• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • मांग रही है आज मनुजता रहो और रहने दो!
    • मांग रही है आज मनुजता रहो और रहने दो (Kavita)
    • महात्मा गाँधी की दैनिक प्रार्थना
    • भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा
    • सुख-दुःख में समभाव
    • सत्संग की महिमा
    • उदारता एक महान गुण
    • वैदिक युगीन एक धर्म प्रचारिका
    • भगवान का अनुग्रह
    • महात्मा बुद्ध के व्यवहारिक उपदेश
    • देवताओं के वाहनों का रहस्य
    • साँस्कृतिक पुनरुत्थान और नारी
    • गुरु मंत्र-गायत्री
    • श्री रामकृष्ण परमहंस के उपदेश
    • वेदों में यज्ञ की महिमा
    • यज्ञ से देव तत्त्वों की परिपुष्टि
    • भारतीय आहार-विज्ञान
    • गोवंश की रक्षा होनी ही चाहिए
    • दहेज का असुर तो ऐसे मरेगा :—
    • गायत्री परिवार के समाचार
    • ‘अखण्ड ज्योति’ प्रेस का महत्वपूर्ण प्रकाशन
    • सकाम यज्ञों के कुछ विधि-संकेत
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1956 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


वेदों में यज्ञ की महिमा

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 14 16 Last
अग्ने गृहपते सुगृहपतिस्त्बयाऽग्नेहं गृह पतिना भूयाः। अस्थूरिणौ गार्हपत्यानि सन्तु शतं हिमाः सूर्यस्यावृतमन्वावर्ते ॥27॥

-यजुर्वेद प्र. ख., द्वितीय अध्याय

अर्थ—हे गृहपते यज्ञाग्ने! तुम निश्चयतः पुण्य स्वरूप हो, अतः तुम्हारे साथ रहने से मैं भी अवश्य ही पुण्यवान बनूँगा। इस भाँति हम दोनों साथ-साथ रहते हुए सूर्य के आवर्तन सदृश एक सौ वर्ष तक संयम-नियम पूर्ण जीवन बिताते हुए सविता की भाँति ही निष्काम भाव से लोक-कल्याण करें।

अग्ने वेर्होत्रं वेर्दूत्यमवतां त्वां द्यावा पृथिवी ऽअव त्वं द्यावापृथिवी स्विष्टकृद्देवेभ्य ऽइन्दऽआज्येन हविषा भूत्स्वाहा सं ज्योतिषा ज्योतिः ॥9॥

—यजुर्वेद प्र. ख., द्वितीय अध्याय

अर्थ—हे यज्ञाग्ने! तुम यज्ञ के द्वारा प्राप्त होने वाले, दिव्य गुण, शक्ति , समृद्धि, धन-वैभव आदि के परिवाहक- ले जाने तथा देने वाले दूत के समान हो। द्यौ के निवासी देवगण तथा पृथ्वी निवासी मानव, दोनों को ही तुम्हारी रक्षा करनी चाहिये, क्योंकि तुम दोनों को ही आवश्यक वस्तु और शक्ति के देने वाले हो। द्यौ और पृथिवी तुम्हारी रक्षा करे और तुम देवलोक एवं मनुष्य लोक की रक्षा करो। सम्यक् ज्योति स्वरूप सूर्यदेव हमारे दिये हव्य और आज्य से सन्तुष्ट होकर, दिव्य सुख और सम्पत्तियाँ हमें प्रदान करें। हमारे तेज, उनके दिव्य तेज से समन्वित हों।

मा भेर्मा संविक्थाऽतमेरुर्यज्ञोऽतमेरुर्यजमानस्य प्रजा भूयात्। त्रिताय त्वा द्विताय त्वैकताय त्वा ॥23

—यजु. प्र. ख., प्र. अ.

अर्थ—हे यज्ञ कर्त्ताओं! भय मत करो। फल मिलने में देर होने से विचलित मत होओ। यज्ञ में ग्लानि की कोई बात ही नहीं। यज्ञ करने से यज्ञ कर्त्ताओं के साथ उसके परिवार और परिजन भी दुःखों से छूट जाएंगे। मैं एक, दो, तीन यानी त्रिचेताग्नि के लिये तेरा अनुष्ठान करता हूँ। इससे यज्ञ कर्त्ता की कामनायें अवश्य ही पूरी होती रहेंगी।

आदित्यै रास्नासि विष्णोर्वेष्योऽस्यूर्जे त्वाऽब्धेन त्वा चक्षुषाव पश्यामि। अग्नेर्जिह्वा सि सुहूर्देवेभ्यो धाम्ने धाम्ने में भव, यजुषे यजुषे ॥30॥

—यजु., प्र. ख., प्र. अ.

अर्थ—हे यज्ञ क्रिया! तू पृथ्वी निवासियों को कल्याणकारी मर्यादाओं में संचालित करने वाली है। यज्ञ की व्यापक शक्ति का तू साकार रूप है। पापों को जला डालने वाली अग्नि तेरी जिह्वा है। देवताओं को यहाँ बुलाने वाली क्रियाओं में तुम सर्वश्रेष्ठ हो, हमारा घर-घर यज्ञमय हो।

अग्नेस्तनूरसि वाचो विसर्जनं देववीतये त्वा गृहणामि बृहद ग्रावासि वानस्पत्यः सऽइदं देवेभ्यो हवि शमीष्व सुशमि शमीष्व। हविष्कृदेहि ॥15॥

—यजु. प्र. खण्ड, प्र. अ.

अर्थ—हे यज्ञ! तुम अग्निदेव के साक्षात् स्थूल रूप हो। वेदवाणी के प्रयोग स्थान हो—यानी वेदों के मन्त्र, यज्ञ करने से ही मनुष्यों और विश्व मात्र के लिए कल्याणकारी परिणाम उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। हम दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए तुम्हें ग्रहण करते हैं अर्थात् यज्ञ करते हैं, तुम हमारे लिए वनस्पतियों को संवर्द्धन करने वाले मेघ हो। जिसने हविष्य को ग्रहण कर लिया है, ऐसे हैं यज्ञ! तुम आओ और देवों के लिए दिए इस हवि को संस्कृत करो-भली भाँति संस्कृत करो, जिससे देव इसे ग्रहण कर हमारे लिए कल्याण की वर्षा करें।

अग्निनां रयिमश्नवत्पोषमेव दिवे दिवे। यशसं वीरवत्तमम्॥3॥

-ऋग्वेद 1।1।3

अर्थ- अग्नि के द्वारा यानी अग्नि को आहुति द्वारा प्रसन्न करके मनुष्य, पुष्टि, कीर्ति, वीरत्व, ऐश्वर्य (धन समृद्धि) को प्राप्त करता है।

अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति।

-ऋग्वेद 1।1।4

अर्थ- हे विश्व में परिपूर्ण रूप से (अन्तर्वाह्य सर्वत्र) व्याप्त रहने वाले अग्ने! यज्ञ और अध्वर से मनुष्य निरन्तर इस देव की यानी दिव्यता की ओर जाता रहता है।

धूरसि धूर्व धूर्वन्तं धूर्वं तं योऽस्मान्धूर्वति तं धूर्व यं वयं धूर्वाम॥ देवानामसि वहिनतम सस्नितमं पप्रितमं जुएटतमं देवहूतमम् ॥8॥

अर्थ—हे यज्ञाग्नि! तू नाशक है। उस हिंसक का तू नाश कर, जो हमारा (बिना अपराध के) नाश करता है, और उसे भी तू नाश करदे, जिसे (दुष्टता के कारण) मैं नाश करना चाहता हूँ या जिस दुष्ट वृत्ति का मैं नाश करना चाहता हूँ। देवताओं को वहन करने वालों में हे यज्ञाग्नि! तुम ही श्रेष्ठ और बड़े हो, तुम ही सबसे अधिक शुद्धि करने वाले हो, सबसे बड़ा परिपूरक, प्रिय और देवों को यहाँ बुलाने में सबसे अधिक समर्थ हो ॥8॥

गन्धर्वास्त्वा विश्वावसुः परिदधातु विश्वस्यरिष्ट् यै यजमानस्य परिधिरस्यग्निरिडऽईडितः। इन्द्रस्य बाहुरसि दक्षिणो विश्वस्यरिष्ट् यै यजमानस्य परिधिरस्यग्निरिडऽईडितः। इन्द्रावरुणौ त्वोत्तरतः परिधत्तां ध्रुवेणा धर्मणा विश्वस्यारिष्ट् यै यजमानस्य परिधि रस्यग्निरिडऽईडितः।

यजु. 1। 2। 3

अर्थ- संसार को बसाने वाले तथा पृथ्वी को धारण करने वाले सूर्यदेव, विश्व के सुख एवं रक्षा के लिए यज्ञ को सर्वत्र प्रसारित करें। यज्ञ में स्तुति करने योग्य हे अग्निदेव! तुम इन्द्र देवता का दाहिना हाथ और यज्ञकर्ता की रक्षा करने वाले हो, विश्व की भलाई करने में तुम यज्ञकर्ता के सहायक और रक्षक हो।

अग्नेऽदब्धायोऽशीतम पाहि मा दिद्योः पाहि प्रसित्यै पाहि दुरिष्ट् यै पाहि दुरद्मन्याऽअविषं नः पितुं कृणु। सुषदा योनौ स्वाहा वाडग्नये संवेशपतये स्वाहा सरस्वत्यै यशो भगिन्यै स्वाहा ॥20॥

-यजु. 1।2।20

अर्थ- हे अहिंसित यजमान वाले और अत्यन्त व्याप्त यज्ञाग्ने! तुम दैवी गुण वाले बाणों से हमारी रक्षा करो, जिससे हम यज्ञ की साधना करने वाले, किसी आसुरी मोह-ममता के बन्धन में न पड़ें, हमारा यजन (यज्ञ क्रिया) किसी दुष्ट भाव से नहीं हो, हमारा आहार राजसी और तामसी न हो, कदाचित कभी हो भी तो हे यज्ञ! उसे तू हमारे लिए विष रहित बना देना। हम तुम्हारी वेदी में, जो कि सदा ही सुख देने वाली है, बैठकर गार्हपत्य अग्नि में स्वाहा पूर्वक हवन करें। हमें यश और ऐश्वर्य देने वाली वाणी और विद्या की प्राप्ति हो, इसीलिए स्वाहा पूर्वक हम आहुति देते हैं। उक्त यश और ऐश्वर्य को धारण करने वाली वाणी के अनुकूल ही सदा-सर्वदा हमारा आचरण हो, इसीलिए हम आहुति देते हैं।

आतं भज सौश्रवसेष्वग्न ऽ उक्थ ऽ उक्थ आभज शस्यमाने प्रिय सूर्ये प्रियो ऽ अग्ना भवात्युज्जातेन भिनद्दुज्जनित्वैः ॥27॥

-यजु. 2।2।2।27

अर्थ- हे देवताओं! तुम द्रव्य देने वाले पुरुष को ऐसे श्रेष्ठ कार्य में प्रेरित और नियुक्त करो जिससे उसकी उज्ज्वल कीर्ति विस्तार को प्राप्त करे, सूर्य देवता उसे प्रिय पात्र के रूप में वरण करे, वह अग्नि के लिए परम प्यारा बने और वह पुत्र-पौत्रादि की उत्कर्षता को भी प्राप्त करें। यज्ञकर्ता के कुल में श्रेष्ठ सन्ततियों की आविर्भूति होती है।

अस्य प्रत्नामनु द्युत शुक्रं दुर्दहे अर्हयः।

पयः सहस्र सामृषिम् ॥16॥

यजु. 1।3।16

अर्थ- इस प्राचीन प्रकाशमय पथ का अनुसरण कर दिव्य ज्ञान सम्पन्न महर्षि गण, इस यज्ञ रूपी कामधेनु से शुक्र, सात्विकतारूपी सुधा, शक्ति, ज्ञान एवं आनन्द रूप दूध दुहते हैं।

तनूपाऽअग्नेऽसि तन्वं में पाह्यायुर्दाऽअग्नेऽस्यायुर्मे देहि वर्चोदाऽअग्नेऽसि वर्चो में देहि। अग्ने यन्मे तन्वाऽऊनं तन्मऽआषृणा॥17॥ यजु. 3।1।17

अर्थ- हे यज्ञाग्ने! तू शरीर रक्षक है, अतः हमारे शरीर की रक्षा करो, हे अग्नि! तू आयु प्रदाता है, अतः मुझे पूरी आयु प्रदान कर। हे अग्ने! तू तेज देने वाला है अतः हमें भी तेजस्वी बना ले, हे यज्ञाग्ने हम में जहाँ भी जो कुछ वैषम्य, दोष और त्रुटियाँ हैं, उन्हें बाहर निकाल कर हमें समता, शुद्धता एवं पूर्णता से पूर्ण करो।

First 14 16 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • मांग रही है आज मनुजता रहो और रहने दो!
  • मांग रही है आज मनुजता रहो और रहने दो (Kavita)
  • महात्मा गाँधी की दैनिक प्रार्थना
  • भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा
  • सुख-दुःख में समभाव
  • सत्संग की महिमा
  • उदारता एक महान गुण
  • वैदिक युगीन एक धर्म प्रचारिका
  • भगवान का अनुग्रह
  • महात्मा बुद्ध के व्यवहारिक उपदेश
  • देवताओं के वाहनों का रहस्य
  • साँस्कृतिक पुनरुत्थान और नारी
  • गुरु मंत्र-गायत्री
  • श्री रामकृष्ण परमहंस के उपदेश
  • वेदों में यज्ञ की महिमा
  • यज्ञ से देव तत्त्वों की परिपुष्टि
  • भारतीय आहार-विज्ञान
  • गोवंश की रक्षा होनी ही चाहिए
  • दहेज का असुर तो ऐसे मरेगा :—
  • गायत्री परिवार के समाचार
  • ‘अखण्ड ज्योति’ प्रेस का महत्वपूर्ण प्रकाशन
  • सकाम यज्ञों के कुछ विधि-संकेत
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj