
श्री रामकृष्ण परमहंस के उपदेश
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“गम्भीर ध्यान में बाह्यज्ञान शून्य होता है। एक व्याध ने चिड़िया मारने के लिए ऐसी टकटकी बाँध रक्खी थी कि कोई बारात कहीं से जा रही थी, साथ ही कितने लोग, कितने बाजे गाजे, कितनी सवारियाँ और कितने ही घोड़े भी थे, कितनी देर तक उसके ही पास होकर वे चले गये, किन्तु व्याध को कोई होश नहीं, वह नहीं जान सका कि- उसके पास होकर एक बारात चली गई।”
एक व्यक्ति अकेले एक पोखर से मछली पकड़ रहा था। (उसके हाथ में बन्शी थी।) बहुत देर बाद (उसकी बन्शी की, पानी के ऊपर रहने वाली, छोटी) लकड़ी हिलने लगी और जरा-जरा डूबने लगी। वह तब बन्शी को हाथ से भली-भाँति पकड़ (मछली को) मारने के लिये तैयार हुआ। इतने में एक पथिक (राहगीर) ने पास आकर पूछा- ‘महाशय, अमुक बनार्जी का मुकाम कहाँ पर है, आप कह सकते हैं?’ (प्रश्न का) कोई जवाब नहीं मिला। यह व्यक्ति उस समय बन्शी को हाथ में लेकर उसे खींचने को तैयार हो रहा था। पथिक बार-बार जोर से कहने लगे- ‘महाशय, आप कह सकते हैं, अमुक बनार्जी साहब का घर कहाँ पर है?’ उस (मछली पकड़ने वाले) व्यक्ति को होश नहीं था। उसका हाथ काँप रहा था नजर केवल ‘फतना’ (वंशी की लकड़ी) पर थी। तब पथिक विमुख होकर चला गया। पथिक चला गया कि इतने में (बन्शी की) लकड़ी भी डूब गई। उस व्यक्ति ने खींचकर मछली को जमीन पर उठाया। बाद को अंगोछे से मुँह पोंछ कर वह पुकार कर पथिक को बुलाने लगा कि- अहे! सुनो, सुनो। पथिक लौटने को राजी नहीं थे, किन्तु बहुत (बढ़ बढ़ कर) पुकारने से वे लौट आये। आकर उन्होंने पूछा- ‘क्या महाशय, फिर क्यों बुलाते हो?’ तब उस व्यक्ति ने कहा- ‘तुम हमसे क्या कह रहे थे?’ पथिक ने कहा- ‘उस समय कितनी बार पूछा, और अब कह रहे हो कि क्या पूछा था!’ उस व्यक्ति ने कहा- ‘उस समय तो लकड़ी डूब रही थी (और मछली बन्शी में पकड़ाई जा रही थी, इसी कारण मुझे उस समय कुछ भी सुनने में नहीं आया।”
“ध्यान में इस भाँति की एकाग्रता हुआ करती है और कुछ देखा भी नहीं जाता है और सुना भी नहीं जाता। स्पर्श का (छूने का) बोध तक भी नहीं होता है। सर्प शरीर के ऊपर होकर चला जाता है, उसे भी मालूम नहीं होता। जो ध्यान करता हो वह भी नहीं जानता है (कि- एक सर्प अपने शरीर पर से चला गया) और सर्प भी जान नहीं सकता है (कि वह एक मनुष्य के शरीर के ऊपर होकर चला गया)”
गम्भीर ध्यान होने से इन्द्रियों का काम सब बन्द हो जाता है। मन बहिर्मुख नहीं रहता है। (उस समय ऐसा होता है कि) मानो बाहरी दरवाजे सब बन्द हो गये! इन्द्रियों के पाँच विषय रूप रस गन्ध, स्पर्श और शब्द बाहर ही पड़े रहते हैं।”
‘ध्यान के समय पहले-पहले इन्द्रियों के विषय सभी सामने आया करते हैं। गम्भीर ध्यान में वे सब फिर नहीं आते हैं। सब बाहर ही रह जाते हैं।”