
गुरु मंत्र-गायत्री
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(पं. राम विलास जी, भारद्वाज आयुर्वेद शास्त्री)
उपनयन संस्कार के बाद वेदारम्भ होता है। वेदारम्भ के शुभारंभ में सर्व प्रथम चारों वेदों की जननी वेदमाता गायत्री की शिक्षा-दीक्षा दी जाती है यही गुरु दीक्षा है। गुरु दीक्षा का सुनिश्चित मंत्र गायत्री ही है। जिसका यज्ञोपवीत हुआ है उसका गुरुमंत्र गायत्री ही है। प्राचीनकाल में छात्र जब गुरु के आश्रम में, गुरुकुल में, शिक्षा प्राप्त करने जाता था तो आचार्य उसे पाशविक जीवन से छुटकारा पाकर मानवीय आदर्शों के अनुकूल जीवन बनाने की शपथ दिलाते थे, जो इस शपथ को नहीं लेता था, उसे शिक्षा का अधिकारी नहीं मानते थे यह शपथ ही द्विजत्व है। यज्ञोपवीत इस शपथ का प्रतीक, प्रमाण पत्र एक स्मरण चिन्ह है।
यज्ञोपवीत गायत्री की प्रतिमूर्ति है। जनेऊ के नौ धागे- गायत्री के नौ शब्द हैं, तीन लड़ें गायत्री के तीन पाद हैं, यज्ञोपवीत की चार ग्रन्थियाँ, गायत्री की लगी हुई तीन व्याहृतियों (भूर्भुवः स्वः) एवं प्रणव ॐ की प्रतीक हैं। इस प्रकार यज्ञोपवीत एवं गायत्री में शब्द और रूप का अन्तर होते हुए भी वस्तुतः एक ही तत्व में दो प्रकार है।
गुरु दीक्षा कोई स्वतंत्र संस्कार नहीं है। गायत्री समेत उपनयन धारण करने को ही गुरु दीक्षा कहते हैं। चूँकि गायत्री केवल शिक्षा मंत्र नहीं- शक्ति मंत्र भी है और शक्ति मंत्र सदा प्राण शक्ति के साथ सम्मिश्रित होकर ही फल प्रद होते हैं। पुस्तक में पढ़कर किसी शक्ति मंत्र को याद कर लिया जाय, तो उसका बहुत थोड़ा लाभ होगा। यदि उस शक्ति मंत्र के साधक विशेषज्ञ वा सिद्ध पुरुष की प्राण शक्ति के समावेश के साथ गुरु मुख से उस मंत्र को लिया जाय तो वह प्राणयोग मन्त्र साधक के लिये सफलता प्रदान करने वाला बन जाता है। इसीलिए प्रायः सभी शक्ति मंत्र गुरु मुख से लिये जाते हैं। वह मंत्र पहले से ही याद हो तो भी उसकी साधना में समुचित प्रगति एवं सफलता की संभावना तभी रहती है जब उसकी विधिवत् दीक्षा ली गई है। ‘राम’ यह दो अक्षर का मंत्र सर्व विदित हैं, फिर भी कबीर को इसे सफल बनाने के लिए इस ‘राम’ मंत्र को श्री स्वामी रामानंद जी से गुरु दीक्षा के रूप में ग्रहण करने की आवश्यकता पड़ी थी।
वेदारंभ एवं उपनयन के समय शास्रोक्त परम्परा के आधार पर गुरु मंत्र के रूप में गायत्री को ही दिया जाना चाहिये। पर आजकल अनेक सम्प्रदायों एवं मत मताँतरों का बोल बाला है। सो अपनी-अपनी मन मर्जी के मंत्रों को भी यज्ञोपवीत के समय कई पंडित देते हुए देखे जाते हैं। उसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है।
प्राचीनकाल में उपनयन और वेदारम्भ कराने वाले ही विद्वान होते थे जो वेदों के निष्णात एवं तपस्या के धनी बनने के उपरान्त गुरु मंत्र चलाने के अधिकारी बन जाते थे। कथा आती है कि गायत्री को वशिष्ठ और विश्वामित्र का शाप लगा हुआ है। शाप मोचन किए बिना गायत्री सफल नहीं होती। इस कथन का रहस्य यह है कि इस महामन्त्र के तत्वदर्शी-वशिष्ठ, श्रेणी के-एवं आत्मा को तपोवृत करके स्वार्थ परायणता की सीमा को तोड़ देते हैं और स्वमित्र ही न रहकर विश्वमित्र श्रेणी में प्रतिष्ठित हो जाते हैं ऐसे सत्पुरुष ही गायत्री मंत्र की दीक्षा देने के अधिकारी हैं। उन्हीं में इतना प्राण होता है कि शिष्य की अन्तरात्मा के गहन प्रदेश तक उस मंत्र की शक्ति को प्रतिष्ठित कर सकें। ऐसा अवसर जिन्हें प्राप्त नहीं होता उनकी साधना वैसी सफल नहीं होती जैसी होनी चाहिए और जिन्हें ऐसे संयोग, सुअवसर मिल जाते हैं, उनकी सफलता का मार्ग सरल हो जाता है। वशिष्ठ और विश्वामित्र का शाप लगने और उसका उत्कीलन करने पर मंत्र सिद्ध होने की आख्यायिका का यही अलंकारिक रहस्य है। अन्यथा चारों वेदों की जननी को भला कोई क्यों शाप देगा और शाप देने की हिम्मत भी करेगा तो इतनी प्रचंड शक्ति के समीप जाते जाते उस शाप की वही दुर्गति हो जायगी जो प्रचण्ड दावानल के निकट जाने पर एक तुच्छ तिनके की होती है।
यज्ञोपवीत संस्कार का कर्मकाण्ड और विधान कोई भी पण्डित करा सकता है। वह सरल है। उपयुक्त विश्वामित्र-वशिष्ठ गुण सम्पन्न आचार्य के अभाव में गायत्री मंत्र भी दे सकता है, पर वह वस्तुतः एक चिह्न पूजा है। विद्याध्ययन के लिये काशी गमन और गुरुकुल के लिये भिक्षा माँगने जैसे महान कार्यों का वास्तविक महत्व एवं लाभ उन कार्यों को वास्तविक रूप से ही करने में है पर जब वह सब नहीं बन पड़ता तो उस कल्याणमयी परम्परा का चिह्न पूजा के रूप में स्मरण रखने के लिये यज्ञोपवीत संस्कार के समय काशीगमन, ब्रह्मचर्य धारण, गुरुकुल प्रवेश, भिक्षाटन आदि की लकीर पीट लेते हैं, उसी प्रकार आदर्श मन्त्र निष्णात, विश्वामित्र-वशिष्ठ तत्वों से सुसम्पन्न गुरु न मिलने पर किसी से भी, यज्ञोपवीत कराने वाले पण्डित से भी गायत्री मन्त्र लिया जा सकता है किन्तु जिस प्रकार यज्ञोपवीत के समय गुरुकुल प्रवेश का अवसर न मिलने पर भविष्य में गुरुकुल प्रवेश का सुअवसर आने पर उसे ग्रहण करने का कोई प्रतिबंध नहीं है, उसी प्रकार यज्ञोपवीत के समय उपयुक्त मन्त्र दीक्षा प्राप्त न होने पर फिर कभी वैसा अवसर आवे तो उसका लाभ फिर उठा लेने में कोई प्रतिबंध नहीं है।
एक व्यक्ति के कई गुरु होते हैं और होने चाहिये। शिक्षा क्षेत्र में विभिन्न विषयों एवं विभिन्न कक्षाओं के अनेक अध्यापकों-गुरुओं के द्वारा शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है। आध्यात्मिक एवं धार्मिक क्षेत्र में भी एक व्यक्ति के अनेक गुरु होते हैं। राम लक्ष्मण के कुल गुरु वशिष्ठ जी थे पर उन्होंने विश्वामित्र के गुरुकुल में रहकर भी बहुत कुछ पाया था और उन्हें भी गुरु माना था। अनेक मन्त्रों के निष्णात अनेक आचार्यों से उन उन मन्त्रों की आवश्यकता पढ़ने पर उनको गुरु बनाना पड़ता है।
माता पिता और आचार्य इन तीनों की एक श्रेणी है। माता जन्म देती है। पिता भरण पोषण की व्यवस्था करता है और आचार्य ज्ञान देता है। यह तीनों ही कार्य समान रूप से महान होने के कारण इन तीनों को ही देव, गुरु एवं पितर माना गया है। लड़के और लड़की का उसमें भेद नहीं। लड़कों की भाँति लड़की के भी माता, पिता और अध्यापक होते हैं। अध्यात्म क्षेत्र में भी यही बात है। लड़कों को ज्ञान, शिक्षा एवं मन्त्र शक्ति की आवश्यकता है। यह आवश्यकता लड़कियों को न हो ऐसी कोई बात नहीं। नर और नारी का अध्यात्म क्षेत्र में कोई अन्तर नहीं। दोनों ही प्रभु के शरीर की दो भुजायें, दो आँखें हैं। दोनों का दर्जा समान है। कई व्यक्ति कहते हैं नारी का गुरु उसका पति है। दैनिक घरेलू एवं सामाजिक जीवन में यह बात सर्वथा उचित है, पर अध्यात्म क्षेत्र में यह बात लागू नहीं हो सकती। गुरु पिता तुल्य है। पति को पिता कैसे माना जायगा? यदि ऐसा उचित है तो फिर पति को गुरु दीक्षा भी पत्नी दे दिया करे।
एक नियम को सर्वत्र लागू करना उचित नहीं। विरक्ति प्रधान व्यक्ति नारी का शरीर स्पर्श न होने देने को अपनी साधना को पूर्ण करने के लिये स्त्री से शरीर स्पर्श न कराने का नियम बना लेते हैं, पर साधारण गृहस्थ जीवन में यह नियम नहीं चल सकता। सभी व्यक्ति अपनी माता के चरण छूते हैं। उनके लिये नारी जाति के अंतर्गत आने वाली माता के शरीर स्पर्श का कोई प्रतिबन्ध नहीं है। बहिनें अपने भाइयों से भुजा पसार कर प्रेम पूर्वक मिलती-जुलती है। बहुएं अपने सास-ससुर दोनों के चरण स्पर्श करती हैं। गृहस्थ जीवन में गुरुजनों का मान और अभिवादन नर और नारी समान रूप से करते हैं। नर और नारी के बीच जो कलुषित संबन्ध आज बढ़ रहे हैं, उसमें दोनों का क्षेत्र, स्थान और व्यवहार एक दूसरे से पृथक रहे तो अच्छा है, पर इसकी भी मर्यादा है। विरक्त पुरुषों का आदर्श, उनकी स्थिति के लिये नारी से दूर रहना उचित है, किन्तु पारिवारिक जीवन में सामान्य जीवन में कभी बहिन-भाई के भेंट-मिलन के, वधू द्वारा सास, ससुर के चरण स्पर्श करने, वैद्य द्वारा नाड़ी देखने या ऐसे ही अन्य पवित्र स्पर्श जहाँ आवश्यक हों वहाँ विरक्त पुरुषों के उदाहरण देना “सब धान बाईस पसेरी” डालने के समान ही होगा। नारी द्वारा किसी पुरुष का शरीर स्पर्श, चरण स्पर्श न हो यह कोई सामान्य नियम नहीं है, पर साधु विरक्तों की साधना में यह विशेष साधना अवश्य है।