
भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा
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(श्री देवेन्द्र कुमार जैन, एम. ए.)
संस्कृति मनुष्यों की सामूहिक कृति है, और धर्म व्यक्तिगत। संस्कृति मनुष्य की होती है- पशुओं और देवताओं की नहीं- क्योंकि एक में विवेक नहीं है तो दूसरे में ‘श्रम’। मनुष्य समाज को जन्मकाल से ही विकास के लिए संघर्ष करना पड़ा है और इसी में से उसने सहयोग का मूल्य समझा, शुरू में वह प्रकृति के अधीन था, पर शीघ्र ही इसकी कार्य-कारणता को ठुकरा कर वह भाग्यवादी से प्रयत्नवादी बन गया, फिर उसने शरीर की स्थूल आवश्यकताओं (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) की अपेक्षा मानसिक विकास पर जोर दिया, मानव संस्कृति का बीड़ा मनुष्य की इसी विद्रोह वृत्ति में निहित है, भारतीय संस्कृति के इतिहास में भी विकास की यही परम्परा लक्षित की जा सकती है, पर भारतीय संस्कृति और आर्य संस्कृति को एक समझना उसकी परिधि को सीमित कर देना है, जिन आदर्शों के आधार पर भारतीय संस्कृति इतिहास में जीवित रही और जिससे उसने विश्व-मानवता की अनुभूति में योग दिया उन पर भारतीय प्रकृति की छाप स्पष्ट है। यहाँ उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा।
अनेकता में एकता की अनुभूति बाह्य समागम और आन्तरिक भिन्नता का फल है। भूगोल की दृष्टि से यहाँ की भूमि विषम है, ऋतु पद्धति भी भिन्न है। इस प्राकृतिक भिन्नता के कारण भारतीय जनपदों की चेतना, भाषा और रहन-सहन एक दूसरे से भिन्न हैं। पर यदि हम इस ऊपरी भिन्नता को लाँघ कर कुछ भीतर झाँके तो उनमें गहरी एकता दिखाई देगी। उनकी उपासना जीवन और भाषा में एक ही राष्ट्रीय आत्मा व्याप्त है। विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्त- (ब्रह्मवाद,चेतनवाद, अनात्मवाद) भी इसी अनेकता में एकता की अनुभूति पर जोर देते हैं।
समन्वयशीलता भी विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं और विविध जातियों के निरन्तर निवास के फल स्वरूप उत्पन्न हुई, भारतीय स्वभाव से समन्वयशील रहा है। अशोक ने घोषणा की थी “समवायः एव साधुः”- समन्वय ही अच्छा है। उसकी इस उदार नीति का हर्ष युग तक पालन हुआ। समन्वयशीलता के लिए तीन बातें बहुत आवश्यक हैं, सहिष्णुता, उदारता और संग्रहशीलता। व्यक्ति जब तक दूसरों के प्रति सहनशील नहीं बनता तब तक उसकी दृष्टि उदार नहीं होती, और जो अनुदार है वह दूसरों के प्रति ग्रहणशील न होकर वर्जनशील बनता है, उदाहरण के लिए मध्ययुग में भारतीय समाज दूसरों के प्रति वर्जनशील था, इस प्रकार आदान-प्रदान की धारा सूख जाने से वह पथरा गया। समन्वय का अर्थ दूसरों के साथ लुढ़कना नहीं, किन्तु ले देकर दूसरों को भी साथ ले चलना है। सहिष्णुता से धैर्य आता है, उदारता से जीवन -दृष्टि मिलती है और ग्रहणशीलता से पुष्टि- इन्हीं तीनों की समष्टि का नाम समन्वय है।
आत्मश्रेष्ठता—यह भारतीय संस्कृति की केन्द्रीय भावना है, इसी को आध्यात्मिकता भी कह सकते हैं, पर इसका अर्थ विरक्ति या जीवन से पलायन नहीं है, आत्मश्रेष्ठता का अर्थ है जड़ से आत्मा को ऊँचा समझकर उससे प्रेम करना। पर आत्म-प्रेम के लिए दूसरों से प्रेम करना आवश्यक है। इसी का दूसरा नाम अहिंसा है। आत्मा की उपासना के लिए केवल शरीर-पूजा ही नहीं, किन्तु इन्द्रियनिग्रह संयम और बौद्धिक विराग भी अपेक्षित है। युद्धोन्मुख राष्ट्रीयता के इस युग में यदि विश्व राजनीतिज्ञ विरक्त बुद्धि से समस्याओं पर विचार करना सीख लें तो युद्ध का आतंक बहुत कुछ दूर हो जाय। सामाजिक व्यवस्था तथा अन्य विधि निषेध, इन्हीं आदर्शों को जीवन में उतारने के साधन मात्र हैं, जहाँ तक भारतीय संस्कृति का प्रश्न है, वह दीर्घकालीन साधना और चिंतन की उपज है, मानवता को एक करने की अधिक से अधिक क्षमता उसमें है पर उसके प्रकाश में जब हम समाज का दलित-गलित रूप देखते हैं तो ऐसा लगता है कि कभी इस राष्ट्र के लोक-जीवन में सामूहिक चेतना जग ही नहीं सकती, उसका विगत एक हजार वर्ष का इतिहास पराजय और आपसी घृणा का इतिहास है। वह ऐसी अचल जातों का ढेर है जिनमें न जीवन है और न ही गति। आशा-निराशावाद, हिंसा-अहिंसा और प्रवृत्ति-निवृत्ति की विचारधाराओं से इस साँस्कृतिक पतन का उतना सम्बन्ध नहीं जितना कि सदोष वर्णमूलक समाज व्यवस्था से। इसमें वह विष है जो साझेदारी के भाव को मार देता है और सामूहिक चेतना को कुण्ठित कर देता है। ऊँच-नीच की भावना से एक दूसरे के प्रति घृणा होने लगती है और फिर जातियों में द्वेष की परम्परा चल पड़ती है, जड़-समाज व्यवस्था में ऐहिक दुःख और विषमता से खीज कर, काल्पनिक सुख की खोज में परलोकवाद और मुक्ति की ओर झुकाव स्वाभाविक हो उठता है, मध्ययुग में हमने चारों ओर से अपने को समेट लिया और कछुआ धर्म ही जीवन का आधार बना लिया। हममें से बहुतों को इस बात का सुख और सन्तोष है कि हम जीवित हैं तथा हमारी संस्कृति अमर है, इसमें सन्देह नहीं कि वह अमर है, क्योंकि अमरता मरने के बाद ही मिलती है, हाँ, उसकी स्मृति भारतीय साहित्य और कलाकृतियाँ में अभी भी सुरक्षित है, पर वह जीवित नहीं क्योंकि वह लोक जीवन में नहीं है, भगवान बुद्ध ने अपनी अन्तिम वाणी में कहा था कि ‘संसार की प्रत्येक सत्ता विकासशील है’ (वयधस्मा संखाराः) भारतीय संस्कृति भी इसकी अपवाद नहीं, किसी राष्ट्र के एक बार सुसंस्कृत हो जाने पर भी उसकी सहज वृत्तियों का अभाव नहीं होता, यदि ऐसा हो जाय तो मानव संस्कृति का अंत ही समझिये, जिस प्रकार बार-बार जोते जाने पर भी खेत में तृण उग आते हैं, उसी प्रकार मानव मन में सहज वृत्तियाँ उत्पन्न होती ही रहती हैं, अतएव संस्कृति की साधना निरन्तर चलती रहती है। यह अविराम-गतिशीलता ही उसकी नित्यता और विकासशीलता है, पर भारतीय संस्कृति जितनी महान् और व्यापक है उसकी समाज-व्यवस्था उतनी ही निम्न और संकीर्ण है। हमारी संस्कृति में प्रवाहमान वेगशीलता अब भी है पर समाज व्यवस्था की चट्टान से उसका वेग शतशः रुद्ध है। क्या कभी उसके इस अवरोध का अवरोध सम्भव है?