’ का स्थान बहुत ऊँचा है। यह कुक्षिवान मुनि की कन्या थी, जो अपने पिता के ही समान विद्वान तथा विख्यात थी। इसके पिता वैदिक ज्ञान के अच्छे प्रचारक थे। यह भी महिलाओं में प्रचार करती थी। घोषा शब्द का अर्थ ही है ब्रह्मचारिणी कन्या, जो वेदाध्ययन कर ईश्वरी ज्ञान की सर्वत्र घोषणा करे, जिधर उधर प्रचार करे।
घोषा को कोढ़ यानी कुष्ठ (महारोग) की बीमारी थी, जिससे उसके साथ कोई विवाह करना नहीं चाहता था। परन्तु कोढ़ की बीमारी कभी अच्छी नहीं हो सकती, ऐसी गलत धारणा वैदिक समाज में नहीं थी। आर्यों के चिकित्सक वैद्यराज अश्विनी कुमार के प्रयत्नों द्वारा उसका रोग दूर हो गया और एक विचारशील गुणाढ्य युवक ने उससे शादी की। उसे विश्वास था कि कोढ़ का दौर निकल जाने पर खून में कोई खराबी नहीं रह सकती, जिससे कोढ़ियों को घृणा या भय की दृष्टि से देखा जाय।
विवाह होने के उपरान्त भी घोषा ने अपना प्रचार-कार्य जारी रखा। प्राचीनतम ऋग्वेद के दशम मण्डल के 36 तथा 40 वें सूक्तों की दृष्टी ऋषिका यही है, जिनमें कुमारी कन्या के वेदाध्ययन के समय से गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते समय तक के समस्त कर्तव्यों का उल्लेख है। घोषा देवी ने जो सामुदायिक वृत्ति से प्रार्थनाएँ लिखी हैं, उनमें उसके ऊँचे विचारों एवं भावनाओं के दर्शन होते हैं। कुछ प्रार्थनाओं का भावार्थ संक्षेप में निम्न प्रकार है।
“हे प्रभो! आपका जो रथ विचारशील और सुगठित है, जो कर्मशील ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न लोगों द्वारा आदर करने योग्य है, वह रात दिन हमारे घर में रहे। इसके लिए हम उपासिकाएँ आपकी श्रद्धापूर्वक प्रार्थना करती हैं। जो नर-नारी पितृ नाम की तरह समयदेव का आदर करती हैं वे सदा खुशी होती हैं। “हे भगवन्! आप हममें मधुर वचन बोलने की प्रेरणा करें। हमारे कार्यों को पूरा करें। हममें विकासशील बुद्धि उत्पन्न करें। हम उपासिकाएँ सत्य वचन सफल कर्म तथा सर्व समर्थ बुद्धि की कामना करती हैं, आप पूर्ण कीजिये।”
“हे गुरुदेव! आप निष्कपट, असहाय और असमर्थ जीवों के ऐश्वर्य हैं। भूखे, दीन, अन्धे, दुबले पुरुषों के आप रक्षक हैं। आप ही नाना प्रकार के क्लेश एवं दुःखों से पीड़ित रोगियों के बैद्य हैं। आपकी कीर्ति गाथा मैं समाज का सुनाती हूँ। हमें ऐसे उपाय सुझाइए कि हमारे शत्रु भी हमारे प्रति श्रद्धा रखें।
“हे सत्यदेव! मैं वेद की घोषणा और वेद का सन्देश पहुँचाने वाली प्रचारिका हूँ। मैं चारों तरफ घूमकर आपकी ही स्तुति गाती हूँ। विद्वानों से आपके विषय में चर्चा करती हूँ। आप रात-दिन अवश्य मेरे पास रहें और मेरे इन इन्द्रियरूपी घोड़ों से जुते हुए शरीररूपी रथ सहित मनोरूप अश्व का आप दमन करें।
हे नाथ! आपकी कृपा से ऐसा हो कि जब कोई ब्रह्मवादिनी प्रचारिका विवाह की इच्छा करे तब उसे गुणवान, सुन्दर और युवा वर प्राप्त हो। वह कैसा हो? उद्योग के द्वारा जिसके घर में, गेहूँ, जौ आदि विविध प्रकार के अन्न उत्पन्न होते हों, जिसके यहाँ दया, परोपकार आदि गुण ऊपर से गिरने वाली नदी की तरह बहते हों, जो रोग, व्यसन आदि से रहित हों और जिसके मकान में स्नेह, माधुर्य सौंदर्य आदि का वास हो।”
ब्रह्मवादिनी घोषा की जीवनी हमारे नारी समाज को अपनी सर्वांगीण उन्नति करने तथा अपने ज्ञान का सर्वत्र प्रचार करने के लिये प्रेरित करे, यही मैं चाहती हूँ। यदि ऐसी स्त्रियाँ भारत में आज आगे बढ़ने लगी तो भारत शीघ्र ही फिर अपने पूर्व वैभव को प्राप्त हुआ समझना चाहिए।