• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • मांग रही है आज मनुजता रहो और रहने दो!
    • मांग रही है आज मनुजता रहो और रहने दो (Kavita)
    • महात्मा गाँधी की दैनिक प्रार्थना
    • भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा
    • सुख-दुःख में समभाव
    • सत्संग की महिमा
    • उदारता एक महान गुण
    • वैदिक युगीन एक धर्म प्रचारिका
    • भगवान का अनुग्रह
    • महात्मा बुद्ध के व्यवहारिक उपदेश
    • देवताओं के वाहनों का रहस्य
    • साँस्कृतिक पुनरुत्थान और नारी
    • गुरु मंत्र-गायत्री
    • श्री रामकृष्ण परमहंस के उपदेश
    • वेदों में यज्ञ की महिमा
    • यज्ञ से देव तत्त्वों की परिपुष्टि
    • भारतीय आहार-विज्ञान
    • गोवंश की रक्षा होनी ही चाहिए
    • दहेज का असुर तो ऐसे मरेगा :—
    • गायत्री परिवार के समाचार
    • ‘अखण्ड ज्योति’ प्रेस का महत्वपूर्ण प्रकाशन
    • सकाम यज्ञों के कुछ विधि-संकेत
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1956 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


यज्ञ से देव तत्त्वों की परिपुष्टि

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 15 17 Last
(विद्याभास्कर श्री उदयवीर शास्त्री, बीकानेर)

प्राचीन ऋषियों ने यज्ञ को अनन्त विश्व को रूप समझकर उसमें अनन्त भावनाओं व क्रियाओं का समावेश किया है। समस्त विश्व का क्रिया कलाप एक प्रकार से यज्ञ का ही रूप है। यदि वह त्याग की भावना के साथ है, तो उसका और भी महत्व बढ़ जाता है। शास्त्रकारों ने यज्ञ के दो रूप माने हैं- काम्य और नित्य। जो क्रिया कलाप स्वार्थ को लेकर चलता है वह पहला, और जो त्याग-भावना अर्थात् फल की आकाँक्षा से रहित होकर किया जाता है वह दूसरा समझना चाहिये। जब से मानव ने आँखें खोली हैं, तभी से यह क्रियाकलाप चला आता है। गीता में भगवान् कृष्ण ने बताया है-

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्त्वष्ट कामधुक् ॥

आदि सर्गकाल में यज्ञ के साथ प्रजाओं का सृजन करके प्रजापति ने कहा, “इस यज्ञ के द्वारा तुम अपने सर्ग अर्थात् उत्पादन को बढ़ाओ, यह तुम्हारी अभिलषित कामनाओं का देने वाला है।”

इस कथन में गंभीर वैज्ञानिक तत्व अन्तर्निहित हैं, उन्हें यथाशक्ति समझने का यत्न करना चाहिए। यदि हम अपने प्रमाद से उस यज्ञानुष्ठान को पूरा नहीं निभाते, जिसका आदेश आदि सर्ग काल में प्रजापति ने मानव को दिया, तो प्रजापति की रचनायें प्राकृत तत्व किसी न किसी मात्रा में उसको सन्तुलित करने का प्रयत्न बराबर करते रहते हैं- नहीं हो पाती यह जगत्-प्रसव रुद्ध हो जाता, धीरे धीरे नष्ट हो जाता। प्रजापति का यज्ञ तो निरन्तर प्रवाहित रहता है, पर मानव को अपने कर्त्तव्य का मार्ग-दर्शन करने के लिए मनु ने इस रूप में यज्ञ का प्रारम्भ किया, जो हमारे लिए कर्त्तव्य रूप से शास्त्र प्रस्तुत करता है। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है-

मनुर्हवा अग्रे यज्ञे नेजे तद्नुकृत्येथाः प्रजा यजन्ते। (1।5।1।7)

आदिकाल में मनु ने यज्ञ द्वारा यजन किया, उसी का अनुकरण करके ये समस्त प्रजा यज्ञ करती है। यज्ञानुष्ठान की यह प्रक्रिया आदि सर्ग काल से चली आ रही है। इसका महत्त्व इस रूप में नहीं है, कि यह इतने प्राचीन समय से प्रवर्तित है, प्रत्युत यह समझ लेने में है, कि मानव के साथ इसका अस्तित्व अवश्यम्भावी है। इसके बिना मानव-सर्ग, मानव-विस्तार, मानव-विकास सब कुछ सन्देह में पड़ जाता है। न केवल मानव-सर्ग आदि,प्रत्युत समस्त प्राणि-वर्ग का जीवन तब सम्भव न रहेगा।

शास्त्रकारों ने यज्ञ के दोनों प्रकार के फलों का निर्देश किया है- अध्यात्म और भौतिक। काम्य कर्मों के फल- जिस कामना से वह यज्ञ-कर्म किया जाय, वही होते हैं। पुत्रेष्टि का पुत्र प्राप्ति, ग्राम काम यज्ञ को ग्राम प्राप्ति तथा स्वर्ग काम यज्ञ का स्वर्ग प्राप्ति आदि। जो यज्ञ निष्काम भावना अर्थात् त्याग भावना से किये जाते हैं, उनका फल अध्यात्म कहा जा सकता है। ऐसे यज्ञानुष्ठानों से अन्तःकरण शुद्ध होता है, रोग, द्वेष, मद, मात्सर्य आदि कषाय दूर होकर सात्त्विक भावनाओं का उद्रेक होने लगता है, तब अध्यात्म की ओर पुरुष की प्रवृत्ति अग्रसर हो जाती है। इन दोनों ही स्थितियों में लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जा दीर्घ विधिक्रम पार करना पड़ता है, उसका समझ लेना अत्यन्त आवश्यक है। यदि इस रहस्य को हम थोड़ा भी समझ पायें, तो सम्भवतः इस बात की स्पष्टता के लिए हमें कुछ मार्ग मिल सकेगा, कि यज्ञ से वायु-शुद्धि होने का तात्पर्य क्या है?

विधिक्रम से हमारा अभिप्राय यज्ञानुष्ठान के उन क्रम विधानों या रीतियों से नहीं है, जो यज्ञ-सम्पादन के समय पालन करनी आवश्यक हैं, हमारा संकेत उस ओर है, जब हम कोई यज्ञ पूर्णरूप से सम्पादन कर चुकते हैं, और कालान्तर में उसके फल को प्राप्त करते हैं, उन दोनों के अन्तराल काल में जो क्रिया-प्रतिक्रिया हुआ करती हैं, जिनके परिणामस्वरूप यज्ञकर्ता फल प्राप्ति पर्यन्त पहुँच पाता है। इस स्थिति को अधिक स्पष्ट रूप में समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए- चिकित्सक एक व्यक्ति को कहता है, उपयुक्त भोजन करने से आपका स्वास्थ्य ठीक हो जायगा, पर भोजन करने के तत्काल अनन्तर स्वास्थ्य ठीक नहीं हो जाता। उस प्रकार का भोजन करने और स्वास्थ्य प्राप्ति के अंतराल में भोजन रूप अनुष्ठान की अनेक क्रिया, प्रतिक्रिया होती रहती हैं, जो भोजन के अनन्तर हमारे लक्ष्य स्वास्थ्य प्राप्ति तक हमें पहुँचाती हैं। इसी आशय को लेकर शास्त्रों में ऐसा लेख है, कि ये आहुतियाँ यजमान को स्वर्गलोक में ले जाती हैं। वस्तुतः आहुतियाँ तो अपने दृश्य अथवा व्यवहार रूप से अग्नि में हुत होकर समाप्त हो जाती हैं। तब आहुतियाँ यजमान को स्वर्ग ले जाती हैं, अथवा आहुतियों पर सवार होकर यजमान स्वर्ग की ओर वहन किया जाता है। इसका क्या अभिप्राय है? आइये इसके रहस्य को समझने का यत्न करें।

शास्त्रों की यह घोषणा है कि यज्ञ देवों को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है, विचारिये, ये देव कौन हैं? इनका हमसे क्या सम्बन्ध है? हम यज्ञ में इनकी उपेक्षा नहीं कर सकते और हमारे प्रति उनका भी कुछ कर्त्तव्य हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है-

देवान् भावयताऽनेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥

प्रजापति ने कहा- इस यज्ञ के द्वारा देवों को भावित करो- तृप्त करो, तृप्त हुए देव तुमको तृप्त करें। परस्पर तृप्त करते हुए आप सब परम कल्याण को प्राप्त करोगे। विचारना चाहिए- वे कौन से देव हैं, जिनको प्रजा यज्ञ के द्वारा तृप्त करती है, और वे उसके बदले में सुख की अथवा अनुकूल स्थितियों की वर्षा से प्रजा को तृप्त कर देते हैं।

इसकी खोज में जब हम निकलते हैं, हमें अग्नि, इन्द्र, वायु, आपस्, चन्द्र, पृथ्वी, सूर्य, औषधि, वनस्पति आदि नामों से व्यवहृत देवों का पता लगता है। यज्ञ से इनकी तृप्ति कैसे होती है, यह भी विचार करना आवश्यक है। इसका एक स्थूल रूप मनु के श्लोक द्वारा स्पष्ट किया जाता है-

अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिवृर्ष्टरेन्नं ततः प्रजाः॥

अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्य किरणों में उपस्थित होती है। उनके संसर्ग से अन्तरिक्ष में इस प्रकार का वातावरण निर्मित हो जाता है, जिससे मेघों का संग्रह होने लगता है, वे समय पाकर पृथ्वी पर बरसते हैं, उस वृष्टि से यहाँ औषधि, वनस्पति, लता, फल, फूल आदि विविध खाद्य पदार्थ न केवल मानव के, अपितु प्राणिमात्र के लिए उत्पन्न हो जाते हैं। औषधि, वनस्पति, लता, फल, फूल आदि खाद्यों में विविध प्रकार की जीवनी शक्तियाँ (खाद्योज) रहती हैं, जो फलादि का उपभोग करने से प्राणियों को जीवन प्रदान करती हैं। वे जीवनी शक्तियाँ इनमें अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, जल आदि के प्रभाव से ही उत्पन्न हो पाती हैं। यदि हम यज्ञादि अनुष्ठान करके आज्य एवं अन्य विविध सामग्री को अग्नि के द्वारा उन देवों तक पहुँचाते रहते हैं, तो वे उन जीवनी शक्तियों को अधिक और उत्तम रूप से उत्पन्न करने में समर्थ रहते हैं। यही यज्ञ के द्वारा देवों की तृप्ति का स्वरूप है। यदि हम यज्ञ नहीं करते, तो यह विराट् रूप से प्रजापति का जो यज्ञ हो रहा है- सूर्य-चन्द्र किरणों के द्वारा रस वर्षा करते हैं, ताप पहुँचाते हैं, वायु प्राण संचार करता है, जल अनुकूल रसों का प्रदान करता है और जो अत्यन्त सूक्ष्म कीटाणुओं के रूप में अनन्त राक्षस या असुर जो हमारे जीवन को चाट जाने के लिए हमारे चारों ओर मंडराते हैं, ये सब देव मिलकर उनका ध्वंस करने के लिए बराबर प्रयत्न करते रहते हैं, पर हमारे द्वारा यज्ञादि रूप में उन्हें सहयोग न मिलने पर और हमारे दूसरे मलिनता आदि का प्रसार करने वाले कार्यों से असुरों की संख्या में कल्पनातीत वृद्धि हो जाती है, जिससे प्रजा में रोग आदि महामारी के रूप में फैल जाते हैं। प्रजा नष्ट होने लगती है, पर वह इसके आधार भूत कारणों को नहीं समझ पाती और कष्ट उठाती है।

यदि हम यज्ञ का बराबर अनुष्ठान करते हैं, तो देवों को उससे पुष्ट बनने में पूरा सहयोग प्राप्त होता है। यज्ञ से वायु की शुद्धि का यही अभिप्राय है, केवल वायु पद तो उपलक्षण मात्र है, उसका तात्पर्य सभी देवों की शुद्धि अर्थात् पुष्टि होने से है। समस्त वातावरण की शुद्धि ही यहाँ अपेक्षित है। इस प्रकार पुष्ट व तृप्त होकर समस्त देव उन असुरों को विनाश करने में पूर्ण समर्थ होते हैं, जिससे हमको दीर्घ जीवन प्राप्त होता है। यह शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि यज्ञ देवों की खुराक है। शतपथ ब्राह्मण के वाक्य हैं—

प्रजापतिर्देवानब्रवीत् - यज्ञो वोऽन्नम्। ..........यज्ञ उ देवानामन्नम्।

प्रजापति ने देवों को बताया- यज्ञ आपका अन्न है, खाद्य है, यज्ञ ही देवों का अन्न है। अब यदि हम यज्ञ न करके देवों को भूखा मरने देंगे तो निश्चित ही असुर बढ़ जायेंगे। मानव रोगी और क्षीण आयु होगा, जो आज सन्मुख स्पष्ट दीख रहा है।

यह निश्चित बात है कि देव यज्ञ के द्वारा ही अपने कार्य सम्पादन करने के लिए शक्ति प्राप्त करते हैं। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है—

यदुह किञ्च देवाः कुर्वते स्तोमेनैव तत्कुर्वते यज्ञो वै स्तोमो यज्ञे नैव तत्कुर्वते।

देव अपना जो कुछ कार्य करते हैं, वे स्तोम रूप साधन के द्वारा ही करते हैं। स्तोम यज्ञ का नाम है, इसलिये यज्ञ के द्वारा ही वे अपना कार्य करने में समर्थ होते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति इसका स्पष्ट अनुभव कर सकता है, कि यज्ञ के द्वारा चारों ओर के वातावरण में कुछ अनुकूल प्रभाव पड़ता है या नहीं। जब अग्नि में आज्य अथवा अन्य उपयोगी शाकल्य द्रव्य आहुत किये जाते हैं, उनके दग्ध होने पर दूर अवस्थित व्यक्ति को विशेष प्रकार की सुगन्धि का स्पष्ट अनुभव होता है। आहुत द्रव्यों की जीवनोपयोगी शक्तियाँ अग्नि के द्वारा अति सूक्ष्म अवस्था में परिवर्तित होकर वायु, आपस्, पृथ्वी, सूर्य-रश्मि आदि देवों में निहित उन जीवनी शक्तियों में अनुपम स्फूर्ति प्रदान करती हैं, जो खाद्य के रूप में आकर प्राणिमात्र को जीवन प्रदान करने वाली हैं।

बहुत लोग कह दिया करते हैं कि यज्ञ में जो घृत आदि दग्ध कर दिया जाता है, यदि उसे किसी व्यक्ति को दे दिया जाय और वह उसका उपयोग करले, तो उसका भला हो जाय, उसे व्यर्थ जला देने से क्या लाभ? वस्तुतः ऐसा विचार रखने वाले लोग जान बूझकर अज्ञानी बनते हैं। एक व्यक्ति के द्वारा उपयुक्त किया हुआ घृत आदि केवल उसी व्यक्ति को थोड़ा बहुत लाभ पहुँचायेगा, पर उतने ही घृत का यज्ञाग्नि द्वारा यदि प्रयोग किया जाय, तो वह सहस्रों व्यक्तियों के लिए लाभप्रद होगा। इसीलिए तो यज्ञ त्यागमय व परोपकारमय है, इसमें प्रत्येक व्यक्ति की सेवा की भावना निहित रहती है। यज्ञाग्नि में प्रदत्त एक आहुति सूक्ष्म होकर देवों में अनन्त जीवनी शक्तियों को स्फूर्ति प्रदान करती है, जिसका लाभ सहस्राधिक व्यक्तियों को पहुँचने वाला होता है। यज्ञ सम्बन्धी इन भावनाओं को लेकर शतपथ ब्राह्मण में कुछ संदर्भ लिखे गये हैं, जो इन अर्थों पर सुन्दर प्रकाश डालते हैं-

ततोऽसुरा उभयीरोषधीर्याश्च मनुष्या उपजीवन्ति याश्च पशवः कृत्ययेव त्वत् विषेणेव त्वत् प्रतिलिलिपुः उतैवं चिद्देवानभि- भवेमेति, ततो न मनुष्या आशुर्न पशव आलिलिशिरे ता हेमाः प्रजा अनाशकेन नोत्पराबभूवुः।......... ते देवा होचुर्हन्तेद मासामपजिघांसामेति, केनेति? यज्ञे नैवेति

(2।4।3।2-3)।

असुरों ने उन समस्त औषधियों को मारक तत्त्व अथवा विष से मानों लिप्त कर दिया, जिनका उपयोग कर समस्त मानव व पशु अपना जीवन निर्वाह करते हैं, ऐसा करके उन्होंने यह सोचा, कि इस प्रकार हम देवों को परास्त कर लेंगे, पर उन औषधियों को उस अवस्था में न मनुष्यों ने खाया और न पशुओं ने चुगा, उनका उपयोग न करने से समस्त प्रजा असुरों के द्वारा पराजित न की जा सकी।

इस ब्राह्मण वर्णन में यह ध्यान देने योग्य है कि औषधियों में जब स्वास्थ्य नाशक असुर रूप कीटाणु उत्पन्न हो जाते हैं, उस समय उनका उपयोग न करना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार अन्नादि औषधियों में प्रादुर्भूत असुर उनके उपयोग से प्राणियों के स्वास्थ्य को नष्ट कर देवों के कार्यक्रम को विध्वस्त कर देना चाहते हैं। यह ठीक है, कि ऐसी अवस्था में उन अन्नों का उपयोग न करना चाहिए, पर उपयोग न करने से भी तो कार्य नहीं चलता। बिना अशनपान के प्राणी कब तक जीवित रह सकता है? फिर असुर भी वे ऐसे कपटी व धूर्त्त हैं, कि वे अपने आपको इतने स्पष्ट रूप में कब आने देते हैं, कि उन्हें कोई भी जान पहचान सके, और उनकी मार से अपने आपको बचा सके। इसीलिए असुरों को सदा प्रायः छद्मवेशी कहा गया है, ये लुक-छिप कर आते हैं और देवों को चक्कर में डालकर परेशान करते हैं। इसलिए उनसे सुरक्षित रहने के लिए उपर्युक्त ब्राह्मण संदर्भ की अंतिम पंक्तियों में बताया गया है, कि असुरों के इस आक्रमण को देखकर देवों ने आपस में सलाह की कि हमें इन औषधियों में अन्तर्निविष्ट असुरों का हनन करना चाहिए। किसी ने पूछा, कि वह किस उपाय से किया जा सकता है? उत्तर मिला, वह यज्ञ से ही किया जा सकता है। इस प्रसंग से यह स्पष्ट है, कि अन्नादि औषधियों में अन्तःप्रादुर्भूत स्वास्थ्य नाशक तत्त्वों का यज्ञ के द्वारा ही अपवारण किया जा सकता है। जहाँ पर नियमित रूप से यज्ञों का अनुष्ठान होता है, वहाँ के विस्तृत वातावरण में उत्पन्न अन्नादि औषधियों में स्वास्थ्य नाशक तत्वों के प्रादुर्भाव की संभावना ही नहीं रहती।

शतपथ ब्राह्मण में इस प्रसंग का उपसंहार करते हुए आगे लिखा है-

एतेन वै यज्ञेनेष्ट्वोभयीनामोषधीनां याश्च मनुष्या उपजीवन्ति याश्च पशवः कृत्यामिव त्वत् विषमिव त्वत् अपजघ्नुः तत आश्नन् मनुष्या आलिशन्त पशवः।

इस यज्ञ के द्वारा ही उन समस्त औषधियों के स्वास्थ्य नाशक विष-प्रभाव को नष्ट कर दिया गया, जिनका उपयोग मनुष्य अथवा पशु करते हैं, परिणामस्वरूप मनुष्य उन अन्नादि औषधियों का उपयोग करने लगे और पशु भी चुगने लगे। यज्ञ के द्वारा वायु अथवा वातावरण की शुद्धि के लिये इससे अधिक और किस प्रमाण की आवश्यकता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इस प्रकार के प्रसंग अनेक स्थलों में हैं। इसके लिये आप गोपथ ब्राह्मण के उत्तर भाग [1/19] और कौषीतकि ब्राह्मण [5/1] को देख सकते हैं।

संक्षेप में चाहे हम काम्य यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं अथवा नित्य यज्ञ का और उसका चाहे कोई दूसरा भौतिक फल हो अथवा आध्यात्मिक, पर उन समस्त प्रकार के यज्ञों के वातावरण की शुद्धि रूप-फल का निराकरण तो किया ही नहीं जा सकता। यज्ञों का अनुष्ठान किये जाने पर उनके इस परिणाम से बचकर हम निकल नहीं सकते। यह यज्ञों का अनिवार्य और अनिर्बाध फल है। यज्ञ के किसी भी दूसरे लक्ष्य पर पहुँचने के लिये हमें इस मार्ग से जाना ही होगा। यह देव और मानवों का अटूट सम्बन्ध है। इस रूप में मानव-समाज की समृद्धि का यह मूल आधार है।

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्यानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।

मानव-यज्ञ के द्वारा ही देव अपने यज्ञ का अनुष्ठान यथावत् कर पाते हैं। ये सर्वश्रेष्ठ धर्म है। ये अद्वितीय है; उत्तम हैं, इनकी तुलना अन्य किसी से नहीं की जा सकती।

First 15 17 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • मांग रही है आज मनुजता रहो और रहने दो!
  • मांग रही है आज मनुजता रहो और रहने दो (Kavita)
  • महात्मा गाँधी की दैनिक प्रार्थना
  • भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा
  • सुख-दुःख में समभाव
  • सत्संग की महिमा
  • उदारता एक महान गुण
  • वैदिक युगीन एक धर्म प्रचारिका
  • भगवान का अनुग्रह
  • महात्मा बुद्ध के व्यवहारिक उपदेश
  • देवताओं के वाहनों का रहस्य
  • साँस्कृतिक पुनरुत्थान और नारी
  • गुरु मंत्र-गायत्री
  • श्री रामकृष्ण परमहंस के उपदेश
  • वेदों में यज्ञ की महिमा
  • यज्ञ से देव तत्त्वों की परिपुष्टि
  • भारतीय आहार-विज्ञान
  • गोवंश की रक्षा होनी ही चाहिए
  • दहेज का असुर तो ऐसे मरेगा :—
  • गायत्री परिवार के समाचार
  • ‘अखण्ड ज्योति’ प्रेस का महत्वपूर्ण प्रकाशन
  • सकाम यज्ञों के कुछ विधि-संकेत
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj