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Magazine - Year 1956 - Version 2

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साँस्कृतिक पुनरुत्थान और नारी

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(श्री डा. दमयन्ती देवी दफ्तरी, एम. बी. बी. एस. गोरेगाँव)

आज भौतिक विज्ञान के एवं उसकी प्रक्रियाओं से चमत्कृत संसार जड़वादी संस्कृति की ओर खिंचा जा रहा है, जिस संस्कृति का सार प्रत्यक्ष सुख भोग और उसके उपादान मात्र संग्रह करना है। इन्द्रियों की स्वाभाविक वृत्ति बहिर्मुखी होने के कारण विषयों में जिस भाँति पशु स्वभावतया प्रवृत्त होता है, मनुष्य भी उसी प्रकार उच्छृंखल और मनमानी गति से दौड़ने के लिए आतुर है। इस आतुरता के कारण संघर्ष की उत्पत्ति होती रहती है, जिसकी अग्नि से बचने के लिये चालाक और बलशाली वर्गों ने कुछ नियमों की रचना कर डाली है, जिससे वे बुद्धिहीन और कमजोर लोगों की अपेक्षा अधिक सुविधा से इसका उपभोग कर सके। इन्हीं प्रवृत्तियों एवं क्रियाओं की सीमा में ही भौतिक संस्कृतियों की दौड़ धूप है। इन सुखों को नगण्य क्षण स्थायी और नश्वर मान कर उच्चतर आनन्द के लिये इससे विपरीत चलना इस संस्कृति की दृष्टि में काल्पनिक-विलास मात्र है।

भारतीय संस्कृति में प्रारम्भ से ही इसे गौण स्थान मिला है, जिसका प्रमाण वेद, उपनिषद् एवं शास्त्र है। यहाँ के ऋषियों ने अपनी दिव्य दृष्टि से अनन्त आनन्द, ज्ञान, शक्ति और सत्ता की उपलब्धि कर उसे ही मानव जीवन का लक्ष्य स्थिर किया और इसे पाने के लिये ही सारे भौतिक साधनों का उपयोग करने में उसकी सार्थकता मानी। ये सारी उपलब्धियाँ विषय-जन्य सुखों से ऊपर उठकर ही प्राप्त की जा सकती हैं। इसीलिये जहाँ भौतिक संस्कृति मनुष्यों को सुखी बनने के लिये भौतिक भोग साधनों को संग्रह और परिग्रह करने पर जोर देती है वहाँ भारतीय संस्कृति, संन्यास, त्याग, उत्सर्ग एवं अपरिग्रह के द्वारा ही जीवन को आनन्द मय और कल्याणमय होने का निर्देश और प्रेरणा देती है। श्रद्धा, विश्वास तथा प्रेम ही इसका उपादान है। इन उत्कृष्ट भावों की प्रेरणा से होने वाले सारे सत्कर्म सर्व कल्याण के लिए ही होते हैं। इन्हीं कर्मों में अग्निहोत्र भी एक विशेष कर्म है। ऐसे सारे कर्मों को यहाँ यज्ञ शब्दों के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है।

उक्त उत्कृष्ट भावों, विचारों एवं कर्म की प्रेरणाओं को गायत्री मन्त्र द्वारा आरम्भ में शब्द बद्ध किया गया था और अभी तक इस जोड़ का कोई मन्त्र-श्लोक या काव्य नहीं हुआ, जिनमें ऐसे सम्बद्ध-सुष्ठु और क्रमानुबद्ध थोड़े शब्दों द्वारा उन विशाल-विस्तृत तत्वों का अनुगुम्फन हुआ हो। इसीलिये भारतीय संस्कृति में आज भी गायत्री उपासना और यज्ञ, शीर्ष स्थान पर स्थित हैं। वह नित्य नवीन है। हजारों युगों के बाद भी इसमें कोई मलिनता प्रवेश नहीं कर सकी। इस भौतिक प्रधान युग में भी ये दोनों आध्यात्मिक प्रेरणा देते रहते हैं।

इस विषय सुख प्रधान एवं आत्मानन्द प्रधान संस्कृति में आज भयंकर संघर्ष चल रहे हैं, लगता है जैसे दोनों एक दूसरे को मिटा देने पर तुले हुए हैं। द्वन्द्व को घटाने, मिटाने एवं सामञ्जस्य पूर्ण बनाने के लिये अनेकों मनीषियों ने अनेक पथ बताये हैं, उन्हीं अनेकों में पूज्यपाद श्री आचार्य श्री राम शर्मा जी एक विशेष व्यक्ति हैं, जिन्होंने प्रागैतिहासिक काल के ही उन दो अमर दिव्य और नित्य उज्ज्वल सूत्रों- गायत्री और यज्ञ को पकड़ कर भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान का बीड़ा उठाया है और पहाड़ जैसी कठिनाइयों-विरोधी परिस्थितियों के रहते हुए भी साहस और वीरता पूर्वक कदम आगे बढ़ाया है।

भारतीय संस्कृति सदा से ही पक्षपात रहित, न्याय पूर्ण और सत्य की परिपोषिका रही है। उसने मानवता के दोनों अनिवार्य अंगों, नारी और पुरुष दोनों को समान और पूर्ण रूप से सुविधा प्रदान कर विकास करने का सुन्दरता पूर्ण अवसर दिया है। उसने जहाँ याज्ञवल्क्य और शुकदेव जैसा ज्ञानी एवं योगी उत्पन्न किया है, वहाँ सुलभा, वाक् और गार्गी जैसी ज्ञान एवं योग निष्णता नारियाँ भी आविर्भूत किया है। जहाँ जनक जैसा राजा और योगी प्रगट किया है; वहाँ मदालसा जैसी रानी और योगीश्वरी का भी उद्भव किया है। पूज्य आचार्य जी के स्वर में वही संस्कृति आज वाणी एवं कर्म रूपा भागीरथी बनकर फूट पड़ी है। यद्यपि यह महान अवसर दोनों वर्गों के उत्थान की पुण्य घड़ी है, पर मैं समझती हूँ कि नारियों के लिये यह स्वर्णिम नहीं हीरक अवसर है, जिसका सदुपयोग कर वह पुनः अपने पूर्व सुपुनीत स्थान में जाकर अमर भाव से प्रतिष्ठित हो सकती है। भौतिक और वासना-पंकिल संस्कृति ने भारत में भारतीय संस्कृति का नकली चोगा पहन कर कमजोर और बुद्धिहीन वर्गों नारी को—सदा के लिये ही गिरी हुई, हीन और पतित अवस्था में रहने के लिये, बाधित कर दिया था। उन जालों को पतित पावन आचार्यदेव अपनी आत्म शक्ति से छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। उनका यह देश व्यापी विशद गायत्री महायज्ञ, इसी पुनर्प्रतिष्ठा की नींव और भूमिका थी। आगे भी उनकी योजनाऐं नारी को उसका प्राचीन मान और स्थान दिलाने की है। इसीलिये अपनी बहिनों से विशेष रूप से जाग्रत और सचेतन होकर इस अनुपम अवसर का लाभ उठाने के लिये मैं इन साँस्कृतिक पुनरुत्थान की योजनाओं में भाग लेने के लिये इन पंक्तियों द्वारा अविरल प्रार्थना कर रही हूँ।

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