
स्वाध्याय में प्रमाद न करें
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गुरुकुल में प्रवेश के समय शिष्य को आचार्य तीन शिक्षाएँ देता है और इन्हें नियमित रूप से पालन करने के लिए निर्देश देता हे। “सत्यं वद्” अर्थात् सत्य ही बोलो। “धर्मं चर” अर्थात् धर्म का ही आचरण करो और “स्वाध्यायानना प्रमदः” अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद न करो। सन्मार्ग पर चलने की शिक्षा अनेक हैं, पर उनमें तीन ही प्रमुख हैं। जो उन्हें पालन करता है, समझना चाहिए कि धर्माचरण का सार उसने हृदयंगम कर लिया।
यहाँ स्वाध्याय पर प्रकाश डाला जा रहा है। उसकी तुलना सत्य और धर्म के समतुल्य ही की गई है। उपनिषद् वचन है कि जो जिस दिन स्वाध्याय नहीं करता उस दिन उसकी तुलना चाण्डाल जैसी हो जाती है। शरीर को नित्य स्नान कराना आवश्यक है अन्यथा मैल जम जाएगा। बदबू निकलेगी, अनेकों रोग उपजेंगे। ठीक उसी प्रकार मन को स्नान कराने के लिए स्वाध्याय की व्यवस्था है। उसमें प्रमाद करने से मन के ऊपर विकारों की परत जम जाती है। मनोविकार उपजते हैं। मानसिक रोगों का उद्भव होता है। मन की मलीनता से शरीर तो रुग्ण होता ही है। कषाय कल्मषों का अम्बार जमा हो जाता है। यह इतनी बड़ी हानि है जिसे असाधारण ही कह सकते हैं। शरीर का स्वास्थ्य गँवा बैठना बुरा है। इससे भी बुरा मन का स्वास्थ्य गँवा बैठना है। स्वाध्याय की उपेक्षा करना, उसमें प्रमाद बरतना मन को रोगी बनाने के समान है।
स्वाध्याय क्या है? यह समझने की बात है। स्व माने अपने आपका। अध्याय माने अध्यापन करना। अपने आपको पढ़ना अर्थात् अपने को समझना। अपने को समझना अर्थात् अपनी समस्याओं को समझना और उनकी जानकारी प्राप्त करना।
पाठशालाओं में जो पढ़ाया जाता है। उसमें बाह्य संसार का विवरण होता है। भूगोल, इतिहास, भाषा, गणित आदि ऐसे प्रसंग हैं जिनका सम्बन्ध बाह्य संसार से है। अपने निज के सम्बन्ध में उसमें कोई जानकारी नहीं होती। स्कूल शिक्षा का उद्देश्य निर्वाह की समस्या हल करना है। पढ़ने के बाद अधिकाँश छात्र नौकरी तलाश करते हैं। इसके अतिरिक्त जो बचते हैं वे पैतृक व्यवसाय से रोजी रोटी कमाने का प्रबन्ध करते हैं। शिक्षा का प्रयोजन ही यही है। इसीलिए पढ़ते हैं, इसीलिए पढ़ाए जाते हैं। शिक्षा और आजीविका एक ही बात है। जो पुस्तकीय ज्ञान विद्यालयों में पढ़ाया जाता है वह आजीविका का, निर्वाह का उद्देश्य भर पूरा करता है, पर होना चाहिए ‘निर्माण’ की समस्या का हल। निर्वाह सामान्य बात है उसे बिना पढ़े भी कमा लेते हैं। इन दिनों बढ़ई, राज, मोची आदि को प्रायः पचास रुपये रोज मिलते हैं फेरी खोमचा लगाने वाले इससे भी अधिक ही कमा लेते हैं। चोरी उठाईगीरी करने वाले इससे भी अधिक कमाते हैं। जिनके पास कोई पैतृक व्यवसाय है वे उससे भी ज्यादा कमाते हैं। निर्वाह ही सब कुछ नहीं है। महत्वपूर्ण बात है- ‘निर्माण’। जीवन का निर्माण, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का निर्माण। गुण-कर्म स्वभाव का निर्माण। विद्या का उद्देश्य यही है। मनुष्य जीवन के साथ जुड़ी हुई अगणित समस्यायें हैं। उनका कारण, स्वरूप और समाधान समझा जा सके तो समझना चाहिए कि व्यक्तित्व का निर्माण सीखा गया। जिसे यह आता है, समझना चाहिए कि उसे सब कुछ आता है। जिसे यह नहीं आता, समझना चाहिए कि उसे कुछ भी नहीं आता।
मनुष्य का मूल्याँकन उसके व्यक्तित्व के आधार पर होता है। व्यक्तित्व के आधार पर मनुष्य महान अथवा क्षुद्र बनता है। प्रामाणिक अथवा अप्रामाणिक ठहरता है। जिनका भरोसा नहीं उसे कोई पास तक नहीं बैठने देता। कोई बड़ी जिम्मेदारी का काम नहीं सौंपता। ऐसे व्यक्ति प्रतिष्ठा रहित होते हैं। जहाँ-तहाँ ठोकरें खाते फिरते हैं। जिनका निर्माण नहीं हुआ है वे अनगढ़ रह जाते हैं। निर्माण किसका? चरित्र का। आदमी का असली मूल्य यही है। अन्यथा कमाने की योग्यता झटका लगते ही बिखर जाती है। स्वास्थ्य गड़बड़ाने लगे तो समझना चाहिए कि निर्वाह की समस्या समाप्त हुई। किन्तु जिसका व्यक्तित्व उच्चस्तरीय है वह स्वास्थ्य के गड़बड़ाने पर भी मजबूती से अपने स्थान पर खड़ा रहता है। आद्यशंकराचार्य को भगंदर का फोड़ा हो गया था उसी कारण उनका 32 वर्ष की आयु में निधन हो गया। किन्तु बीमार रहते हुए भी उनके व्यक्तित्व को कोई आँच नहीं आई।
स्कूलों में आदमी बहुत कुछ पढ़ लेते हैं। मेकेनिक, इंजीनियर, डॉक्टर, प्रोफेसर आदि हो जाते हैं और अपने काम में कुशलता दिखाते हुए समुचित आजीविका भी कमाते हैं। पर अपने निज से सम्बन्धित समस्याओं का स्वरूप और समाधान समझने के कारण व्यक्ति निरन्तर खिन्न, उद्विग्न बना रहता है। भगवान ने सभी को अच्छा खासा शरीर दिया है। इसे कितने आदमी जानते हैं। फिर बीमार होने पर हकीम, डॉक्टरों के यहाँ झक मारते फिरते हैं। वह तौर तरीका मालूम नहीं होता जिससे अपना रहन-सहन, आहार-विहार बदले देने के कारण खोए हुए स्वास्थ्य को फिर से लौटाया जा सके।
मनुष्य के पास सबसे बहुमूल्य सम्पदा उसका मस्तिष्क है। मन, बुद्धि, चित्त के सन्तुलित होने पर मनुष्य अपनी समस्याओं को हल कर लेता है, उलझनें सुलझा लेता है ओर प्रगति का द्वार खोल लेता है। जिसका चिन्तन अस्त-व्यस्त है वह चरित्र खो बैठता है। दुश्चरित्र से हर किसी के साथ दुर्व्यवहार ही बन पड़ेगा। दुर्गति अपनाने पर दुर्गति ही होती है। इसके विपरीत जिसका दृष्टिकोण सुलझा हुआ है उसे गुत्थियों का सामना नहीं करना पड़ता। उसका व्यवहार ऐसा होता है जिससे जीवन शान्ति के साथ व्यतीत होता रहे और जिन लोगों के साथ सम्बन्ध संपर्क हो वे भी सदा प्रसन्न और सन्तुष्ट रहें। सहानुभूति बातें और सहायक सिद्ध होते रहें। यह मानसिक स्वच्छता और प्रखरता का प्रतिफल है।
आदतें आदमी की निज की डाली हुई होती हैं। फिजूल खर्च, तुनक मिज़ाजी, जल्दबाजी की आदतें भी ऐसी हैं जो आर्थिक कठिनाइयाँ उत्पन्न करती हैं और जिनके साथ सम्बन्ध हैं उनसे कटुता उत्पन्न कर लेती हैं। आलस्य, प्रमाद की आदत ऐसी है जो आदमी को निकम्मा बना कर रख देती है। इन आदतों से कैसे बचा जाय और यदि वे पीछे लग गई हैं तो उनसे कैसे पीछा छुड़ाया जाय, यह तक लोगों को नहीं आता। नशेबाजी के शिकार होने पर स्वास्थ्य, पैसा, इज्जत और परिवार का सत्यानाश कर लेते हैं, पर उन्हें छोड़ नहीं पाते। इसे व्यक्तित्व की हीनता ही कहा जाएगा।
परिवार में कई व्यक्ति होते हैं। उनके साथ प्रेमपूर्वक सहयोग के साथ कैसे रहा जाय। आपस में कोई झंझट खड़ी होती है तो उसे कैसे सुलझाया जाय। यदि इतना भी आदमी को नहीं आता तो उसे अनपढ़, अनाड़ी ही कहा जाएगा। भले ही उसने ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन की परीक्षा, फर्स्ट डिवीजन से ही क्यों न पास कर ली हो।
एक आदमी अपने गुण, कर्म, स्वभाव के कारण महापुरुषों की श्रेणी में गिना जाता है और दूसरा इन्हीं बातों में खोट रहने के कारण जन-जन द्वारा दुत्कारा जाता है और पग-पग पर असफलताएँ प्राप्त करता है। इसके लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है। व्यक्तित्व बिगाड़ लेने का ही परिणाम है कि अवसर सामने होते हुए भी व्यक्ति ठोकरें खाता-फिरता है। यदि अपना दृष्टिकोण परिष्कृत हो तो गई-गुजरी परिस्थितियाँ होते हुए भी आदमी निरन्तर ऊँचा उठता जाता है।
इसी को निर्माण कहते हैं। इसके लिए जीवन निर्माण में सहायता करने वाला साहित्य पढ़ना तो आवश्यक ही है, इसके अतिरिक्त उच्चस्तर वाले व्यक्तियों का सान्निध्य संपर्क रखना भी आवश्यक है। स्वाध्याय में मनन चिंतन भी शामिल है। अपनी समस्याओं का सही स्वरूप समझना और उन्हें विवेकपूर्ण ढंग से सुलझाना, यह भी स्वाध्याय है।
कई व्यक्ति शास्त्र पुराणों का पाठ करते रहना ही स्वाध्याय समझते हैं। उसकी चिन्ह पूजा कर लेने से कोई काम नहीं बनता। साहित्य पढ़ना हो तो जीवन की समस्याओं का स्वरूप और समाधान बताने वाला साहित्य पढ़ना चाहिए। इसके लिए विचारशील दूरदर्शी लोगों का लेखन ही चयन करना चाहिए। स्वाध्याय के नाम पर उलटी-सीधी पुस्तकें पढ़ लेने से काम नहीं चलता भले ही थोड़ा पढ़ा जाय पर उसे चिन्तन मनन पूर्वक पढ़ा जाय। साथ ही यह परखते चला जाय कि आदर्शों का हम अनुकरण कर रहे हैं या नहीं। यदि नहीं तो भूल को तुरन्त सुधारा जाय। यदि कर रहे हैं तो उस दिशा में और भी दृढ़ता अपनानी चाहिए। इस मनःस्थिति के साथ समाधान परक साहित्य पढ़ा जाये। यही स्वाध्याय है। आत्म निर्माण की, व्यक्तित्व के विकास की प्रेरणा देने वाली विचार पद्धति ही स्वाध्याय है। स्वाध्यायशील दिन-दिन ऊँचे उठते हैं। इसलिए उसे नियमित रूप से अपनाये रहने के लिए शास्त्रकारों ने निर्देश दिया है। उसमें प्रमाण नहीं ही करना चाहिए।.