
भारतीय आहार-विज्ञान
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(ले.- श्री लक्ष्मीनारायण टंडन ‘प्रेमी’ एम. ए.)
अनुभवी विद्वानों ने कहा है- “जीने के लिए खाओ, न कि खाने के लिए जियो।” किन्तु आज कितने आदमी इस आदर्श, उपयुक्त और लाभप्रद सिद्धान्त को मानते हैं। आज कल तो अधिकतर जनता का सिद्धान्त है ‘खाओ, पियो, मस्त रहो।’ अशिक्षितों बेचारों को तो जाने दीजिए, वह तो एक प्रकार से क्षम्य ही हैं अपनी अज्ञानता के कारण, किन्तु पढ़े-लिखे विद्वान् और सभ्य-समाज के सदस्य भी खाने के ही लिए जीते हैं। यूरोपीय-सभ्यता की वृद्धि के साथ होटलों,रेस्टोरेन्टों तथा काफी हाउसों की संख्या बढ़ती ही जाती है। विद्यार्थी-समाज तथा हमारे वयोवृद्ध नेतागण सभी होटलों तथा रेस्टोरेन्टों पर न्यौछावर हैं। आजकल रेस्टोरेन्टों में जाना एक बड़प्पन की निशानी मानी जाती है, एक फैशन है। आजकल तो किसी बड़े अवसर पर भले ही वह राष्ट्रीय पर्व हो या धार्मिक या किसी संभ्रान्त महापुरुष के आगमन पर उसके सम्मानार्थ होटलों में दावत देना एक नियम सा हो गया है। अब तो ब्याह आदि अवसरों पर भी बड़े आदमी होटलों की ओर से दावतों आदि का प्रबन्ध करते हैं, यों तो पहले भी हलवाइयों की दुकानें अपनी आकर्षक रंग−बिरंगी मिठाइयों से हमारे चित्त को मोहने को थीं ही। सुबह से रात तक गली-गली में चाट तथा खोमचे वालों की आवाजें आपको सुनाई देंगी। मलाई की बरफ, क्रीम, चाकलेट, कचालू-मटर,चाय-बिस्कुट आदि बेचने वाले स्टेशन, बाजार, मन्दिर के पास, नदी-तट पर संक्षेप में सदा ब्रह्म की माया की भाँति सर्वत्र फैले दिखाई देंगे। छोटे बच्चे ही मक्खियों की भाँति इन पर टूटते हों, ऐसा नहीं है। जवान, वृद्ध, स्त्री, पुरुष सभी चटोरे हैं। सभी का जीवन-सिद्धान्त है ‘चार दिन की जिन्दगी है, खा-पी लो।’ वह यह सोच ही नहीं सकते गम्भीरता से कि ‘चार दिन की जिन्दगी है। जीवन एक अमूल्य वस्तु है। इसका सदुपयोग करना चाहिए भले कामों में, न कि चटोरेपन में।’ ब्रह्मानन्द और भोजनानन्द में साधु-संन्यासी भी भोजनानन्द को अधिक महत्व देते हैं। यह सत्य बात है। ऐसी सोचनीय अवस्था है। प्रश्न यह होता है कि ऐसा क्यों है? उत्तर सरल है कि हम आहार-विज्ञान के विषय में बिल्कुल नहीं जानते हैं। भारतीय आहार विज्ञान क्या है, इसे यदि हम जान जायं तो बहुत कुछ हम अपना और देश तथा विश्व का भला करें।
अँग्रेजी में एक कहावत है कि अपने दाँतों से अपनी कब्र मत खोदो। इसका भी यही अर्थ है। हमारा दिन-रात मुँह बकरी की तरह चला करता है। यही कारण है कि आज देश का स्वास्थ्य इतना अधिक गिर गया है, भयानक रोगों की तीव्र बाढ़ आ गई है तथा मृत्यु संख्या इतनी अधिक और वह भी कम आयु में होती है। यह सत्य है कि आहार-विहार की अव्यवस्था तथा तत्सम्बन्धी नियमों की अवहेलना का फल हम रोग, अस्वास्थ्य तथा मृत्यु के रूप में पाते हैं। किन्तु आहार-विज्ञान की अज्ञानता ही एक मात्र कारण हमारे कष्टों का नहीं है, यह बात सत्य है। गरीबी भी एक प्रमुख कारण है। कह देना तो सरल है कि मौसमी फल और तरकारी सभी खा सकते हैं, किन्तु यह वही कहते हैं, जो सचमुच गरीब या पूर्णरूप से अभावग्रस्त नहीं हैं। जिन लोगों को दाल और रोटी ठीक से नहीं मिलती वह फल और शाक-तरकारी क्या खायेंगे? पर जो खा सकते हैं, वह भी तो नहीं खाते। आहार-विज्ञान की अज्ञानता ही के कारण नहीं, इसके विषय में जानते हुए भी- जीभ तथा स्वादेन्द्रिय के गुलाम होने के कारण। खान-पान में संयम तो जीवन भर की वस्तु है। यह कोई बीमारी में बताया गया वैद्य-डाक्टर द्वारा परहेज तो है नहीं कि जब तक रोग न जाय, तब तक फलाँ-फलाँ वस्तु खाना वर्जित है। कुछ समय तक के लिए तो जीभ को बस में करना सरल है, किन्तु सिद्धान्त रूप से सदा-सर्वदा को चटोरेपन को नमस्कार कर देना बहुत कठिन काम है। गाँधी जी का कहना था कि कामेन्द्रिय से अधिक सशक्त स्वादेन्द्रिय होती है।
भोजन इसलिए किया जाता है ताकि परिश्रम करने के कारण जो शक्ति का क्षय होता है तथा टूट-फूट होती है, उसकी पूर्ति हो सके। अतः हमें आदर्श और संतुलित भोजन करना चाहिए। उपयुक्त गुणों का भोजन हमें करना चाहिए। फिर भोजन उचित परिमाण में करना चाहिए। न इतना कम कि शरीर की पुष्टि न हो सके और न इतना ठूंस-ठूंस कर कि बेचारे पेट को साँस लेना भी दूभर हो जाय। एक घोड़ा जो दो मन बोझ लाद सकता है, उस पर यदि आज 10 मन लाद दें और वह भी एक दिन नहीं नित्य ही तो वह मरेगा ही। हम अपने पेट को ‘अपना’ न समझकर ‘पराया’ समझते हैं तभी तो बेचारे के साथ इतना अत्याचार करते हैं। प्रत्येक कर्मचारी को चाहे वह चपरासी हो चाहे बड़ा अफसर, इतवार को छुट्टी मिलती है, पर बेचारे पेट को कभी इतवार नसीब नहीं होता। हमारे महर्षियों ने उपवास और व्रत का इसी से महात्म्य रखा था। सोमवार, रविवार, प्रदोष, एकादशी, पूर्णिमा, रामनवमी, शिवरात्रि, जन्माष्टमी आदि व्रत ही व्रत रखा है। स्त्रियाँ और पुराने लोग अब भी लकीर को पीटते हैं पर व्रत का उद्देश्य समाप्त है। रामदाने के लड्डू, शकरकन्द का हलुवा, कूटू-सिंघाड़े की पकौड़ियाँ तथा घी में तली पूड़ियाँ, रबड़ी, मलाई, खोये की बर्फी-पेड़ा आदि विविध स्वादिष्ट भोजनों की एकादशी के दिन बन आती है यदि व्रत के दिन इतने बढ़िया स्वादिष्ट पेट नहीं, गले भर भोजन मिलें तो मैं तो कम से कम रोज एकादशी मनाने को तैयार हूँ। आहार-विज्ञान में उपवास का महत्व है। कभी-कभी उपवास किया करें।
गलत तरीके से खाना-पीना, जरूरत से ज्यादा खाना, बेमेल चीजों का एक साथ खाना हानिप्रद है। उचित परिमाण में खायें। सही मेल का खाना खायें। सही मेल का खाना खायें। अनुचित भोजन के अतिरिक्त घोर दरिद्रता, सार्वजनिक अशिक्षा, बाल-विवाह और स्वास्थ्य के विषय में अज्ञान हमारे अस्वास्थ्य का कारण है।
भोजन का पाचन ठीक से हो जाय। पाचक-यंत्र समुचित शोषण भोजन के रसों का कर सकें। व्यर्थ तथा निस्सार कचरा पैखाने-पेशाब के रूप में ठीक से निकल जाय। स्वच्छ वायु, पूरी साँस, शरीर की बाह्य और आन्तरिक सफाई भी आदर्श भोजन के साथ चले तभी हमारा स्वास्थ्य ठीक रहेगा। श्वाँस मार्ग, रोम-कूप, मूत्र-मार्ग, मल-मार्ग द्वारा कचरे की सफाई होती है। इनका कार्य ठीक से होता रहे इसलिए हमें प्रकृति के सहायक बनना चाहिए। याद रहे सब कचरे का शरीर से निकल सकना और उसके इकट्ठे होने के नतीजे से शरीर में बुरे लक्षण प्रकट होना ही रोग है।
हमें कुछ स्वास्थ्य-सम्बन्धी (भोजन-सम्बन्धी) सूत्र याद कर लेने चाहिए- (1) भोजन करते समय प्रसन्न चित्त रहें। शोक, क्रोध से दूर रहें। (2) 30-40 मिनट में कम से कम खूब चबाकर धीरे-धीरे भोजन करें। इससे भोजन-पदार्थ में छिपे प्राण-कण अलग-2 हो जाते हैं। साथ ही मुँह की लार भोजन में खूब मिल जाने से कार्बोहाइड्रेट, सुगर में परिवर्तित हो जाता है और इसी सुगर में रक्त-शुद्धि होती है। याद रखो पेट के दाँत नहीं होते। साथ ही यह भी याद रखो कि पेट में पहुँचने के बाद पेट से निकलने वाले किसी रस में कार्बोहाइड्रेट को सुगर में परिवर्तित करने की शक्ति नहीं है। (3) पेट में बोझ न मालूम पड़े- न खाते समय न भोजन के बाद। (4) अम्लोत्पादक (कार्बोज, प्रोटीन, फैट) रोग से बचाने वाले खाद्य (तरकारी, फल आदि) कम से कम तिगुने खाओ। (5) पर्याप्त जल पियो। 24 घंटे में 2-3 सेर पियो। (6)तली-भुनी चीजें, चाय, तम्बाकू, अफीम तथा शराब, भाँग आदि नशे वाली चीजों का पूर्ण बहिष्कार। (7) अंगरेजी की एक कहावत है ‘दिन के भोजन के बाद कुछ समय तक विश्राम करो तथा रात्रि के भोजन के पश्चात् एक मील टहलो। मानसिक तथा बौद्धिक परिश्रम लगभग 1 घंटे तक मत करो। जल्दी जल्दी खाना खाया और आफिस या स्कूल भागे, इससे तो हानि होगी ही। (8) कच्चा शाक, तरकारी, फल आदि प्रति भोजन के साथ करो। (9) नियमित व्यायाम, नियमित जीवन, साफ पाखाना, इन चीजों को न भूलो। (10)आधा पेट खाने से भरो, एक चौथाई पानी के लिए तथा एक चौथाई हवा के लिए खाली रखो। पेट सिकुड़ तथा फैलकर कसरत करके भोजन को पचाता है। बेचारे पेट को ऐसा करने का अवसर तभी मिलेगा जब वह ठसाठस न भरा होगा। (11) जितना भोजन उससे दुगुना पानी पेट में जाय, तिगुनी कसरत शरीर से लो और चौगुना हंसो, प्रसन्न रहो। (12) गहरी साँस, स्वच्छ वायु, प्राणायाम, सूर्य-नमस्कार, टहलना, दौड़ना, नियमित स्नान, मालिश, शरीर की रगड़, धूप और वायु स्नान, पैखाना पेशाब न मारना, सोने के पूर्व तथा प्रातः सोकर उठने के बाद जल पीना, 24 घंटे से अधिक पाखाना के रूप में पेट में किये भोजन का कचरा न रहने पाये और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात सप्ताह या 15 दिन में 24 घंटे का उपवास या कम से कम आध उपवास 12 घंटे का ही सही।