
गोवंश की रक्षा होनी ही चाहिए
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री घनश्यामदास बल्दवा एम.ए., एम.काम.)
कहावत प्रसिद्ध है कि ‘भारतवर्ष में दूध की नदियाँ बहती थीं।’ कहने का तात्पर्य यह है कि भारतवर्ष में दूध की इतनी इफरात थी कि मनुष्य उसको पानी की तरह समझते थे। लेकिन यह बात आधुनिक भारत में कहाँ? यह तो प्राचीन समय की बातें हैं। कोई भी अतिथि आता तो उसका सत्कार दूध के लोटे से किया जाता था, जब कि अब यह चाय के प्याले तक ही सीमित रह गया है। गीता के अनुसार “कृषिगौरक्षावाणिज्यं वैश्य-कर्म स्वभावजन्म्”। लेकिन शहरों की तो कौन कहे, आज कल तो गाँवों में भी गोपालन नहीं होता। उस काल में दूध मनुष्यों के भोजन का एक मुख्य अंग था। दही, मक्खन, घी तथा दूध से बनी हुई दूसरी वस्तुएँ प्रचुरता से उपलब्ध थीं और बहुत सस्ती थीं। वे इतनी सस्ती थीं कि आधुनिक समय में तो उनको केवल कल्पना बताया जाता है, जबकि ये भाव सब सत्य थे। कौटिल्य (ईसा से 4 शताब्दी पूर्व) के समय में घी का भाव ।।।) मन था और दूध एक आने मन था। मुसलमानी काल में गायों के मारे जाने के कारण घी का भाव 1।=) मन था और दूध का भाव दो आने मन था। अकबर के समय में दूध का भाव।=) मन हो गया। भारत में विदेशी सरकार के आते ही ये सब भाव हवा हो गए और दूध का भाव चढ़कर 1॥) से 2) मन हो गया, लेकिन आज लिखते लेखनी काँपती है- दूध॥=) और ।।।) सेर भी मिल नहीं रहा है। अब कैसे भारतवासी अपनी स्वास्थ्य बनावें और बलशाली बनें?
दुधारू पशुओं में गाय और भैंस मुख्य हैं। वैसे तो बकरी का दूध भी मनुष्याहार के काम में लिया जाता है और कहीं-कहीं तो भेड़ ओर ऊँटनी का भी, परन्तु गो-दुग्ध की उत्तमता को कोई नहीं पहुँच सकता। आयुर्वेद ने गो-दुग्ध की बहुत प्रशंसा की है। इस दूध में जीवन तत्त्व, तन्तुकर तत्त्व, क्षार, स्नेह पदार्थ, शर्करा, पाचक रस आदि पूर्ण मात्रा में विद्यमान हैं।
भारत में मुसलमानी राज्य के होने के साथ ही गोवंश का ह्रास होना शुरू हो गया। मुस्लिम और अँग्रेजी सभ्यता केवल निरामिष भोजन को ही प्राकृतिक भोजन नहीं मानती हैं और इसीलिए आमिष भोज्य की दृष्टि से गायें और दूसरे पशु काटे जाते हैं। भारत में अंग्रेजी फौजों की वृद्धि के साथ-साथ यह कार्य भी बढ़ता गया, यहाँ तक कि गत विश्व-युद्ध के समय तो यह चरम सीमा को पहुँच गया। गोवंश के ह्रास के कारणों को हम संक्षेप में इस प्रकार बाँट सकते हैं-
कसाईखाने (2) कसाई (3) गोचर भूमि का अभाव (4) अकाल (5) चिकित्सा का अभाव (6) अच्छे साँड़ो का अभाव (7) वनस्पति घी के कारखाने (8) चमड़े का निर्यात (9) किसानों की गरीबी (10) गन्दगी और अव्यवस्था (11) पशुओं का निर्यात (12) पिंजरा पोल और गौशालाओं की अव्यवस्था (13) दुर्बल गौ।
कसाईखाने और कसाइयों के लिए तो क्या कहें? वे तो क्षणिक लाभ के लिए भारत का एक बहुत बड़ा अहित कर रहे हैं। स्वतन्त्र भारत की सरकार का यह प्रथम कर्तव्य होना चाहिए कि इन कसाईखानों में दुधारू और काम में आने वाले पशुओं का वध बिलकुल रुकवा दे, अन्यथा भारत से दूध का अभाव नहीं हट सकता। इस देश में गोचरभूमि का भी बहुत अभाव है। प्राचीनकाल में गोचरभूमि के लिए पर्याप्त क्षेत्र छोड़ा जाता और किसी भी हालत में वह खेती से काम में नहीं लिया जाता था। आबादी के बढ़ने के साथ जब अधिक अन्न की आवश्यकता हुई, तो खेती की उन्नति के बजाय गोचरभूमि को लेकर अधिक क्षेत्रफल से काम निकाला जाने लगा और इस प्रकार गोचरभूमि का अभाव बढ़ता गया। गौ आदि पशुओं की वृद्धि के लिए अब गोचरभूमि की अधिक आवश्यकता है और भारत-सरकार को सब ग्रामों और जिलों में इसका उचित प्रबन्ध करना होगा। गोचरभूमि की अवस्था निम्न तालिका से स्पष्ट हो जाती है।
संसार के देशों में गोचरभूमि-कुलभूमि के अनुमान से
(देश) (प्रतिशत)
इंग्लैंड – 31%
न्यूजीलैंड – 40%
डेनमार्क – 33%
अमेरिका – 16%
भारत – 1/2%
समय-2 पर होने वाले अकालों ने हमारे पशुधन का बहुत ह्रास किया है। उस वक्त पशु की तो कौन कहे मनुष्यों का भोजन भी दुर्लभ हो जाता है, इसलिए उस वक्त बेचारे पशु बेमौत भूख की वजह से मारे जाते हैं। चारे के खलिहान और उचित व्यवस्था ही आने वाले अकालों का मुकाबला कर सकते हैं और इस ओर ही पूर्ण ध्यान देना है। पशुओं की प्राचीन चिकित्सा प्रणाली तो मध्यकाल में भूल ही गये और उसके बाद पशुओं की उचित चिकित्सा न होने से बहुत से पशु निरर्थक मरने लगे। हर्ष की बात है कि अब भारतीय और प्रान्तीय सरकारों का ध्यान इस ओर आकर्षित हो रहा है, लेकिन फिर भी इसमें बहुत सुधार की गुंजाइश है। अच्छे साँड़ों के अभाव से गोवंश की नस्ल पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। नस्ल सुधार की ओर तो भारतीय बिलकुल ध्यान ही नहीं देते। जब तक अच्छे साँड़ों द्वारा नस्ल सुधार नहीं होगा, तब तक अच्छी और अधिक दूध देने वाली गायों का अभाव ही रहेगा। वनस्पति घी के कारखानों ने असली घी की उपयोगिता पर कुठाराघात किया है और इस प्रकार गोपालन में शिथिलता सी ही है। वनस्पति घी, घी नहीं है, वह तो तेल ही है और हानिकारक भी है। वनस्पति घी पर बहुत कड़े प्रतिबन्ध की आवश्यकता है। चमड़े के निर्यात ने भारतीय पशुओं का बहुत वध कराया है। विदेशी लोग जब चमड़े के ऊँचे दाम देने लगे हैं, तो हमारे यहाँ के स्वार्थी लोगों ने मृत पशुओं के चमड़े के बजाय जीवित पशुओं को चमड़े के लिए मारकर उनका चमड़ा भेजना प्रारम्भ कर दिया। चमड़े के लिए जीवित पशुओं को मारना कानून द्वारा बन्द होना चाहिए। किसानों की गरीबी ने पशु ह्रास पर बड़ा प्रभाव डाला है। बहुत से किसान गरीबी से तंग आकर अपने पशुधन को बेच देते हैं और खरीदने वाले होते हैं ये कसाई लोग ही। गरीबी के कारण न वे पशुओं को पूरा भोजन दे सकते हैं और न पूरी देखभाल कर सकते हैं और इस प्रकार पशुधन का ह्रास होता जा रहा है। गन्दगी और अव्यवस्था से भी बहुत से पशु मर जाते हैं। पशुओं का निर्यात तो कतई बन्द हो जाना चाहिए। भारत में पशुओं की विशेषकर दुधारू पशुओं की तो इतनी बहुलता है ही कहाँ कि हम पशुओं का निर्यात कर सकें। पिंजरापोल और गौशालाएँ भी उचित प्रकार से नहीं चलाई जा रही हैं। उनका उचित प्रबन्ध होना बहुत आवश्यक है क्योंकि ये संस्थायें तो जनता के सामने आदर्श रूप होनी चाहिये।
दूध देने वाले पशुओं की वर्तमान दशा तो अत्यन्त शोचनीय है ही। दूध की नदियों वाला देश भगवान् कृष्ण की जन्मभूमि और गोपालन के लिए संसार-प्रसिद्ध देश आज दुधारू पशुओं के मामले में बिलकुल पिछड़ा हुआ है। जहाँ कि देशों में गायें एक दिन में 30 सेर से 60 सेर तक दूध देती हैं, वहाँ यहाँ की गायें अधिक से अधिक 7-8 सेर प्रतिदिन ही दे सकती हैं। कोई-कोई गाय तो सेर दो सेर पर ही बस कर जाती है। बताइए, हम सच्चे गोपालक हैं या जर्मनी और डेनमार्क वाले, जहाँ की गाय, भैंसें इतना अधिक दूध देती हैं। इस मामले में भारत की शोचनीय दशा का अन्दाजा इस तालिका से लगाया जा सकता है-
[ देश ] [ दूध प्रति गाय (वार्षिक) ]
हालैण्ड 89 मन
डेनमार्क 85 मन
न्यूजीलैण्ड 60 मन
अमेरिका 40 मन
बेल्जियम 78 मन
जापान 70 मन
रूस 28 मन
भारत 6½ मन
भारत में दूध की बहुत कमी है। पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत के हर एक प्राणी को औसतन 6 औंस दूध प्रति दिवस प्राप्त होता है, जबकि संसार के दूसरे देशों के निवासी इससे कहीं बहुत अधिक दूध इस्तेमाल करते हैं-
संसार के विभिन्न देशों में प्रति दिन प्रति मनुष्य दूध की खपत
1 फिनलैण्ड 63 औंस
2 स्वीडन 61 ,,
3 न्यूजीलैंड 56 ,,
4 आस्ट्रेलिया 45 ,,
5 नार्वे 43 ,,
6 डेनमार्क 40 ,,
7 इंग्लैंड 39 ,,
8 कनाडा 35 ,,
9 अमेरिका 35 ,,
10 हालैण्ड 35 ,,
11 जर्मनी 35 ,,
12 बेल्जियम 15 ,,
13 फ्रांस 30 ,,
14 पोलैंड 22 ,,
15 भारत 6 ,,
दूध की उत्तमता और उसके चमत्कारी गुणों के बारे में तो किसी को सन्देह नहीं हो सकता है। यह दूध की ही कमी है कि हमारे बालक और युवागण निस्तेज और बलहीन पाये जाते हैं। बड़े-बड़े शहरों में तो दूध इतना महंगा हो गया है कि मध्यम श्रेणी के मनुष्यों को तो यह उपलब्ध ही नहीं होता। महंगी के अतिरिक्त असली दूध भी प्रायः प्राप्त नहीं होता। सच पूछा जाय तो दूध आजकल पथ्य सम हो गया है और अस्वस्थता के समय ही इसका उपयोग काफी समझा जाता है। लेकिन भारतवर्ष के लिए जो कि आज स्वतंत्रता के द्वार पर खड़ा है और अपने देश की पूर्ण जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार है- यह स्थिति अत्यन्त भयावनी है। इसका शीघ्र ही इलाज होना चाहिए, अन्यथा भारतीय जनपद निस्तेज, शक्ति हीन, रोगी और अकर्मण्य हो जायगा।