
मांग रही है आज मनुजता रहो और रहने दो (Kavita)
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क्योंकि ताप के अंतराल में पली यहां पर छाया,
टलती निशि के अंधकार ने राग ज्योति का गाया,
अगणित बज्रों से निर्मित हिमगिरि की दृढ़ छाती पर—
छोटे से पौधे ने अपना है अधिकार जमाया,
माना तुम निर्भय सागर सम, प्रलय वेग से बहते—
किन्तु निकट ही तुष्टि दायिनी सरिता भी बहने दो!
वैभव भरे कंठ से कहते हैं प्रासाद कहानी,
किन्तु अनसुनी रहे न सूनी कुटियों की भी वाणी,
माना सपनों से अनुरंजित तारों की गाथाएं—
पर जीवन का कोष छिपाये है धरती अनजानी,
कहने का अधिकार विश्व में सबको एक सदृश है—
अपनी बात कहो औरों को भी अपनी कहने दो!
युद्ध, अर्थ-संकट, दलगत संघर्ष स्वार्थ के फल हैं,
ऊंच-नीच के भेद भाव से पाती हिंसा बल है,
राजनीति मानव-मंगल की चिर-पूजित जननी है—
कोई भी अब कह न सकेगा यह विडंबना छल है,
पल भर भी अनन्याय स्वयं पर साथी सहन करो मत—
किसी निबल को, किसी सबल का-रोष नहीं सहने दो!