
देवताओं के वाहनों का रहस्य
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(श्री लक्ष्मीनारायण जी बृहस्पति, खंडवा)
हमारे धर्म ग्रन्थों में हर एक देवता अथवा देवी का एक विशेष वाहन बतलाया गया है। जैसे- गणेश जी का वाहन मूषक, सरस्वती का हंस, लक्ष्मी का उलूक, दुर्गा का सिंह आदि।
वाहनों के स्वरूप का आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखने पर हमें धर्म का अत्यन्त ही सूक्ष्म, अद्भुत रहस्य दृष्टिगोचर होता है। इन रहस्यों के प्रकाशित हो जाने पर मनुष्य की आन्तरिक स्थिति इतनी सुदृढ़ हो जाती है कि वह प्रबल से प्रबल झंझावात में भी विचलित नहीं हो पाता।
इस स्थिति के आने तक “धर्म” स्थित रहता है किन्तु धर्म में स्थित हो जाने पर यह धर्म रूपी साध्य उसका साधन बन जाता है तथा उसके मानवी जीवन का वास्तविक प्रारम्भ यहीं से होता है और तब वह परम-पद की प्राप्ति की दिशा में निरन्तर प्रगति करता चलता है।
गणेश जी सिद्धियों के देने वाले, विघ्न-बाधाओं का हरण करने वाले और बुद्धि के देवता माने गये हैं।
गणेश जी का वाहन मूषक है। अथर्ववेद के सायण भाष्य में लिखा है—’मुष्णाति अपहस्ति कर्म फलानि इति मूषकः।’
जीव के कर्म फलों का अपहरण करना ही गणेश जी के वाहन मूषक का प्रमुख कर्तव्य है। जीव और शिव के मिलन में कर्म फल ही मुख्य रूप से बाधक बनते हैं। जब तक कर्म फल शेष है जीव का शिव से मिलन क्यों कर हो सकता है?
गणेश जी और उनके वाहन मूषक पर एक कवि की उक्ति है:—
‘मन मूषक पर गज तन भारी।’
गज के समान विशाल मानव शरीर का वाहन सूक्ष्म मन रूपी मूषक ही है। वाहन की स्वच्छन्दता की स्थिति में वाहनारूढ़ का अस्थिर होना स्वाभाविक है, किन्तु नियन्त्रित कर लिये जाने पर, मन की एकाग्रता हो जाने पर संसार के सभी सुखों की प्राप्ति से लेकर भगवद्-प्राप्ति तक की जा सकती है।
“मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः”
‘मन ही मानव प्राणी के बन्धन और मोक्ष का कारण है।’
इस प्रकार मन रूपी मूषक के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर मनुष्य को अपना आत्मिक-ज्ञान होने में विलम्ब नहीं लगता, कम से कम वह आत्मज्ञान का अधिकारी तो अवश्य हो जाता है। मन रूपी मूषक का असली स्वरूप सामने आते ही उसकी चंचलता पलायमान हो जाती है और उसे बाध्य होकर स्थिर हो जाना पड़ता है तथा स्थिर मन ही संसार की समस्त साधनाओं को सफलीभूत करने का सर्वोपरि साधन है।
सरस्वती विद्या एवं वाणी की अधिष्ठात्री देवी है, सरस्वती का वाहन हंस है। ‘हन्’ धातु से हंस बना है।
नीर-क्षीर-विवेक, दूध का दूध और पानी का पानी कर देना हंस की ही विशेषता है। मानसरोवर में उसका निवास माना गया है। मोती चुगना उसका प्राथमिक कर्तव्य है। पक्षी-श्रेष्ठ के रूप में वह सर्व पूज्य है।
सरस्वती का कृपा पात्र भी जहाँ नीर-क्षीर-विवेकी बन जाता है, वहाँ ब्रह्म और माया से ओत-प्रोत, सने हुए इस संसार में माया और ब्रह्म का पृथक्करण करने में समर्थ हो जाता है और माया रूपी जल का परित्याग कर ब्रह्म रूपी दुग्ध पान कर लेता है तथा ब्रह्म पद को प्राप्त हो जाता है।
वागीश्वरी देवी सरस्वती के वाहन का कितना अद्भुत रहस्य है यह? यही नहीं, सरस्वती का कृपापात्र लोक में अप्रचलित अनेकों आध्यात्मिक रहस्यों का ज्ञाता होकर अपना जीवन सफल कर लेता है, उसका जीवन धन्य-धन्य हो जाता है!
लक्ष्मी को सामान्य दृष्टि से धन धान्य, समृद्धि, ऐश्वर्यादि की अधिष्ठात्री देवी माना गया है किन्तु लक्ष्मी का सर्वोपरि रूप शेष-शय्या पर भगवान विष्णु की अर्द्धांगिनी के रूप में माना गया है।
अतः लोक-भावना के अनुरूप लक्ष्मी का वाहन उलूक आध्यात्मिक दृष्टि से दिवान्धता और मूर्खता का प्रतीक है। साँसारिक-लक्ष्मी के अधिपति उलूकधर्मी होकर आत्म ज्ञान रूपी सूर्य को नहीं देख पाता। सूर्य रूपी प्रकाश पुँज उसे अन्धकार का समूह ही दिखाई देता है। ऐसा व्यक्ति आधिभौतिक सुख को ही अपना सर्वस्व मानकर माया में ही बद्ध रहता है। अतः ऋत् मार्ग, हृदय-केन्द्र में होते हुए भी वह अपने आपको माया रूपी मृग-तृष्णा के पीछे भरमाये रखता है।
दूसरी ओर कमलाक्षी, भगवान-विष्णु की अर्धांगिनी के रूप लक्ष्मी का चिन्तन करने वाला व्यक्ति परम-पावन कल्याणकारी लक्ष्मी को प्राप्त कर भुक्ति और मुक्ति का अधिकारी बन जाता है। उसके अन्तर में शेष-भगवान का स्वरूप प्रगट हो जाता है, उसका जीवन कृतार्थ हो जाता है तथा वह लक्ष्मी के परम धाम को प्राप्त होकर धन्य हो जाता है।
दुर्गा को भुक्ति-मुक्ति प्रदान करने वाली, भगवान शिव की शाश्वत शक्ति माना गया है। दुर्गा का उपासक एक ओर शक्तिशाली होकर जहाँ मदान्ध हो जाता है, वहाँ दूसरी ओर अपने जीवत्व का नाश कर शिवत्व को प्राप्त हो जाता है।
दुर्गा का वाहन सिंह है। सिंह जहाँ बल और पौरुष का प्रतीक है वहाँ पशुराज, वनराज आदि के रूप में सर्वमान्य भी है।
सिंह हिंसक प्राणी है। अतः दुर्गा के उपासक में भी बल और पौरुष का उदय होना, सिंहत्व आना स्वाभाविक है। सकाम-साधना से मनुष्य जहाँ अपने शत्रुओं का दमन करने में समर्थ होता है वहाँ वह मदान्ध होते भी देखा गया है। सर्वत्र विजय प्राप्त करने वाले व्यक्ति अहं रहित कम ही पाये जाते हैं। इसीलिये शक्तिशाली अधिकतर पतनोन्मुख हो जाते हैं।
किन्तु निष्काम साधक में आने वाला बल और पौरुष, सिंहत्व, हिंसा का भाव उसके अपने जीवत्व की हिंसा का कारण बन जाता है और उसे शिवत्व प्राप्त हो जाता है। वह जीव से शिव बन जाता है।
भगवान शिव का वाहन वृषराज नंदीश्वर है। वृष शब्द से धर्म का बोध होता है। नंदी का वर्ण श्वेत माना गया है। श्वेत सत्वगुण का सूचक है। नंदीश्वर के चार पैर धर्म के चार स्तम्भ-तप, शौच, दया और दान हैं।
भगवान शिव का चरणामृत पाने के लिये वृष रूपी धर्म को जानना अनिवार्य है। चतुष्पाद-धर्म का पालन करते हुए हमें शिव लोक की प्राप्ति होती है तथा भोलाशंकर के कृपा-पात्र बनकर हमारे लिये ब्रह्म-पद की प्राप्ति सुगम हो जाती है।
भगवान विष्णु, लक्ष्मी के स्वामी और सृष्टि की पालन शक्ति के प्रतीक हैं। ये परम चैतन्य-स्वरूप मुक्ति दाता माने गये हैं। कौस्तुभमणि से विभूषित विष्णु का वाहन गरुड़ है :—
“त्रिवृद् वेदः सुषषस्तु यज्ञं वहित पुरुषम्”
गरुड़ ही वेद है और यज्ञ-पुरुष विष्णु को वहन करता है। दीर्घ-दृष्टि के लिये गरुड़ प्रसिद्ध है। साथ ही उसका भक्ष्य सर्प है। आकाश में दूर तक गमन करने का अद्वितीय सामर्थ्य गरुड़ में पाया जाता है।
गरुड़ धर्मी होकर मनुष्य इस असार संसार की आसक्ति रूप कुटिल सर्प का भक्षण करने में समर्थ हो जाता है। दीर्घ-दृष्टि रूपी अंतर्दृष्टि पाकर वह अपने इष्ट का साक्षात्कार का विष्णु-पद की प्राप्ति कर लेता है।
इस प्रकार गरुड़ रूपी वेद के ज्ञान-कर्म रूपी पंखों का आश्रय लेकर सुदूर आकाश में गगन करने की शक्ति मनुष्य अपने में उत्पन्न कर लेता है, तब भगवान विष्णु उसके हृदयासन पर विराजमान होकर उसको धन्य-धन्य कर देते हैं।