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Magazine - Year 1956 - Version 2

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महात्मा गाँधी की दैनिक प्रार्थना

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बौद्ध मन्त्र

नम्यो हो रेंगे क्यों।

सत् धम के प्रवर्तक भगवान बुद्ध को नमस्कार करता हूँ। उपनिषत् मन्त्र।

ईशावास्य मिदं सर्य यत्किञ्चिज्जगत्यां जगत्। तेनत्यक्ते नं भुञ्जी य मा गृध्टः कस्यस्विद्धनम्॥

इस जगत में जो कुछ भी जीवन है वह सब ईश्वर का बसाया हुआ है। इसलिए तू ईश्वर के नाम से त्याग करके यथा प्राप्त भोग किया कर, किसी के धन की वासना न कर।

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवैर्वेदैः सांगषदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः। ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुर गण देवाय तस्मै नमः॥

ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और पवन दिव्यस्तोत्रों से जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद का गान करने वाले मुनि, अंग, पद, क्रम और उपनिषद् सहित वेदों से जिसका स्तवन करते हैं, योगी लोग ध्यानस्थ होकर ब्रह्ममय मन द्वारा जिसका दर्शन करते हैं और सुर तथा असुर जिसकी महिमा का पार नहीं पाते मैं उस परमात्मा को नमस्कार करता हूँ।

गीता, अध्याय 2

अर्जुन उवाच

स्थित प्रज्ञस्य का भाषा समाधिथस्य केशव। स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत ब्रजेत किम् ॥ 54 ॥

54—हे केशव! स्थित प्रज्ञ अथवा समाधिस्थ के क्या लक्षण होते हैं? स्थित प्रज्ञ कैसे बोलता, बैठता और चलता है?

श्री भगवानुवाच—

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थित प्रज्ञस्तदोच्यते ॥ 55 ॥

55—हे पार्थ! जब मनुष्य मन में उठती हुई सभी कामनाओं का त्याग कर देता और आत्मा द्वारा ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है, तब वह स्थित प्रज्ञ कहलाता है।

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीतराग भय क्रोधः स्थितघीर्मुनिरुच्यते ॥56॥

56—दुख से जो दुखी न हो, सुख की इच्छा न रखे और राग भय और क्रोध से रहित हों, वह स्थिर-बुद्धि मुनि कहलाता है।

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्। नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥57॥

57—सर्वत्र राग-रहित होकर जो पुरुष शुभ या अशुभ की प्राप्ति में न हर्षित होता है,न शोक करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है।

यदा संहरते चायं कूर्मोंऽगानीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेन्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥58॥

58—कछुआ जैसे सब ओर से अंग समेट लेता है वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों को उनके विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर हुई कही जाती है।

विषया विनिवर्तंते निराहारस्य देहिनः। रसवर्ज रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते 59॥

59—देहधारी जब निराहार रहता है तब उसके विषयडडडड मन्द पड़ जाते हैं, परन्तु रस नहीं जाता वह रस तो ईश्वर का साक्षत्कार होने से ही शान्त होता है।

डडडड डडडड कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः। इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन ॥ 60॥

60—हे कौन्तेय! चतुर पुरुष के उद्योग करते रहते रहने पर भी इन्द्रियाँ ऐसी प्रमथन शील हैं कि वे उसके मन को भी बलात्कार से हर लेती हैं।

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। वशेहि यस्येन्द्याणि तस्यप्रज्ञा प्रतिष्टिता ॥ 61॥

61—इन सब इन्द्रियों को वश में रखकर योगी को मुझमें तन्मय हो रहना चाहिये, क्योंकि अपनी इंद्रियाँ जिसके वश में है उसकी बुद्धि स्थिर हैं।

ध्यायते विषयान्पुसः संगस्तेषूप जायते। संगात्संजायते कामः कामक्रोधोऽभि जायते ॥ 62॥

62—विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष को उनमें आसक्ति उत्पन्न होती है, आशक्ति से कामना होती है और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है।

क्रोधाद्भवति संमोह, संमोहात्स्मृति विभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ 63॥

63—क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रान्त हो जाती है, स्मृति भ्रान्त होने से ज्ञान का नाश हो जाता है, और जिसका ज्ञान नष्ट हो गया वह मृतक तुल्य है।

रागद्वेष वियुल्कैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्। आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥64॥

64—परन्तु जिसका मन अपने अधिकार में है और जिसकी इन्द्रियाँ राग-द्वेष रहित होकर उसके वश में रहती हैं, वह मनुष्य इन्द्रियों का व्यापार चलाते हुए भी चित्त की प्रसन्नता प्राप्त करता है।

प्रसादे सर्व दुःखानां हानिरस्योपजायते। प्रसन्न चेतसोह्यासु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥65॥

65—चित्त प्रसन्न रहने से उसके सब दुःख दूर हो जाते हैं। जिसे प्रसन्नता प्राप्त हो जाती है, उसकी बुद्धि तुरन्त ही स्थिर हो जाती है।

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य नचायुक्तस्य भावना। नचाभावयतः शांतिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥66॥

66—जिसे समत्व नहीं, उसे विवेक नहीं। जिसे विवेक नहीं, उसे भक्ति नहीं और जिसे भक्ति नहीं, उसे शान्ति नहीं हैं। और जहां शान्ति नहीं, वहाँ सुख कहाँ से हो?

इन्द्रियाणां चरतां यन्मनोऽनुविधीयते। तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।।67।।

67—विषयों में भटकने वाली इन्द्रियों के पीछे जिसका मन दौड़ता है उसका मन जैसे वायु नौका को जल में खींच ले जाता है, वैसे ही उसकी बुद्धि को जहाँ चाहे वहाँ खींच ले जाता है।

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः तस्यप्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।68।।

68—इसलिए हे महाबाहो! जिसकी इन्द्रियाँ चारों ओर से विषयों से निकलकर अपने वश में आ जाती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।

या निशा सर्व भूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जागृति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनैः ।।69।।

69—जब सब प्राणी सोते रहते हैं, तब संयमी जागता रहता है जब लोग जागते रहते हैं, तब ज्ञानवान् मुनि सोता रहता है।

अपूर्यमाणमचल प्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्ति माप्नोति न कामकामी ।।70।।

70—नदियों के प्रवेश से भरते रहने पर भी जैसे समुद्र अचल रहता है, वैसे ही जिस मनुष्य में संसार के भोग शान्त हो जाते हैं, वही शान्ति प्राप्त करता, न कि कामना वाला मनुष्य।

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः। निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ।।71।।

71—सब कामनाओं का त्याग करके जो पुरुष इच्छा, ममता और अहंकार रहित होकर विचरता है, वही शान्ति पाता है।

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनांप्राप्यविमुह्यति। स्थित्वा स्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ।।72।।

72—हे पार्थ! ईश्वर को पहचानने वाले की स्थिति ऐसी होती है। उसे पाने पर फिर वह मोह के वश नहीं होता और यदि मृत्यु-काल में भी ऐसी ही स्थिति टिकी रहे तो वह ब्रह्मनिर्वाण पाता है।

एकादश व्रत

अहिंसा सत्यअस्तेय ब्रह्मचर्य असंग्रह। शरीरश्रम अस्वाद सर्वत्र भय वर्जने।।

सर्वधर्मी समानत्व स्वदेशी स्पर्शभावना। ही एकादश सेवावी नम्रत्वे व्रत निश्चयै।।

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शारीरिक श्रम, अस्वाद, सब जगह भय का त्याग, सब धर्मों के साथ समान भाव, स्वदेशी धर्म का पालन, स्पर्शास्पर्श भावना का त्याग- इन ग्यारह व्रतों को पालन करने का नम्रतापूर्वक निश्चय करता हूँ।

कुरान की आयत :—

अश्रु जुविल्लाहि प्रिमिनशुशैत्वानिर् रजीम्। बिस्मिल्लाहिर् रहमानिर् रहीम।।

अल्हाल्म्दुलिल्लाहि रब्बिल् आलमील्। अर् रहमानिर् रहीमि मालिकि यौमिद् दीन्। ईथाकनअबुदु व ईयाक नस्त ईन्।।

इह दिनस् सिरा त्वल् मुस्तकीम्। सिरा त्वल् लजीन अन् अम्त अलै हिम्।। गैरिल् मग् द्बूबि अलै हिम् वलद् द्वाल लीन।।

मैं पापात्मा शैतान के हाथों से (अपने को) बचाने के लिए परमात्मा की शरण लेता हूँ। हे प्रभो! तुम्हारे नाम का ही स्मरण करके मैं सारे कामों को आरम्भ करता हूँ। तुम दया के सागर हो, तुम कृपामय हो, तुम अखिल विश्व के पालनहार हो। तुम ही मालिक हो। मैं तुम्हारी ही मदद माँगता हूँ। आखिरी न्याय देने वाले तुम्हीं हो। तुम मुझे सीधा ही रास्ता दिखाओ, उन्हीं का चलने का रास्ता दिखाओ जो तुम्हारी कृपा दृष्टि पाने के काबिल हो गये हैं जो तुम्हारी प्रसन्नता के योग्य ठहरे। जो गलत रास्ते से चले हैं, उनका रास्ता मुझे मत दिखाओ।

ईश्वर एक है, वह सनातन है, वह निरावलम्ब है, वह अज है, अद्वितीय है, सारी सृष्टि को पैदा करता है, उसे किसी ने पैदा नहीं किया।

जरथुश्ती गाथा

मजदा अत मोइबहिश्ता स्रवा ओस्चा श्योचताचा वगोचा! ता—त् वहू मनं घट्टा अशाचा इषु देम स्ततो क्षमाका अथा अहूरा फेरषेम्, वस्ना हहूश्येम् दाओअहूम्

ऐ होरमज्द! सर्वोत्तम धर्म के वचन और कर्म के विषय मुझे बता जिससे में सच्ची राह पर रह सकूँ और तेरी ही महिमा को गा सकूँ। तू अपनी इच्छा के अनुसार मुझे चला। मेरा जीवन चिरनूतन रहे और वह मुझे स्वर्ग-सुख का दान करे।

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