
दृष्टा बनाम सृष्टा
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मनुष्यों के वर्गीकरण में उनके दो विभाजन सहज ही हो जाते हैं। एक दृष्टा दूसरा सृष्टा। दृष्टा जिनका मनोविनोद देखने तक सीमित है, जो तरह-तरह के दृश्य देखते, मनोरंजक गतिविधियों का पर्यवेक्षण करते और मन बहलाते हैं। अन्यत्र होने वाली घटनाएँ उन्हें रुचिकर लगती हैं। घटनाओं की विचित्रता उन्हें सुहाती है। अधिक बारीकी से उनके विवरण सुनते हैं। कहानियाँ सुनने, रेडियो सुनने, उपन्यास पढ़ने, सैर करने से उनका दृष्टा मन प्रसन्न होता है।
दृष्टा पर कोई भार नहीं पड़ता उसे जो घटित होने वाला है उसे देखकर कौतूहल युक्त विनोद करना है। अच्छे शब्दों में इसे जानकारी बढ़ाना भी कह सकते हैं।
सृष्टा वे हैं जिनका मन किसी सृजन कार्य में लगा रहता है। करने के लिए कुछ कार्य निर्धारित करते हैं, उसकी रूपरेखा बनाते हैं। साधन जुटाते हैं। बाने में जो भूल-चूक होती है उसे सुधारते हैं। सफलता को और भी अच्छी बनाने की दृष्टि से सोचते हैं कि इसमें क्या परिवर्तन किया जाना चाहिए और उसके लिए साधनों, क्षमताओं और परिस्थितियों को किसी प्रकार सुगढ़ बनाया जाना चाहिए।
मनमौजी दृष्टा लोग जब अपने साथ सृष्टा की तुलना करते हैं तो उन्हें जमीन आसमान जैसा अन्तर दीखता है। स्कूल में साथ पढ़ने वाले फिसड्डी लड़के कहाँ से कहाँ पहुँच गये। जबकि उनके पास विपुल साधन होते हुए भी अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होने का अवसर नहीं आया। कारण एक ही रहा- दिमाग की कमजोरी रहते हुए भी उत्कण्ठा अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होने की लगी रही ओर समय का ऐसा कार्यक्रम निर्धारित करते रहे जिसको अपनाये रहकर वे प्रगति पथ पर निरन्तर बढ़ते रहे।
दृष्टा का मानस विनोद प्रिय होता है। उसे विनोद के चित्र विचित्र आधार चाहिए। प्रत्यक्ष न मिले तो कल्पना लोक में उड़ना और दिवा स्वप्न देखना भी एक रुचिकर काम बन जाता है पर इसी जाल जंजाल में समय, शक्ति, चिन्तन की वह सारी पूँजी चुकती जाती है, जिसे यदि किसी योजनाबद्ध प्रयास में लगाया गया होता तो उसके परिणाम सामने आते। सर्वथा शेख-चिल्ली की रीति-नीति अपनानी हो तो बात दूसरी है। अन्यथा इस कुचक्र में उनकी शक्ति पूँजी घटती ही चली जाती है।
सृजन कम आकर्षक, मनोरंजक एवं रुचिकर नहीं है। क्योंकि उसके पीछे किसी संकल्प को साकार करने की उत्कण्ठा काम करती है। यह रूखा कार्य उन्हीं के लिए हो सकता है जिनके ऊपर कोई काम बेगार की तरह थोपा गया हो। जिसके लाभ हानि में, जिसकी सफलता असफलता में सृष्टा की कोई सीधी दिलचस्पी न हो। किन्तु यह ऐसा नहीं है तो उससे सृष्टा की योग्यता निरन्तर बढ़ती है। असफलता के बिन्दु को ढूँढ़ना और उसे सुधारना कम आकर्षक नहीं है। उसमें प्रतिभा बढ़ाने के गुण हैं।
यदि सफलता मिलती है तो उसका प्रतिफल हाथों-हाथ प्रशंसा के रूप में मिलता है। काम अपना है तो यश अपना है किन्तु यदि काम सार्वजनिक है या अन्य किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति द्वारा सौंपा हुआ है तो उसकी चर्चा मण्डली में होती है और कुशलता की प्रशंसा होती है।
सृजन ही वह क्रिया है जिसमें व्यक्ति ओर संसार की उन्नति हुई है। वैज्ञानिकों, साहित्यकारों से लेकर साधारण शिल्पियों तक जिनने कुछ रचनात्मक कार्य कर दिखाये हैं, उन्हें अगली उन्नति के अवसर मिले हैं। उन्हें अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण काम सौंपे गये हैं।
जो लोग सोचते हैं कि मनोरंजन में जिन्दगी का मजा है वे यह भूलते हैं कि दृष्टा को ठाली समझा जाता है। वह अपने साथी ढूँढ़ता है और एक ठलुआ क्लब बना लेता है। इस कुटेव की आदत वह दूसरे को भी लगा देता है। जैसे अनेक व्यसन संसार में बदनाम हैं उसी प्रकार खाली रहना, इधर-उधर की बातों में बेकार समय गँवाना भी एक ऐसा काम है जिससे किसी को प्रसन्नता नहीं होती। यहाँ तक कि अपने को भी सन्तोष नहीं होता। इसलिए दृष्टा वर्ग की तुलना में सृष्टा वर्ग को ही श्रेष्ठ माना गया है।