
उपयुक्त रंग चुनिये, मनोविकारों से बचिये
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
प्रकृति का सौंदर्य रंगों की विविधता के कारण ही है। रंगों का सम्पुट लगने पर साधारण वस्तुएँ भी आकर्षक, सुन्दर लगने लगती हैं। मनुष्य ने सम्भवतः इसी कारण कृत्रिम शृंगार साधनों के निमित्त प्रकृति से रंगों की निधि उधार में ली और सज्जा के निमित्त उसे प्रयुक्त किया। किन्तु यह पक्ष अभी भी बहुत व्यक्तियों को ज्ञात नहीं कि रंगों का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर असाधारण प्रभाव पड़ता है। यदि यह जानकारी उपलब्ध हो सके कि कौन सी ऋतु में, किस स्वभाव के व्यक्ति के लिये कौन-सा रंग उचित रहेगा, तो उससे सर्वसाधारण को वाँछित वर्ण चुनकर लाभान्वित होने का अवसर भी मिलेगा एवं अवाँछनीयता से होने वाली हानि से वे बच भी सकेंगे।
सबसे पहले एक जिज्ञासा का समाधान कौन? रंग वस्तुतः है क्या? भौतिकी दृष्टि से देखा जाय तो उन्हें हम कैसे निरूपित करेंगे? आधुनिक भौतिकी के अनुसार रंगों का यह सारा खेल इलेक्ट्रानों और विकिरणों की तरंगों की न्यूनाधिक लम्बाई के कारण उपजता है। प्रत्येक परमाणु को नाभिक के बाहर चक्कर लगाते इलेक्ट्रान विशिष्ट लम्बाई की रेडियो तरंगों को सोखने की क्षमता रखते हैं। ये बाहरी इलेक्ट्रान स्थिति विशेष में उत्तेजित हो उठते हैं एवं बाहरी कक्षाओं में कूद जाते हैं। ये स्थितियाँ तब उत्पन्न होती हैं जब वे पराबैंगनी प्रकाश किरणों को अवशोषित करते हैं। यह उत्तेजना की स्थिति थोड़ी देर बनी रहती है, वापस सामान्य स्थिति होती रहती है। इस मध्यावधि में परिवर्तन प्रक्रिया से एक निश्चित तरंग लम्बाई के फोटोन कण उत्सर्जित होते हैं। इस प्रकार के उत्सर्जित विकिरण की तरंग लम्बाई ही सात रंगों में से किसी एक रंग का निर्धारण करती है जिन्हें मस्तिष्क का विजुअल कार्टेक्स पहचानता व मस्तिष्क को यह बताता है कि यह कौन-सा रंग है।
सूर्य की किरणें सात रंगों की बनी होती हैं। सफेद रंग इन सबका सम्मिश्रित रूप है। प्रकृति जगत रंगों की विविधता से भरा-पूरा है, इतनी विविध कि मानवी कल्पना उसकी थाह नहीं पा सकती। इन रंगों को संश्लेषित करना भी मनुष्य के लिये सम्भव नहीं। होली में प्रयुक्त गुलाल भी वस्तुतः पौधों से ही निकला है।
सौर किरणों एवं प्रकृति में विद्यमान रंगों पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों का मत है कि भिन्न-भिन्न रंग व्यक्ति विशेष की मनःस्थिति के आधार पर अनुकूल एवं प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। रंगों को अवसर विशेष के अनुरूप किस प्रकार चुना जाय इसका आधार उनसे उत्पन्न संवेदन प्रतिक्रिया ही है। प्रकृति के अनुरूप रंगों के प्रति आकर्षण-विकर्षण होता है। किसी को लाल रंग के कपड़े पहनने से चक्कर आने लगता है तो किसी को काले कपड़े पहनते ही मानसिक अवसाद आ घेरता है। मनश्चिकित्सक इस प्रतिक्रिया के आधार पर उन्हें उपयुक्त सुझाव देते हैं। यू. सी. एल. ए. के डा. हॉस का कथन है कि प्रयोगों से पता चला है कि प्रमादी अल्प मन्दता ग्रस्त विद्यार्थियों के कमरों में लाल रंग पुतवा देने व उसी ढंग के पर्दे लगा देने से उनकी कार्यक्षमता भी बढ़ी व उनमें स्फूर्ति-उत्साह के साथ-साथ उनका आय. क्यू भी बढ़ता देखा गया। चपल, आतुर प्रकृति के विद्यार्थियों पर इसी प्रकार उन्होंने नीले रंग का प्रयोग किया। इससे शामक प्रतिक्रिया हुई व उनकी चंचलता, तनाव में कमी आयी। सामान्य प्रकृति के, मनोविकार ग्रन्थि रहित व्यक्तियों में हल्का पीला- बसंती रंग प्रयुक्त करने पर उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया पायी गयी।
वैज्ञानिक डा. अलबर्ट कॉहन (स्टैन फोर्ड रिसर्च सेण्टर) का मत है कि कई मनोविकार ग्रस्त, तनाव पीड़ित बेचैन व्यक्तियों का उपचार मात्र उनके आसपास के रंगों को बदलकर किया जा सकता है। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि भली-भाँति मनोविश्लेषण कर यदि सही रंग सबको पहले से ही सुझा दिये जायें तो अनेकों मनोरोगों को टाला जा सकता है।
रंगों के आधार पर मनोविज्ञान परक विश्लेषण कैसे सम्भव है, इसे लक्ष्य बनाते हुए पश्चिम जर्मनी के मनःचिकित्सक डा. मैक्सल्यूशर ने व्यक्तित्व विश्लेषण की एक पद्धति विकसित की है जिसमें कुल आठ रंगों में से व्यक्ति को अपनी पसन्दगी-नापसन्दगी के अनुसार रंग चुनने होते हैं। ये आठ रंग हैं- जामुनी, नीला, हरा, लाल, पीला, कत्थई, भूरा और काला। डा. ल्यूशर के अनुसार नीला रंग शान्तिपूर्ण सात्विक प्रभाव डालने के कारण शान्त सौम्य सतोगुणी व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है। हरा रंग सक्रियता, काम के प्रति गहरी आसक्ति और गतिशीलता का द्योतक है। ऐसे व्यक्ति जो हरा रंग पसन्द करते हैं, जीवन में खतरा मोल लेकर कार्य करते हैं व कर्मठता के बलबूते ऊँचे उठते चले जाते हैं। इसी प्रकार लाल रंग स्फूर्ति और आवेश का प्रतीक है। ऐसे व्यक्ति उत्साही तो होते हैं, किन्तु बहुत शीघ्र आवेशग्रस्त हो जाते हैं। पीला रंग प्रफुल्लता, हल्की-फुल्की मस्ती भरी जिन्दगी का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसे व्यक्ति अल्हड़ काम में रस लेने वाले किन्तु कभी चिन्तित न होने वाली प्रकृति के होते हैं।
जामुनी रंग मानसिक अपरिपक्वता, कच्चेपन एवं बचकानेपन का द्योतक है। जबकि कत्थई रंग इन्द्रिय लिप्सा, भोगों में रुचि व असंयम का प्रतीक है। भूरा रंग, तटस्थता और निरपेक्ष भाव का परिचायक है जबकि काले रंग को पसन्द करने वाले अधिकाँश व्यक्ति निषेधात्मक चिन्तन के होते हैं। जैसे ही उनकी बाह्य परिस्थितियों से इस रंग के प्रभाव को हटा दिया जाता है, उनमें विधेयात्मक वृत्ति उभरने लगती है।
डा. ल्यूशर सामान्य व्यक्तियों एवं असामान्य मनोविकारग्रस्त रोगियों से अपनी पसन्द के रंग चुनने को कहते हैं। प्राथमिक चुनाव के आधार पर उस रंग के प्रति संवेदनशीलता का परिचय मिलता है। उसके साथ चुना गया द्वितीय वरीयता का रंग उसकी पसन्दगी- मनोवृत्ति को स्पष्ट कर देता है। नापसन्दगी अर्थात् इस क्रम में रखे गए अन्तिम वर्ण इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं कि उस व्यक्ति को किन-किन वृत्तियों से परहेज है।
पाश्चात्य जगत में रंग विज्ञान के मनोवैज्ञानिक पक्ष के प्रति रुचि जागी तो है, पर है वह मूलतः मनुष्य की अन्तःवृत्ति पर आधारित। जुंग, एडलर एवं मैस्लो जैसे मनोवैज्ञानिकों ने उपरोक्त परीक्षण के प्रति सन्देह व्यक्त किया था क्योंकि यह निर्णय मस्तिष्क की उथली परतों द्वारा लिया गया होता है। विशेषकर जुंग इस विषय में पूर्ववर्ती मनोविज्ञान के प्रति संकेत करते हुए कहते हैं कि देवी-देवताओं, पंच तत्वों के प्रतीक एवं सूर्योपासना, अग्नि आराधना के पीछे मूलतः वर्ण विज्ञान के सिद्धान्त हैं। मानव मूलतः श्रेष्ठ वृत्तियों वाला है तथा वह उन्हीं को उत्तेजना देने वाले आयामों को बहिरंग में ढूंढ़ता है। आधुनिक तड़क-भड़क में श्रेष्ठता को बढ़ावा देने वाले पक्ष तो गुम हो गए हैं एवं “वीजुअल पॉल्युशन” को जन्म देने वाले चटकीले उत्तेजक तत्व बहिरंग में प्रचुरता में हैं। इन्हीं के कारण चिन्तन को निषेधात्मक फटकार मिलती रहती है। सतत् ऐसे पोषण से तनाव, बेचैनी का होना स्वाभाविक है।
वर्णों के आधार पर चिकित्सा की पद्धति भारत में प्राचीनकाल से ही प्रचलित रही है। योग साधना में भी सूर्योपासना एवं रंग चिकित्सा की अनेकों विधाओं का उपयोग साधक की मनःस्थिति को दृष्टिगत रख समर्थ मार्गदर्शकों द्वारा किया जाता रहा है। यह प्रभाव उथली संवेदनात्मक प्रतिक्रिया तक सीमित न रहकर आध्यात्मिक विकास में उत्प्रेरक की भूमिका निभाने लगता है।
ध्यान साधना में भारतीय दर्शन के प्रवक्ताओं द्वारा भिन्न-भिन्न रंग सम्वेदनाओं का प्रयोग किया जाता रहा है। इन प्रभावों को आज भी भली-भांति समझकर उनका लाभ उठाया जा सकना सम्भव है। रंगों के प्रभाव से स्वयं रंग जाने के स्थान पर उनका इच्छानुकूल और मनःस्थिति के अनुरूप प्रयोग करना ही औचित्यपूर्ण है, इसमें कोई सन्देह नहीं। क्यों न हम उचित वर्ण चुनकर उनसे समुचित लाभ उठाए एवं न केवल दैनंदिन जीवन में, अपितु आत्मिक जीवन में भी प्रगति-पथ पर बढ़ने हेतु उनका सदुपयोग करें?