
भगवान का अनुग्रह
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(दौलतराम कटरहा दमोह)
भगवान को दीन-वत्सल या दीन-दयालु कहा जाता है- इससे प्रकट है कि भगवान का अनुग्रह प्राप्त करने के लिये दीन बनना होगा। किंतु दीन बनने का अर्थ दुखी बनना नहीं है। भगवान दुखी-दयालु नहीं हैं। रामायण में लिखा है—
सहे देव बहु-काल विषादा।
नरहरि किए प्रगट प्रहलादा॥
देवता लोग बहुत काल तक दुख भोगते रहे, पर भगवान उनके लिये प्रकट नहीं हुए। प्रह्लाद ही ने उन्हें प्रकट किया। तो दुखी होने मात्र से ही मनुष्य को भगवान का अनुग्रह नहीं मिल जाता। भगवान का कृपा पात्र होने के लिये तो उनका अनन्य आश्रय ग्रहण करना चाहिये। अनन्य माने और अन्य किसी का नहीं। साधारण लोग दुखी तो रहते हैं और मौके मौके पर भगवान का नाम भी लेते रहते हैं पर अन्य आश्रय भी वे ग्रहण करते हैं। किसी को अपने धन का भरोसा रहता है तो किसी को अपनी विद्या का- कहने का प्रयोजन यह है कि ईश्वरीय विधान पर और उसकी इच्छा पर अवलंबित कोई नहीं रहता। अतएव यदि भगवान का अनुग्रह प्राप्त न हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
कहते हैं कि जब तक द्रौपदी सामने बैठे अपने पतियों और भीष्म-पितामह आदि गुरुजनों की ओर सहायता के लिये ताकती रही तब तक उसको ईश्वरीय सहायता नहीं मिली, किन्तु जब वह निराश होकर ईश्वर की शरण गई तो उसकी लाज बच गई। गज भी जब तक अपना बल बर्तता रहा, उसे अपने पुत्र पौत्रों का भरोसा रहा, तब तक उसे ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त नहीं हुआ, पर ज्यों ही सब ओर से निराश होकर उसने ईश्वर का स्मरण किया कि भगवान ने तत्काल ही उसे उबार लिया।
जब लगि गज बल अपनो वरत्यो, नेक सरयो नहिं काम।
निर्बल ह्वे बल राम पुकारयो आए आधे नाम॥
तो निर्बल होने पर ही भगवान का अनुग्रह प्राप्त होता है।
निर्बल शब्द यहाँ एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। भगवद्भक्ति मनुष्य को निकम्मा, बुजदिल और बुद्धू बनाने वाली नहीं है। गीता के 12 वें अध्याय में भक्त के जो गुण वर्णित किये गये हैं उससे प्रतीत होता है कि भगवद्भक्त तो परम दुर्लभ देवोपम गुणों से संपन्न होता है। अतएव ‘निर्बल’ शब्द का अर्थ केवल यही समझना चाहिये कि जो संसार की ओर से निराधार या निराश्रय है, जो संसार का आश्रय ग्रहण नहीं करता और सच्चे अर्थ में रामाधार रामाधीन, राम आसरे या राम भरोसे है। नानक जी कहते हैं कि—
आसा मनसा सकल त्यागि कै, जगतें रहे निरासा।
काम क्रोध जेहि परसै नांही, तेहि घर ब्रह्म निवासा॥
तो इस पद्याँश में “जगतें रहे निरासा” का अर्थ वही है जो कि ऊपर के पद्याँश में ‘निर्बल’ शब्द का है। तुलसीदास जी एक दोहे में उद्बोधन करते हैं।
तुलसी सबमों निर्बल ह्वै, सबल राम सों होहि।
भलो सिखावन देत है निशिदिन तुलसी तोहि॥
तो निर्बलता का अर्थ है सब ओर से आशाएं छोड़ देना, और केवल अपनी आत्म-शक्ति पर अथवा जिसका यह आत्मा अंश माना जाता है उस परमात्मा शक्ति का भरोसा करना।
ऊपर के विवेचन से प्रकट है कि जो ईश्वर का अनन्य आश्रय ग्रहण करता है सच्चे मायने में दीन है, निर्बल है, जो ‘राम शरण’ ‘ईश्वर शरण’ या ‘कृष्ण शरण’ है वही परमात्मा का अनुग्रह भी प्राप्त करता है अतएव जो भगवद्भक्ति प्राप्त करना चाहता है उसे सब ओर से अपनी आशाओं को वैसे ही समेट लेना चाहिये जैसे कछुए भय प्राप्त होने पर अपने अंग समेट लेते हैं। दिनों दिन निराधार बनते हुए हम पूर्ण रूपेण निराधार बन जाएं। तभी भगवद्भक्ति का बीजारोपण होगा। सच्चा संन्यासी धन का आश्रय ग्रहण नहीं करता। वह सुवर्ण का संग्रह नहीं करता और न उसे छूता ही है। पैसा न छूने का अर्थ यही है कि जब धन की आशा की डोर टूट जायगी तो मन बरबस ‘हरि हर शरण’ बन जायेगा। ताना जी ने जब सिंहगढ़ किले पर शिवाजी की प्रेरणा से रात को आक्रमण किया तो किले का रक्षक उदय भानु था जो बड़ा बहादुर-वीर था। कमन्द के सहारे तानाजी के सैनिक किले में घुसे थे। उदयभानु के पराक्रम के आगे कमन्द के सहारे तानाजी के सैनिक वापस भागने लगे। तो यह देखकर सूर्याजी ने कमन्द की रस्सी काट दी और विवश होकर भागने का अवसर ढूँढ़ने वालों को भी वहीं जूझना पड़ा। अन्त में विजय मिली ही- यह इतिहास प्रसिद्ध है। ठीक वैसे ही सब आशारूपी डोरों को काट देने में ही कल्याण है। तूफानी भव-सागर में जीवन नौका को निराधार छोड़ना होगा तभी भक्ति मिलेगी- अन्यथा नहीं।
जीवन नौका को निराधार छोड़ देना बड़ा कठिन प्रतीत होता है, पर यदि मन को थोड़ा पक्का करलें तो यह सरल हो जायगा। मन हमारा हमें डराता है कि यदि निराधार हो जाएंगे तो मिट जाएंगे। आप मिटने भर की हिम्मत कर लीजिए तो कार्य सरल हो जायगा। निराधार बनने से आप मिटेंगे नहीं यह निश्चय है। आप पर जो व्यर्थ का बोझ लदा है और जिसे आप आवश्यक मान रहे हैं वह आप पर से अवश्य उतर जायगा। आप भूखों नहीं मर सकते पर यह अवश्य है कि आपकी शान-शौकत का सामान संभवतया छिन जाय और न भी छिने पर कुछ कम अवश्य हो जायगा और यह कमी आपको बर्दाश्त करनी पड़ेगी। जो हरदम मिटने के लिये तैयार है, जो मृत्यु को सर्वदा आलिंगित किए रहता है उसके लिये यह कमी नाचीज है, अत्यन्त तुच्छ है।
कवियों ने हरि का मार्ग अत्यन्त दुर्गम बताया है—
हरि को मारग अगम है, ठहरें विरलें वीर।
पल पल में भाला हनें श्वास श्वास में तीर॥
जब तक मन में वासनाएं है, तब तक हरि का मार्ग सचमुच में अगम है पर जहाँ मन को पक्का किया, मन में मिटने का संकल्प किया, कल्पित और अकल्पित कष्ट और मुसीबतों को झेलने के लिए मन को दृढ़ किया कि न तो फिर भाले लगेंगे और न तीर। कबीर ने कहा है कि “जो घर फूंकै आपनो चलै हमारे संग”। मन में कल्पना करली और उसे इतना दृढ़ बना लिया कि घर हमारे सामने जल रहा है, तो भी हम छाती नहीं पीटेंगे- बस इतना ही करना पर्याप्त है सचमुच में घर में आग लगा देना अभीष्ट नहीं है। कबीर का यह प्रयोजन नहीं कि घर में आग लगा दो और फिर हमारे साथ चलो।
जो अपना सर्वस्व प्रभु को अर्पण करते हैं वे मिट नहीं जाते- यह हमें अच्छी तरह ज्ञात है। केवल भोग्य वस्तुएं ही उनकी घट जाती हैं और वे अकेले अकेले वस्तुओं का उपयोग न कर बाँट कर ही खाते हैं सबके साथ वस्तुओं का उपभोग करते हैं। भगवान की शरण में जाने से आपका अधिकाँश बोझ और भोग खत्म हो जायगा और आपको सबके बराबर हो जाना पड़ेगा।