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Magazine - Year 1956 - Version 2

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सत्संग की महिमा

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(श्री कृष्ण जी पाठक ‘जिज्ञासु’ शाहजहाँपुर)

सत्संग का अर्थ है “किसी सच्चरित्र का साथ अथवा संत महात्माओं की गोष्ठी में बैठकर मनोयोग से उनकी अमरवाणी से निकले सदुपदेशों का श्रवण पुनः अनुकूल आचरण करना।” इस छोटे से वाक्य में अलौकिक सुख सौंदर्य के अनेकानेक भाव अन्तर्निहित है। ‘सत्संग’ वास्तव में उस अविरल गति से कल कल स्वर करती हुई प्रवाहित दुग्ध धवल पुण्य सलिला भागीरथी की भाँति है जिसमें एकबार एकाकी भाव से मार्जन अथवा स्नान कर लेने से जन्म जन्मान्तरों के पाप पुंजों का विनाश हो जाता है और आत्मा निर्मल होकर आह्लादित हो उठती हैं।

सत्संग ही वह पुनीत एवं गंभीरतम रत्नाकर है जिसके अंतस्तल में मनसा, वाचा और कर्मणा का विशुद्ध रूप गोचर होता है। इसके तरल-सरल तल में मन वांछित पन्ना, नीलम, पुखराज, सदृश्य मोक्ष रूपी बहुमूल्य रत्न प्राप्त किए जा सकते हैं। यह ऋषियों, मुनियों, साधु एवं संतों का वह अक्षय तथा अशून्य पात्र है जिस पर कुबेर का कोष भी न्यौछावर है। यह वह परम मनोहर आभूषण है जिसको धारण करने से मनुष्य का हृदयस्थ ‘सोऽहम्’ माया मोह के आवरण तिरस्कृत कर झिलमिला उठता है।

मनुष्य अपने जीवन भवन की चरम विकास वाली तथा पारलौकिक सुख से हरी भरी छत पर सत्संग की अनन्त सोपान के द्वारा ही पहुँच सकता है। इसके द्वारा होने वाले कल्याण लाभ को संत, महात्माओं ने पूर्णरूप से विवेचन किया है।

आज का सामाजिक जीवन इतना विषम बन गया है जिसमें दरिद्रता, अभाव, उत्पीड़न और करुणा का ताँडव नर्तन हो रहा है। मनुष्य की अवाँछनीय असीमित इच्छाएं तदनुकूल समस्याएँ वटवृक्ष की सुगुम्फित जटाओं की भाँति इतनी जटिल हो गई है जिनका निराकरण मानव शक्ति से परे है। आज के सामाजिक कल्याणी कहलाने वाले मनुष्य कुसंगति में पड़कर कर्तव्य पथ से भ्रष्ट हो रहे हैं। सत्पुरुषों का साथ उन्हें भाता नहीं, साधु संतों के प्रवचन उन्हें कड़वी औषधि की भांति लगते हैं फलस्वरूप चारों ओर कुत्सित एवं कोलाहल पूर्ण वातावरण उपस्थित है। साधुओं और संतों का साथ तो ‘सर्वभूत हिते रतः’ वाली भावना उत्पन्न कराता है तथा दूसरों के कष्टों के निवारणार्थ आत्मबल प्रदान करता है। जैसा कि कबीरदास जी ने कहा भी है।

“कविरा संगति साधु की हरै और की व्याधि। ओछी संगति क्रूर की आठों पहर उपाधि॥”

आत्म सुख और परम शान्ति के लिये साधु महात्माओं, संतों का सत्संग परमावश्यक है। इसके बिना जीवन का कोई आस्वादन नहीं। इस सत्संग के पुण्य लाभ के निमित्त ही नर देही धारण करने के लिये देवगण भी लालायित रहते हैं।

वेद शास्त्रों में ईश्वरीय साक्षात्कार के निमित्त तीन प्रकार के मार्ग बतलाए गए हैं। ज्ञान, कर्म और भक्ति। इनमें ज्ञान का पथ तलवार की धार की भाँति प्रखर और सर्व साधारण की बुद्धि से परे की बात है। कर्म करने वाला पुरुष जब पाप, पुण्य, उचित अनुचित के संगम पर पहुँचता है तो कदाचित किंकर्तकी विमूढ़ सा हो जाता है। अतएव स्वभक्ति ही एकमात्र साधारण जनों का अटूट सहारा रह जाता है परन्तु इस भक्ति के आनन्द और सुख के उपभोग के लिये प्रथम सत्संगति आवश्यक है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भक्ति सरोवर में स्नान करने के इच्छुक जनों से स्पष्ट शब्दों में कहा—

“जो नहाइ चह यह सर भाई। तौ सत्संग करै मन लाई॥”

वस्तुतः ज्ञान और कर्म, सर्वप्रथम सत्संग से ही अनुप्रेरित होते हैं जिसके लिए प्रभु की अनुकम्पा अपेक्षित है। जैसा कहा गया है कि—

“बिनु सत्संग विवेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥”

सत् पुरुषों के साहचर्य से केवल भगवत् भक्ति की ही प्राप्ति नहीं होती, अपितु पुरुष की अमानुषिक प्रवृत्तियों का भी इससे परिष्कार होता है। तुलसीदास जी कहते हैं।

“शठ सुधरहिं सत्संगति पाई। पारस परसि कुधातु सुहाई॥”

सत्संगति तो पारस मणि के तुल्य है। इसके बिना भगवद् भजन, संकीर्तन यजन, ध्यान, पूजन, अर्चन, वंदन असंभव नहीं तो दुस्तर अवश्य है। गुसाँई जी के शब्दों में—

“बिनु सत्संग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग। मोह गए बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥”

प्रभु के चरणाम्बुजों में प्रेम की दृढ़ता के लिए सत्संग अपेक्षित है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने संत समागम के क्षणमात्र से ही अनेक पापों को मिटना बतलाया है। केवल एक घड़ी में ही—

“एक घड़ी आधी घड़ी और आध की आध। तुलसी संगति साधु की कोटिन हरैं व्याधि॥”

सत्संग की महिमा का उल्लेख करते हुए श्री भर्तृहरि जी ने अपने ‘नीतिशतक’ में लिखा है।

‘जाड्य धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं मानोन्नति दिशति पाप मया करोति

चेता प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति सत्संगति कथम किम न करोति पुसांम।”

अर्थात् बुद्धि से मूर्खता को हरती, वचनों से सत्यता को सींचती, प्रतिष्ठा का बढ़ाती, पाप को दूर करती, चित्त को प्रसन्न करती, और दसों दिशाओं में कीर्ति को फैलाती है। बताओ तो भला यह सत्संगति मनुष्य को क्या-क्या नहीं करा देती?

तुलसीदास जी ने सत्संगति का सब मंगलों का मूल कहा है।

“सत्संगति मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥”

यज्ञ, तप, दान, जप और पंचाग्नि तपस्या से जो भक्ति कठिनाई से प्राप्त होती है, वह साधु जनों के सत्संग से सरलतापूर्वक और थोड़े समय में ही प्राप्त की जा सकती है। जिस प्रकार गूँगे को मधुर फल का रसास्वादन अन्दर ही अन्दर मिलता है, ठीक उसी प्रकार भक्तजनों को सत्संग से आनन्द प्राप्त होता है। वह आनन्दानुभूति वाणी द्वारा अभिव्यक्त नहीं की जा सकती। पाठकों एवं श्रोतागणो! हृदय की शान्ति और चिंताओं की मुक्ति के लिए आओ आज से संत समागम के प्रारम्भ का व्रत लें।

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