
क्या सचमुच महाप्रलय की घड़ी आ गई?
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तीस जून 1908 की प्रातः पृथ्वी के उत्तरी-गोलार्ध में साइबेरिया के सुनसान बर्फ ढके भूक्षेत्र तुगस्का के समीप एक अंतर्ग्रही गोला आ टकराया जिससे आस-पास के हजार से भी अधिक वर्ग मील दूर तक धरती काँप गयी एवं वहाँ एक विशाल गह्वर बन गया। इसका भली-भाँति पर्यवेक्षण करके वैज्ञानिकों ने इस ऐतिहासिक अभूतपूर्व घटना को किसी लाखों टन वजनी तारे (एस्टेरॉइड) अथवा पुच्छल तारे का कमाल बताया। उनका मत था कि यदि यह उल्का पिण्ड या ग्रहों का चूरा किसी आबादी भरे क्षेत्र पर गिरता तो पृथ्वी की एक चौथाई आबादी तुरन्त नष्ट हो गयी होती एवं इससे उत्पन्न ऊर्जा से वातावरण अत्यन्त गर्म हो उठता। इस एस्टेरायड के टकराने से जो ऊर्जा उत्पन्न हुई थी वह 12 मेगाटन हाइड्रोजन बम द्वारा छोड़े जाने वाली ऊर्जा से भी अधिक थी। यह तथ्य स्मरणीय है कि हिरोशिमा पर इस सदी के 40वें दशक में छोड़ा गया परमाणु बम सामर्थ्य में इससे एक हजार गुना कम था। जापान में इसने जो तबाही मचायी थी उससे कल्पना की जा सकती है कि 1908 जैसी घटना की पुनरावृत्ति होने पर महाविनाश का क्या स्वरूप होगा?
खगोल वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी के सौर मण्डल में ऐसे घातक एस्टेरॉइड एवं पुच्छल तारे सतत् चक्कर लगा रहे हैं जो कभी भी दिशा बदलकर पृथ्वी से टकराकर धरती पर तबाही मचा सकते हैं। आधे वर्ग मील से लेकर 600 वर्ग मील तक के आकार वाले ये ग्रह पिण्ड मंगल तथा बृहस्पति के बीच एक निर्धारित परिधि में चक्कर लगाते हैं जिसे “एस्टेरॉइड बेल्ट” कहा जाता है। वैज्ञानिकों का मत है कि कोई आवश्यक नहीं कि ये एस्टेरॉइड इसी परिधि में घूमते रहें। वे कभी भी मार्ग से भटकते हुए पृथ्वी से आ टकरा सकते हैं। हिदाल्गो, एडोनिस, अपोलो एवं इकॉरस नामक चार ऐसे एस्टेरॉइड हैं जिनकी आने वाले 25 वर्षों में कभी भी धरती से आ टकराने की सम्भावनाएँ व्यक्त की जा रही हैं।
परमाणु युद्ध के बारे में दो दशकों से कुछ चर्चाएँ होती रही हैं, काफी कुछ लिखा भी जा चुका है। सबसे भयावह सम्भावनाएँ बताते हुए वैज्ञानिक कहते हैं कि 10 हजार मेगाटन के विस्फोट से जलवायु पूर्णतः बदल जाएगी एवं इस “परमाणु ठण्ड” से कोई भी व्यक्ति या जीव अछूता न रहेगा। किन्तु नासा के ही वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी पर आकर टकराने वाला इन चारों में से एक भी ग्रह पिण्ड इतनी अधिक ऊर्जा उत्पन्न करेगा कि सारी सृष्टि मलबे में बदलकर अन्तरिक्ष में चक्कर लगाने लगेगी। जैसी अन्तर्ग्रही परिस्थितियाँ बन रही हैं, उससे इस सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता।
इन्हीं ग्रह पिण्डों की शृंखला में पुच्छल तारों की भी चर्चा होती है जो हर 76 वर्ष बाद उदय होते व पृथ्वी के निकट आकर अपनी विषाक्त धूलि से यहाँ के वातावरण को प्रभावित करते हैं। इसी क्रम में अगले दिनों 80 हजार किलोमीटर प्रतिदिन की गति से चलने वाला “हैली धूमकेतु” 1985 के प्रारम्भ में गुरु की कक्षा में प्रवेश कर जाएगा एवं 1986 में पृथ्वी की कक्षा में आ जाएगा। इसे नवम्बर 85 से जनवरी 86 तक उत्तरी गोलार्ध में दूरबीन द्वारा देखा जा सकेगा एवं नंगी आँखों से फरवरी से अप्रैल 1986 तक, जब यह अपनी विशालकाय पूँछ का घेरा लिए पृथ्वी के सर्वाधिक समीप से गुजरेगा। दक्षिणी गोलार्ध में जून 86 तक दृश्यमान रह यह लुप्त हो जाएगा।
आखिर इस तारे में क्या विशेषता है, जो खगोल वैज्ञानिक एवं अन्तरिक्ष विज्ञानी इतने निश्चित हैं? वस्तुतः 6 किलोमीटर व्यास, साढ़े आठ करोड़ किलोमीटर लम्बी पूँछ वाला यह तारा पिछले अन्य धूमकेतुओं की तुलना में कहीं अधिक बड़ा एवं विषाक्त मलबा अपने अन्दर समाए एक आसन्न विभीषिका के रूप में प्रकट होने जा रहा है। “सावधान! धूमकेतु आ रहा है (विवेयर, हैली इज कमिंग)” नामक पुस्तक में विशेषज्ञ विद्वानों ने अपने मत प्रकट करते हुए कहा है कि इस धूमकेतु की अनेकों भयावह प्रतिक्रियाएँ सम्भावित हैं। इसके प्राकट्य के दिनों में भूकम्प, बाढ़, महामारी, मानसिक विक्षोभ एवं महायुद्ध होने तक की सम्भावनाएँ बतायी गयी हैं। लेखकों का मत है कि पृथ्वी के समीप आते ही इसका सड़ा मलबा जो विषाक्त गैसें छोड़ता है, वे सारे पर्यावरण को दूषित करती हैं। इनसे ऐसे विषाणु- जीवाणु जन्म ले सकते हैं जिनकी रोकथाम अत्याधुनिक साधनों के होते हुए भी मानवी प्रयासों द्वारा सम्भव न हो सकेगी। अँग्रेजी शब्द “डिजेस्टर” (महाविनाश) की व्युत्पत्ति धूमकेतु के कारण ही हुई है। यह लैटिन व ग्रीक दो शब्दों से मिलकर बना है, जिसका अर्थ होता है “इविल स्टार” (खतरनाक तारा)। शताब्दियों से यह मान्यता रही है कि यह अशुभ तारा है। इसके प्रकट होने का अर्थ ही विपत्तियों का बरसना हैं।
इन धार्मिक मान्यताओं एवं अभिमतों के पीछे कितना तर्क सम्मत आधार है, यह नहीं कहा जा सकता, किन्तु उनके प्राकट्य एवं प्रकृति प्रकोपों के साथ-साथ घटित होने के संयोगों को झुठलाया नहीं जा सकता। घूमकेतुओं और उल्काओं के मध्य परस्पर गहरा सम्बन्ध है। अधिकाँश वैज्ञानिकों का मत है कि जितना भी उल्कापात पृथ्वी पर होता है अथवा एस्टेराइड्स के पृथ्वी के समीप आने व टकराने की सम्भावनाएँ हैं, उनके लिये मूलतः धूमकेतु ही जिम्मेदार हैं। वे भले ही पृथ्वी की कक्षा से दूर बने रहते हों पर अपने दूरगामी प्रभाव से सतत् उल्का पिण्डों व कॉस्मिक किरणों की बौछार पृथ्वी पर करते रहते हैं। खगोल वैज्ञानिकों का यह भी मत है कि सूर्योदय के कुछ पूर्व व सूर्यास्त के बाद स्वच्छ आकाश में धुँधली लालिमा (जोडिएकल लाइट) दिखाई पड़ती है, वह धूमकेतु द्वारा बिखेरे गए छोटे-छोटे कणों के कारण ही उत्पन्न होती है। वे यहाँ तक कहते हैं कि प्रसुप्त पड़े ज्वालामुखियों का सहसा फूट पड़ना तथा भू-चुम्बकीय उत्पातों के कारण प्रकृतिगत असन्तुलन भी पृथ्वी पर पड़ने वाले धूमकेतुओं के प्रभाव के कारण है।
धूमकेतु सौर परिवार के सबसे प्राचीनतम एवं सर्वाधिक सुरक्षित ग्रह पिण्ड हैं। यही कारण है कि वे सतत् भटकते व सौर मण्डल में चक्कर लगाते रहते हैं। जब भी वे सूर्य के अत्यधिक समीप आते हैं, उनकी नाभिक इस विपुल ऊर्जा से नष्ट हो जाती है एवं वे निष्क्रिय हो जाते हैं। जो धूमकेतु विशाल व बड़ी परिधि लिए होते हैं, वे सुरक्षित बचे रह अपना प्रभाव अन्तरिक्ष में सुनिश्चित रूप से छोड़ते हैं जो विषाक्त धूम्रों के रूप में होता है। अगले दिनों आने वाला हैली धूमकेतु कुछ इसी श्रेणी का होगा एवं अपने दुष्प्रभावों से पृथ्वी के वायु मण्डल को पहले से अधिक अनुपात में प्रभावित करेगा।
वैज्ञानिक अपने-अपने ढंग से सोचते हैं एवं अभी से उन्होंने इस सम्भावित अतिथि का परीक्षण व उसके माध्यम से ग्रहों के विषय में पुरातन तम जानकारी प्राप्त करने की तैयारी आरम्भ कर दी है। ऐसे उपग्रह अन्तरिक्ष में छोड़े जा रहे हैं जो इस ग्रह पिण्ड का अध्ययन कर विश्लेषित कम्प्यूटराइज्ड जानकारी धरती पर भेजेंगे। फिर भी इतिहास को झुठलाया नहीं जा सकता कि पुच्छल तारे का आगमन विशेषकर युग सन्धि की इस विषम वेला में एक अशुभ संकेत है। इसके पृथ्वी से टकराने की कोई सम्भावना नहीं है किन्तु इसके पृथ्वी के आयनमण्डल में प्रवेश करते ही प्रभाव क्षेत्र में घातक किरणों की जो बौछार होगी, उसके दुष्परिणाम अवश्यम्भावी हैं। पहले जब-जब भी प्रकट हुआ है, युद्ध महामारी, दैवी विपदाएँ, अकाल, चक्रवात जैसी परिस्थितियाँ बनी हैं। इन्हें संयोग कहकर टाला नहीं जा सकता। मौसम का असन्तुलन, मनोविकार एवं असाध्य व्याधियाँ जो इन दिनों दृश्यमान हैं, वे यही संकेत देती हैं कि अभी से अन्तर्ग्रही प्रभावों की शृंखला आरम्भ हो गयी है। आने वाले दिन और भी विषम होंगे। ऐसी स्थिति में मानवी पुरुषार्थ सफल नहीं हो पाता। वह परिस्थिति का विश्लेषण कर सकता है, उपचार नहीं। सृष्टा ने इस धरित्री को विनाश के लिये नहीं बनाया, यह स्पष्ट माना जाना चाहिए। अदृश्य जगत के परिमार्जन-परिशोधन हेतु विश्वव्यापी स्तर पर अध्यात्म अनुशासनों के परिपालन की आवश्यकता अब अनिवार्य प्रतीत होती है ताकि प्रतिकूल को निरस्त कर विभीषिकाओं से जूझा जा सके।